मेवाड़ का प्राचीन इतिहास व संस्कृति (भाग – 7)

आश्विन शुक्ल 1 को नवरात्रि के पहले दिन उदयपुर राजमहलों से गाजे-बाजों के साथ सवारी रवाना होती है और खड्ग स्थापन पर पहुंचती। फिर खड्ग को मन्दिर के भीतर ले जाया जाता।

वहां लादूवास के आयस (नाथ महंत), पंडित, ज्योतिषी आदि एक गोखडे मे खड्ग की स्थापना कर देते और एक नाथ को वहां बैठा देते। नवरात्रि के दौरान मंदिर पर राज्य के सैनिकों का पहरा रहता था।

(लादूवास के आयस मठधारी महंत होते थे। ये नवरात्रि के एक दिन पहले नाथों की एक सभा आयोजित करते थे। इस सभा में उस नाथ सन्यासी का चयन किया जाता था, जो 9 दिन तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए खड्ग लेकर बैठ सके।)

इस दिन उदयपुर राजमहल में अमर महल के नीचे की चौपाड़ में देवी पूजन की स्थापना की जाती थी। यहां सभी प्रकार शस्त्र, कलश आदि रखे जाते। सायंकाल के समय महाराणा खड्ग स्थापना के दर्शन हेतु मंदिर की तरफ जाते।

नवरात्रि के दूसरे दिन आश्विन शुक्ल 2 को तीसरा नक्कारा बजने पर महाराणा तैयार होकर सवारी हेतु रवाना होते। रियासतकाल में जब भी किसी खास मौके पर महाराणा की सवारी रवाना होती, तो 3 बार नक्कारे बजाए जाते थे।

उदयपुर राजमहल

दूसरे नक्कारे पर सब रियासती लोग इकट्ठे हो जाते और तीसरे नक्कारे पर सवारी की रवानगी होती। महाराणा हाथीपोल दरवाज़े के बाहर वाले चौगान में पहुँचते। उसके बाद दरीखाने में जाते। महाराणा यहां से हाथियों की लड़ाई, पहलवानों की कुश्ती आदि देखते।

फिर महाराणा अम्बिका भवानी के दर्शन हेतु जाते। मंदिर के सामने भैंसे की बलि दी जाती थी। महाराणा सज्जनसिंह के प्रमुख दरबारी लेखक कविराजा श्यामलदास ने लिखा है कि “मैंने जब-जब ऐसी बलि देखी, तब-तब राजपूत सरदार की तलवार भैंसे का सिर और आगे के पैर काटते हुए ज़मीन को छू जाती थी”

आश्विन शुक्ल 3 को महाराणा की सवारी महलों से रवाना होती और चौगान में मामूली रस्में अदा होने के बाद महाराणा पुनः महलों में लौटते। शाम के वक्त महाराणा हरसिद्धि देवी के दर्शन हेतु जाते।

आश्विन शुक्ल 4 को ‘भल्का चौथ’ कहा जाता है। इस दिन चौगान व शाम को खड्ग दर्शन हेतु सवारी होती। खड्ग दर्शन के बाद एक बेकाबू भैंसा छोड़ा जाता था। महाराणा स्वयं हाथी पर सवार होकर तीर चलाते थे।

महाराणा भीमसिंह का चलाया हुआ तीर भैंसे के सख़्त बदन को पार कर दूसरी तरफ निकल जाता था, यह दृश्य कविराजा श्यामलदास के पिता ने अपनी आंखों से देखा था। महाराणा जवानसिंह ने इस रिवाज में बदलाव किया था, जिसके तहत एक भैंसे की बलि किसी सरदार के हाथों से करवाई जाती थी।

महाराणा भीमसिंह

आश्विन शुक्ल 5 को महाराणा की सवारी महलों से रवाना होकर चौगान की तरफ जाती। फिर महाराणा अन्नपूर्णा माता के दर्शन हेतु जाते। इन माता के मंदिर के सामने बलि देने का रिवाज नहीं था। दर्शन के बाद महाराणा पुनः महलों में लौट आते।

आश्विन शुक्ल 6 को भी महाराणा की सवारी चौगान की तरफ जाती। आश्विन शुक्ल 7 को महाराणा करणी माता मंदिर के दर्शन के लिए पधारते थे। आश्विन शुक्ल 8 को महाराणा एक विशेष तलवार धारण करते थे।

इस दिन महाराणा नाव में सवार होकर माता अम्बिका भवानी के दर्शन हेतु जाते थे। यह तलवार बड़ी प्रसिद्ध रही है। यह तलवार शार्दूलगढ़ के राव जशकरण डोडिया को बेचरा माता ने दी थी।

राव जशकरण ने यह तलवार मेवाड़ के राणा लक्ष्मणसिंह को दी। राणा लक्ष्मणसिंह ने यह तलवार महाराणा हम्मीर को दी। बाद में यह तलवार मेवाड़ के प्रत्येक महाराणा के हाथों में आती रही। इसी तलवार से महाराणा प्रताप ने अनेक शत्रुओं का संहार किया था।

आश्विन शुक्ल 9 को महाराणा पहले तो घोड़ों का और फिर हाथियों का पूजन करते थे। उसके बाद 9 दिन तक अन्नजल का त्याग करने वाले खड्गधारी नाथ को दरबार में लाया जाता। फिर महाराणा अपनी गद्दी से खड़े होकर उस नाथ से वह तलवार लेते।

इसके बाद उस खड्गधारी नाथ को रुपए व अशर्फियाँ दी जाती थीं और सभी नाथों को भोजन कराकर विदा किया जाता। 10वें दिन क्षत्रियों का सबसे बड़ा त्योहार विजयादशमी मनाया जाता। इस दिन वे सभी उमराव, सरदार, जागीरदार उपस्थित होते, जिनको महाराणा की तरफ से जागीरी मिली थी।

शाम के वक्त तीसरा नक्कारा बजते ही महाराणा अपने घोड़े पर सवार होकर जुलूस के साथ महलों से रवाना होते और खेजड़ी (शमी) वृक्ष का पूजन करने जाते। खेजड़ी वृक्ष के चबूतरे के चारों तरफ कनातें लगाकर बाहर की तरफ एक तोरण लगा दिया जाता।

महाराणा तोरण (द्वार वंदन) का दस्तूर करने के बाद खेजड़ी की पूजा करते। इस समय वेद मंत्रों से अभिषेक किए हुए 4 तीर चारों दिशाओं में शहर के दरवाजों पर प्रस्थान निमित्त भेज दिए जाते।

उदयपुर राजमहल

इसके पीछे मान्यता यह थी कि अगले एक वर्ष तक चारों दिशाओं में कहीं भी यात्रा पर जाना हुआ, तो महाराणा को मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं।

इसके बाद महाराणा चारणों से अपने पूर्वजों की वीरता से संबंधित कविताएं सुनते। फिर वहाँ मौजूद सरदार, पासवान, अहलकार आदि महाराणा को नज़रें देते। उसके बाद महाराणा जुलूस के साथ महलों की तरफ प्रस्थान करते।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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