दीपावली :- कार्तिक अमावस्या को मनाया जाने वाला यह बड़ा त्योहार मेवाड़ में पहले दीपमालिका कहलाता था। इस दिन महाराणा नगीनाबाड़ी में दरबार आयोजित करते थे। महाराणा अपने नजदीकी भाई-बेटों सहित जनाना महलों में हीड़ सींचवाने के लिए जाते थे।
अमीर हो या गरीब का घर, सारा शहर दीपक की रोशनी से जगमगाता था। अगले दिन कार्तिक शुक्ल 1 को खेंखरा मनाया जाता। इस दिन मेवाड़ में बांसों व लकड़ियों से निर्मित जलंधर नामक दैत्य का पुतला जलाया जाता।
इसे देखने के लिए हजारों आदमियों की भीड़ जमा होती थी। शाम के वक्त महाराणा व अन्य सभी लोग हाथियों की लड़ाई देखते थे। इस दिन नाथद्वारा में अन्नकूट का आयोजन किया जाता।
मार्गशीर्ष कृष्ण 1 को महाराणा अपने सरदारों सहित शिकार के लिए जंगलों में जाते थे। विशेष रूप से इस दिन जंगली सूअर का शिकार किया जाता था।
फूसगज का तमाशा :- पौष शुक्ल 15 को फूसगज का तमाशा होता था। इस दिन उदयपुर के बड़े महलों के चौक में एक नकली हाथी बनाया जाता था और उसे काले कपड़े से ढंककर ऊपर एक नकली आदमी महावत के तौर पर बिठा दिया जाता। फिर एक असली हाथी लाया जाता, जो इस नकली हाथी पर हमला करके इसे बिखेर देता।
मकर संक्रांति के दिन महाराणा दान-पुण्य के कार्य करते। माघ शुक्ल 5 को बसन्त पंचमी के दिन महाराणा बसन्ती पोशाक पहनते थे। मंदिरों में गुलाल व रंग उछाला जाता। माघ शुक्ल 7 को पुनः नागणेची माता का पूजन व दरबार का आयोजन होता था।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि होती थी। क्योंकि मेवाड़ में अनेक शिव मंदिर हैं, इसलिए यह दिन मेवाड़ में हर एक के लिए धूमधाम व शिवभक्ति से भरा रहता।
होली :- फाल्गुन शुक्ल 15 को प्रातःकाल महाराणा सभी सभ्यगणों पर गुलाल डालते थे। सभी सभ्यगण भी महाराणा को नज़र दिखलाकर अदब के साथ महाराणा पर गुलाल डालते।
फिर महाराणा व सभी सभ्यगण हाथियों पर सवार होकर महलों के चौक में गुलाल से फाग खेलते थे। इस वक्त इतनी गुलाल उड़ाई जाती कि जमीन और महलों की दीवारें लाल हो जातीं।
स्नान के बाद रात्रि को नगीनाबाड़ी में दरबार का आयोजन होता। महाराणा राजसेवकों को नारियल व काष्ठ के खांडे देते थे। इसके बाद मुहूर्त के साथ जनानी ड्योढी के चौक में होली जलाई जाती।
धुलण्डी :- चैत्र कृष्ण 1 को मनाई जाने वाली धुलण्डी को धुलहरी कहते थे। इस दिन महाराणा अपने निजसेवकों को छुट्टी देते थे, ताकि वे अपने-अपने घरों में जाकर फाग खेल सके।
इस त्योहार में कई बदमाश लोग शहर में पत्थरबाजी करने लग गए, जिसके बाद महाराणा स्वरूपसिंह, महाराणा शम्भूसिंह व महाराणा सज्जनसिंह ने इन पर नकेल कसी। महाराणा ने भी इस दिन धूमधाम से फाग खेलना बन्द कर दिया और लोगों को उनकी बिरादरी में ही फाग खेलने की नसीहतें दीं।
मेवाड़ राजवंश के बारे में अन्य महत्वपूर्ण तथ्य :- मेवाड़ के सूर्यवंशी सिसोदिया राजवंश को भगवान राम के पुत्र कुश का वंशज माना जाता है। मेवाड़ के सिसोदियों की गौत्र वैजपायन है। मुहणौत नैणसी ने ‘विजैपान’ गौत्र लिखी है व विजैपान को ब्रह्माजी का पुत्र बताया है।
मेवाड़ के सभी महाराणा स्वयं को कोई शासक ना मानकर एकलिंग दीवान मानते थे, उनका कहना था कि हम तो मात्र एकलिंग जी के प्रहरी हैं, राज तो एकलिंग जी ही कर रहे हैं।
लकुलीश :- लकुलीश भगवान शिव के अवतार माने जाते हैं। लकुलीश के चार प्रमुख शिष्यों में से एक का नाम कुशिक था। मेवाड़ के एकलिंगजी मंदिर के पुजारी कुशिक की शिष्य परंपरा से ही थे। इस सम्प्रदाय के साधु निहंग होते थे, गृहस्थ नहीं।
एकलिंगजी जी के मंदिर में कई सदियों तक ये नाथ ही पुजारी रहे। महाराणा भीमसिंह के शासनकाल में इन नाथों का आचरण बिगड़ गया, ये मद्य व मांस का सेवन करने लगे। इसलिए उस समय इन्हें वहां से हटाकर सन्यासियों को पुजारी बनाया गया।
मेवाड़ राजवंश की कुलदेवी बायण माताजी व कुलदेवता एकलिंग जी हैं। मेवाड़ में उत्तराधिकारी को ‘महाराजकुमार’ व शासक की माता को ‘बाईजीराज’ कहा जाता है।
सारणेश्वर शिलालेख से ज्ञात होता है कि पहले मेवाड़ में अमात्य, संधिविग्रहिक, वंदिपति, अक्षयपाटलिक, भिषगाधिराज आदि मंत्रिमंडल के सदस्य हुआ करते थे।
संपूर्ण विश्व में किसी एक ही राज्य पर सबसे अधिक लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश जापान का है, दूसरे स्थान पर मेवाड़ का राजवंश आता है।
जब-जब भी मेवाड़ का राज किसी आक्रमणकारी या अन्य शक्तिशाली राजाओं के हाथों में गया, तब भी मेवाड़ नरेशों ने अन्य जगह राजधानी ना बसाकर इसी स्थान को वापस जीता और राज किया।
सामन्तसिंह के समय ऐसी परिस्थिति भी आई कि मेवाड़ के बाहर जाना पड़ा, लेकिन तब भी उक्त शासक के भाई-बेटे मेवाड़ में ही रहे और मौका पाकर पुनः यहां की गद्दी हासिल की। यही मुख्य वजह रही कि इस राजवंश का राज कई सदियों तक रहा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)