मेवाड़ का प्राचीन इतिहास व संस्कृति (भाग – 3)

भील आदिम जनजाति है। संख्या के मामले में राजस्थान में मीणा जनजाति के बाद इनका दूसरा स्थान है। मेवाड़ में सर्वाधिक जनजाति जनसंख्या इन्हीं की है। भील अपनी बहादुरी और स्वाभिमान के लिए मेवाड़ के इतिहास में विशेष स्थान रखते हैं।

मेवाड़ के इतिहास लेखन में भीलों का वर्णन करना अनिवार्य है, इसलिए आज के इस भाग में भील जनजाति की आदतें, रीति-रिवाज, लड़ाई के तरीकों आदि का वर्णन किया गया है।

मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों में हज़ारों की तादाद में आदिवासी भील निवास करते हैं। ये लोग मेवाड़ के अलावा सिरोही, पालनपुर, वागड़, कांठल तक के पहाड़ी भागों में फैले हुए हैं।

हर एक भील की झोंपड़ी बांस, लकड़ी और पत्तों की बनी होती थी, जो कि अलग-अलग पहाड़ी टेकरियों पर होती। उस झोंपड़ी की सीमा के भीतर व आसपास जो खेत, पहाड़ या जंगल हो, उस पर उस भील का अधिकार होता था।

भीलों की बहुत सी झोपड़ियां मिलकर एक ‘फला’ कहलाती थीं। ऐसे कई फले मिलकर एक गांव बनता था, जिसे भील लोग ‘पाल’ कहते थे। हर फले में एक या दो भील मुखिया होते थे और एक पाल का एक मुखिया होता था, जिसे ‘गमेती’ कहा जाता था।

भील योद्धा

भील लोग बेहतरीन शिकारी होते थे। ये लोग मांस व शराब के शौकीन होते थे। भील लोग सौगंध के पक्के होते थे। ये लोग तलवार पर अफीम रखकर थोड़ी सी खाने के बाद ही सौगंध खाते थे।

भीलों के आराध्यदेव ऋषभदेव हैं, जिनका मंदिर उदयपुर के धूलेव गांव में स्थित है। ऋषभदेव को केसरियानाथ भी कहा जाता है। भील इनको ‘कालाजी’ कहते हैं। इस मंदिर में केसर बहुत चढ़ाई जाती है।

ऋषभदेव मंदिर में चढ़ाई जाने वाली केसर को जल में घोलकर पीने के बाद कोई भी भील झूठ नहीं बोलता। महुवाड़ा, खेजड़ और सराड़ा वाले पारगी जात के भील लोग सराड़ा के रखेश्वर महादेव में आस्था रखते हैं।

यदि किसी एक पाल का भील किसी दूसरी पाल के भील को मार देता, तो दूसरी पाल वाले हर्ज़ाना मांगते थे। हर्ज़ाना नहीं देने पर उस पाल पर चढ़ाई करके लड़ते थे। अक्सर ऐसा होता था कि भीलों के गुरु, जो कि ‘बाबा’ कहलाते थे, वे या फिर किसी तीसरी पाल के भील मुखिया बीच में पड़कर सुलह करवाते थे।

भील लोग ढाल, तलवार, भाला, तीर आदि रखते थे। बाद में बन्दूकें भी रखने लगे, लेकिन इनके पास बारूद की कमी थी। लड़ाई के वक्त जिस भील के पास ढाल होती थी, वह दुश्मनों के तीरों को ढाल से रोकता था और उसके पीछे 5-10 भील खड़े रहते हुए शत्रुओं पर तीर चलाते थे।

ऋषभदेव मंदिर (धूलेव – उदयपुर)

भील आपस में भी लड़ते-झगड़ते थे, लेकिन फिर भी इनमें एकता इतनी थी कि यदि एक भील किलकारी मारे, तो उसकी पाल के सभी भील, चाहे मित्र हो या शत्रु, फौरन उसकी मदद ख़ातिर आ पहुंचते।

लड़ाई होने पर भील लोग तेज आवाज में ‘फाइरे-फाइरे’ कहते थे। (मीणा जाति वाले इस स्थिति में डू-डू-डू-डू की आवाज़ें निकालते थे)

लड़ाई छिड़ने पर भील औरतें पानी, रोटी, पत्थर आदि सामान भील पुरुषों तक पहुंचाती थीं। भील लोग अपनी जाति की औरतों पर हथियार नहीं चलाते थे, चाहे वह औरत शत्रुपक्ष की ही क्यों न हो।

भीलों को आम व महुवा के पेड़ पड़े प्रिय हैं। महुवा से शराब बनती है। जब कभी भी भील बग़ावत करते थे, तो रियासती फ़ौज भीलों के इलाके के महुवा के पेड़ काटने शुरू कर देती। ऐसी स्थिति में भील जल्दी सुलह के लिए तैयार हो जाते थे।

सगाई होने के बाद या शादी के बाद या विधवा होने के बाद, किसी भी स्थिति में यदि कोई भील स्त्री किसी दूसरे पुरुष से ब्याह करे, तो पहले पति का परिवार दूसरे पति के परिवार से हर्जाना वसूल करता था।

यदि कोई व्यक्ति भीलों के घर तक चला जाता था, तो चाहे वह भीलों का शत्रु ही क्यों न हो, भील घर आए व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचाते थे। जब कोई भील किसी घुड़सवार के घोड़े को मार देता, तो वह भील बहादुरी के लिहाज से ‘पाखरिया’ के नाम से जाना जाता।

भील जिस किसी मुसाफिर को लूटते, तो उसको थोड़ा-बहुत ज़ख्मी अवश्य करते थे। यदि कोई मुसाफिर इनसे कहता कि मुझको नुकसान पहुंचाए बिना मेरा सामान ले लो, तो ये उसको कहते थे कि “हम खैरात नहीं लेते”

पर अगर कोई मुसाफ़िर इनकी शरण में आ जाए, तो उसकी हरदम हिफ़ाजत करते थे। घर आए व्यक्ति को ये लोग कभी भूखा नहीं रखते थे।

गुहिलों द्वारा मेवाड़ पर अधिकार करने से पहले निश्चित रूप से उनका संघर्ष भीलों से हुआ। बाद में धीरे-धीरे यह संघर्ष समाप्त हुआ और भीलों ने गुहिलों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।

महाराणा प्रताप व भील सिपाही

फिर बाहरी आक्रांताओं के आक्रमणों के दौरान भीलों ने मेवाड़ के शासकों का सहयोग किया। विशेष रूप से महाराणा उदयसिंह, महाराणा प्रतापसिंह, महाराणा अमरसिंह व महाराणा राजसिंह के समय भीलों ने मेवाड़ की रक्षार्थ जो लड़ाइयां लड़ी हैं, उन्हें इतिहास में सदा गौरव के साथ याद किया जाएगा।

इसके बाद भीलों द्वारा कभी-कभी बग़ावत की जाने लगी। 19वीं सदी का सबसे बड़ा भील विद्रोह 1881 ई. में महाराणा सज्जनसिंह के समय हुआ था। इस विद्रोह को कविराजा श्यामलदास के प्रयासों से शांत किया गया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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