मेवाड़ का प्राचीन इतिहास व संस्कृति (भाग – 1)

प्राचीन सभ्यताएं :- हिंदुस्तान में कई स्थानों पर प्राचीन सभ्यताओं के प्रमाण मिले हैं। ये सभ्यताएं नदियों के किनारे विकसित होती थीं। ऐसे ही वे सभ्यताएं, जो कभी मेवाड़ की भूमि पर अस्तित्व में आई थीं, उनका वर्णन कुछ इस तरह है :-

आहाड़ सभ्यता :- उदयपुर में स्थित आहाड़ सभ्यता 4000 वर्ष प्राचीन है। आहाड़ से मातृदेवी की मृण्मूर्ति, अनाज रखने के बड़े मृदभांड, एक यूनानी मुद्रा, तांबे की 2 कुल्हाड़ियाँ, एक मकान में एक ही पंक्ति में 6 चूल्हे, दोमुंहा चूला, तांबा गलाने की भट्टी, बिना हत्थे के छोटे जलपात्र आदि मिले हैं।

आहाड़ में 8 बार बस्ती के बनने व उजड़ने के प्रमाण मिले हैं। यह स्थान वर्तमान में मेवाड़ के महाराणाओं की समाधियों के निकट स्थित है। आहाड़ से किए गए उत्खनन में मिलने वाली सामग्री आहाड़ म्यूजियम में रखी गई है। यह म्यूजियम मेवाड़ महाराणाओं की छतरियों के ठीक नज़दीक में स्थित है।

आहाड़ से खुदाई में मिला 2 हजार वर्ष पुराना मृदभांड

उदयपुर में स्थित बालाथल नामक स्थान से 11 कमरों का विशाल भवन, 4 हजार वर्ष पुराना कुष्ठ रोगी का कंकाल, 2500 वर्ष पुराना कपड़ा मिला है।

उदयपुर के ईसवाल नामक स्थान से ऊंट का दांत, कुषाणकालीन सिक्के मिले हैं। यहां लगातार 2 हजार वर्षों तक लोहा गलाने का काम किया गया था।

भीलवाड़ा में स्थित बागोर से 14 प्रकार की कृषि व पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं। यहां से पाषाणकालीन औजार, 5 नर कंकाल, जली हुई हड्डियां व भुना हुआ मांस मिला है।

भीलवाड़ा में स्थित ओझियाना से सफेद बैल की मृण्मूर्ति मिली है। भीलवाड़ा के लाछूरा नामक स्थान से शुंगकालीन तीखे किनारे वाले प्याले मिले हैं।

राजसमन्द में स्थित गिलूंड की सभ्यता में लोग पक्की ईंटों से बने मकानों में रहते थे। इसी प्रकार मेवाड़ में खोर, पिण्डपाडलिया, जहाजपुर आदि स्थानों से भी प्राचीन सामग्री मिली है।

उदयपुर के बालाथल से पद्मासन में मिला कंकाल

मेवाड़ का प्राचीन इतिहास :- मेवाड़ प्राचीन समय में मेदपाट, शिवि, प्राग्वाट आदि नामों से जाना जाता था। मेदपाट नाम यहां रहने वाले मेव या मेर जाति के नाम से पड़ा।

प्राचीन शिवि जनपद की राजधानी नगरी (चित्तौड़गढ़) हुआ करती थी। चित्तौड़ की निकट स्थित नगरी को पहले माध्यमिका भी कहा जाता था।

मेवाड़ की भूमि का महाभारत में उल्लेख :- महाभारत के अनुसार वाटधनाज (मेवाड़ के प्राग्वाट क्षेत्र का पर्याय) को नकुल ने अपने पराक्रम से रौंद दिया था। कुरुक्षेत्र के युद्ध में सरयुत्युद्ध नामक योद्धा ने भी भाग लिया था, जो कि बनास नदी के तटवर्ती राज्य के अधिपति थे।

यवन राजा दिमित ने 180 ईसा पूर्व माध्यमिका पर आक्रमण किया था। फिर वसुमित्र ने राजा दिमित को परास्त किया। फिर माध्यमिका पर मिनेण्डर ने कब्जा कर लिया। मौर्यों की सत्ता समाप्त करने वाले पुष्यमित्र शुंग ने माध्यमिका पर विजय प्राप्त की और यवनों को वहां से खदेड़ दिया। यह घटना दूसरी सदी ईसा पूर्व की है।

चित्तौड़ का हाथीबाड़ा :- ईसा पूर्व की पहली सदी में नगरी से पूर्व दिशा में शुंगकाल के दौरान वैष्णव पूजा के केंद्र की स्थापना हुई। इस स्थान का प्राचीन नाम नारायण वाटिका है।

यहां गजवंश के राजा सर्वतात द्वारा खुदवाया गया एक शिलालेख मिला है, जिसे वैष्णव (भागवत) धर्म का प्राचीनतम शिलालेख माना गया है। राजा सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करवाने, संकर्षण (बलराम) व वासुदेव (श्रीकृष्ण) की पूजा का उल्लेख हैै।

यहां एक विष्णु मंदिर बनवाया गया, जिसके चारों ओर चारदीवारी बनवाई गई। इस प्रकार का विष्णु मंदिर, जिसके चारों ओर दीवार हो, समस्त भारतवर्ष में अब तक का सबसे प्राचीन ज्ञात प्रमाण यही है।

1567 ई. में चित्तौड़ आक्रमण के दौरान अकबर ने अपने हाथियों का जमावड़ा इस स्थान पर किया था, जिसके बाद यह स्थान हाथीबाड़ा के नाम से जाना जाने लगा।

हाथीबाड़ा

क्षत्रपों व मालवों का अधिकार :- ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में मेवाड़ पर क्षत्रपों का प्रभाव रहा। शक क्षत्रपों के सिक्कों व नांदसा के यूप अभिलेख से इसकी जानकारी मिलती है। मालवों और क्षत्रपों के बीच संघर्ष हुआ। जिसके बाद मालवों ने मेवाड़ क्षेत्र पर अधिकार किया। मालवों के बाद मेवाड़ पर गुप्त शासकों का अधिकार हुआ।

मेवाड़ पर गुप्तों का प्रभाव :- राजसमन्द में स्थित तासोल से गुप्त शासक समुद्रगुप्त व चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के सिक्के मिले हैं। चौथी व पांचवी सदी के ये सिक्के मेवाड़ में गुप्त शासन को सिद्ध करते हैं। गुप्त शासन के ये सिक्के दिखने में बहुत सुंदर व स्पष्ट हैं।

गुहिलों का अधिकार :- जब मेवाड़ पर गुहिलों का राज स्थापित हुआ, तो सबसे पहली राजधानी नागदा को बनाई गई। नागदा के बाद आहाड़ को राजधानी बनाई गई। आहाड़ के बाद चित्तौड़ को और चित्तौड़ के बाद उदयपुर को राजधानी बनाई गई।

गुहिलों के प्रारंभिक इतिहास के दौरान उन्हें राष्ट्रकूटों, चौहानों, परमारों, प्रतिहारों, चालुक्यों सभी से जूझना पड़ा। जिसका वर्णन आने वाले भागों में विस्तार से किया जाएगा।

अगले भाग में गुहिलों की उत्पत्ति व मेवाड़ राजवंश के बड़प्पन का वर्णन किया जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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