नववर्ष प्रारंभ का उत्सव :- चैत्र शुक्ल 1 को ज्योतिष लोग नए कपड़े व आभूषण आदि पहनकर महाराणा के सामने हाजिर होते थे और उनको नववर्ष का पंचांग भेंट करते थे।
शतचंडी पाठ व रामनवमी :- चैत्र शुक्ल 8 को शतचंडी का पाठ, होम व देवी का पूजन होता था। चैत्र शुक्ल 9 को रामनवमी पर मंदिरों में भव्य उत्सव, कीर्तन आदि होते थे। अगले दिन पुजारी लोग राज्य में और सेवकों के घर पंजेरी, पंचामृत व प्रसाद पहुंचाते थे।
एकलिंगेश्वर जी का प्रागट्योत्सव :- वैशाख कृष्ण 1 को एकलिंगेश्वर जी का प्रागट्योत्सव मनाया जाता। इस दिन महाराणा कैलाशपुरी स्थित एकलिंगजी मंदिर के दर्शन हेतु पधारते थे। इस दिन हाथियों की लड़ाई भी करवाई जाती थी।

धींगा गणगौर :- वैशाख कृष्ण 3 को मेवाड़ में धींगा गणगौर का उत्सव मनाया जाता था। धींगा का शाब्दिक अर्थ ‘जबर्दस्ती’ है। मेवाड़ महाराणा राजसिंह प्रथम ने अपनी छोटी रानी की खुशी के लिए रीति रिवाजों के विरुद्ध यह त्योहार शुरू करवाया, इसलिये इसे धींगा कहा गया।
गुरुपूर्णिमा :- आषाढ़ पूर्णिमा पर सवीना खेड़ा में महंत सन्यासियों का पूजन होता था। यदि अवसर मिलता, तो महाराणा स्वयं सवीना खेड़ा जाते थे। यह पूजन एकलिंगेश्वर मंदिर में भी होता था।
हरियाली अमावस्या :- श्रावण अमावस्या के दिन महाराणा अपने प्रमुख मंत्रियों सहित राजपुरोहित के घर भोजन के लिए पधारते थे। मेवाड़ के आम लोग इस दिन देवाली के पहाड़ पर स्थित नीमच माता मंदिर के दर्शन करने जाते थे।
कजली तीज :- श्रावण शुक्ल तृतीया को महाराणा नाव में सवार होकर जुलूस के साथ पिछोला झील के किनारे जाते थे। फिर लौटते समय हाथी या घोड़े पर सवार होकर बाजार से होते हुए राजमहलों में प्रवेश करते।
रक्षाबंधन :- श्रावण शुक्ल 15 को मेवाड़ के सरदार, चारण, ब्राह्मण, अहलकार आदि लोग महाराणा के दाहिने हाथ पर राखी बांधते थे।
वत्सद्वादशी :- भाद्रपद कृष्ण 12 को वत्सद्वादशी के अवसर पर रियासत के मंत्रियों, अहलकारों आदि को मुहर, रुपया व नारियल भेंट किया जाता था।

भाद्रपद कृष्ण 14 को एकलिंगेश्वर व बाणनाथ के अर्पण किए हुए पवित्रे महाराणा द्वारा स्वयं अपने हाथों से सभ्यगणों को दिए जाते। अव्वल दर्जे वालों को सुनहरी, दूसरे दर्जे वालों को रूपहरी व तीसरे दर्जे वालों को रेशमी पवित्रे दिए जाते।
गणेश चतुर्थी :- भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन महाराणा गणपति जी के प्रसिद्ध मंदिरों में दर्शनार्थ पधारते। रात के वक्त महाराणा बड़े चौक में जाते और वहां लोगों को रुपए, नारियल, लड्डू आदि देते।
नागणेची माता का पूजन :- भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची माता का पूजन होता था और महाराणा द्वारा एक विशेष दरबार का आयोजन किया जाता। यह पूजन व दरबार सर्वप्रथम महाराणा उदयसिंह ने शुरू किया था।
दरअसल जब उनका विवाह झाला जैतसिंह की पुत्री से हुआ था, तब जैतसिंह की दूसरी पुत्री, जो कि राव मालदेव की पत्नी थी, उन्होंने गलती से राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची माता की मूर्ति भी अपनी बहन को दे दी थी।
महाराणा उदयसिंह ने इसे माता का आशीर्वाद माना और वर्ष में 2 बार पूजन व दरबार आयोजित करना शुरू किया। यह पूजन व दरबार बाद के महाराणाओं ने भी जारी रखा, जो कि 19वीं सदी तक होता रहा।

देवझूलनी एकादशी :- भाद्रपद शुक्ल 11 को भगवान विष्णु की मूर्ति को रेवाड़ी (विमान या पालकी) में बिठाकर किसी तालाब किनारे ले जाते। जिन गांवों में तालाब न हो, वे किसी बावड़ी के यहां भी ये उत्सव मना लेते। इस दिन महाराणा स्वयं पीताम्बरराय की रेवाड़ी के साथ पीछोला झील तक पधारते थे।
अनंत चतुर्दशी :- भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन महाराणा व्रत रखते थे। अनंत का पूजन करने के बाद महाराणा अपने हाथों से रेशमी अनंत अपने समीपवर्तियों को देते थे। 14 सूत्र के तागों से 14 गांठ देकर बनाए गए डोरे को अनंत कहते थे, जिसे दाईं भुजा पर बांधा जाता।
विजयादशमी क्षत्रियों का सबसे बड़ा त्योहार है। नवरात्रि व विजयादशमी का वर्णन अगले भाग में विस्तार से किया जाएगा।
फ़ौज की हाजिरी :- दशहरे व शरद पूर्णिमा के बीच में किसी एक दिन फ़ौज की हाजिरी ली जाती थी। इस दिन महाराणा, सभी सरदार, पासवान आदि सैन्य वेशभूषा में हथियारों से लैस होते थे। घोड़ों की पीठों पर पाखर व उनके मुंह पर बनावटी सूंडें लगाई जाती थीं।
फिर महाराणा की सवारी महलों से रवाना होती और सारणेश्वरगढ़ के पास पहुंचते। वहां दरबार होता, फ़ौज की हाजिरी ली जाती। इसके बाद महाराणा हाथी पर सवार होकर महलों में लौट आते।
शरद पूर्णिमा :- आश्विन की पूर्णिमा को शाम के वक्त महाराणा हाथी पर सवार होकर हाथीपोल दरवाज़े के बाहर वाले चौगान में जाते। वहां हाथियों की लड़ाई का आयोजन होता था।
यह लड़ाई देखने के बाद महाराणा महलों में लौट आते। रात के वक्त महलों में सबसे ऊपर वाले महल में बैठक होती, जिसमें महाराणा व अन्य सभी दरबारी सफेद वस्त्र पहनकर बैठते थे।
धनतेरस :- कार्तिक कृष्ण 13 को महाराणा लक्ष्मी जी के मन्दिर में पधारते और दर्शन करते। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)