राजा अचलदेव बड़गूजर (शासनकाल 812 ई.-839 ई.) का विस्तृत इतिहास :- राजौरगढ़ राज्य की सीमा एवं स्थिति :- तत्कालीन राजौरगढ़ राज्य के अंतर्गत वर्तमान समय के अलवर, दौसा, जयपुर के उत्तरी हिस्से का कुछ भाग, बयाना के कुछ हिस्से, करौली का कुछ भाग व भरतपुर का एक बड़ा हिस्सा शामिल था।
कामा क्षेत्र के बड़गूजरों और सूरसेन (मथुरा) के यदुवंशी राजपूतों के बीच सीमा विवाद को लेकर लड़ाइयां होती रहती थी। भांडारेज और दौसा दोनों किले राजा लूणराज बड़गूजर के अधिकार में थे, जो दौसा के बड़गूजर राजपरिवार से सम्बंधित थे।
माचाडी और देवती भी राजौरगढ़ राज्य के अंर्तगत था। कुछ किले खोह वगैरह मीणा सामन्तों के अधिकार में थे, जो राजौरगढ़ के बड़गूजरों के अधीन थे, लेकिन समय-समय पर इनके द्वारा स्वतंत्र होने का प्रयास किया जाता रहा।
खोह का किला सुरक्षा की दृष्टि से काफी महत्व रखता था, जो मीणाओं के अधिकार में था। यहां के मीणा हमेशा उत्पात मचाते रहते थे। (मीणाओं की प्रधान राजधानी आमेर से मीणाओं के 52 ठिकाने जुड़े हुए थे जो उस समय तक अपना वर्चस्व बनाने में लगे हुए थे)
चूंकि इस समय राजौरगढ़ के बड़गूजरों ने मण्डौर के प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार कर ली थी, लेकिन फिर भी स्थानीय स्तर पर बड़गूजरों को पड़ौसी राजाओं और मीणाओं से लड़ाई करनी पड़ती थी।
मीणाओं का उपद्रव शांत करना – मुख्यतः खोह :- महाराज त्रिलोकचंद्र बड़गूजर के समय से ही मीणाओं के कुछ प्रमुख कबीलों ने राजौरगढ़ और दौसा के आसपास के इलाकों में अपने पांव जमा लिए थे। इस समय तक ये धीरे-धीरे स्वतंत्र हो गए थे तथा इनके द्वारा निर्दोष प्रजा को लूटना, घाटी के आसपास इलाकों में आए दिन चोरी-चकारी, लोगों को मौत के घाट उतारने जैसी घटनाएं बढ़ती जा रही थी।
यहां तक कि दौसा के आसपास के इलाके के मीणाओं द्वारा भांडारेज के किलेदार राजा लूणराज बड़गूजर (809 ई.-836 ई.) को तंग करने तथा उनके इलाके में लूटपाट की कई घटनाएं की जा चुकी थी।
पहले ये मीणा, बड़गूजर शासकों के अधीन थे परंतु अब ये स्वतंत्र शासक जैसा व्यवहार करने लगे थे। पंचवाड़ा के मीणाओं का बल पाकर आमेर का मीणा शासक, जो महाराज त्रिलोकचंद्र बड़गूजर के समय राजौरगढ़ के शासकों के प्रति सम्मान की भावना रखता था, अब सिर उठाने लगा था तथा उसके कहने पर कई कबीले लूटपाट करने लगे थे।
इन सभी कारणों के चलते राजा अचलदेव बड़गूजर द्वारा इन मीणाओं पर आक्रमण करना और इनके उपद्रव को शांत करना अवश्यभावी हो गया। राजा अचलदेव बड़गूजर ने भांडारेज के किलेदार राजा लूणराज बड़गूजर और कामा के शासक राजा जनदेव बड़गूजर को साथ लेकर इन मीणाओं के कबीलों पर आक्रमण किया।
जो मीणा कबीले विरोध करने की स्थिति में नहीं थे, उन्होंने समर्पण कर अधीनता स्वीकार करी तथा जो विरोध कर सकते थे उनको लड़ाई द्वारा हरा कर अधीनता स्वीकार करवाई गई।
राजा अचलदेव बड़गूजर और राजा नागभट्ट द्वितीय :- राजा अचलदेव बड़गूजर के सिंहारूढ़ होने से पहले ही राजौरगढ़ के बड़गूजरों ने राजा नागभट्ट द्वितीय की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अतः राजा अचलदेव बड़गूजर को भी राजा नागभट्ट द्वितीय की कई युद्धों में सहायता करनी पड़ी।
राजा नागभट्ट द्वितीय ने कनौज पर अधिकार करने और गौड़ राजा धर्मपाल को सबक सिखाने के उद्देश्य से अपने सभी सामंतों को सेना सहित एकत्रित किया। राजा नागभट्ट द्वितीय के नेतृत्व में शाकम्भरी नरेश गूवक प्रथम, उत्तरी गुजरात के गुहिलवंशी बाहूकधवल, राजौरगढ़ नरेश अचलदेव, चालुक्यवंशी शंकरगण, राजा बाउक प्रतिहार, राजा कक्क प्रतिहार आदि कई राजाओं ने सामन्त की हैसियत से युद्ध में भाग लिया था।
राजा चक्रायुध से कनौज जीतने के बाद राजा नागभट्ट द्वितीय ने इस विशाल सेना के साथ मुंगेर नामक स्थान पर राजा धर्मपाल से युद्ध किया। इस भयंकर युद्ध में नागभट्ट द्वितीय की सेना काल बनकर धर्मपाल की सेना पर टूट पड़ी।
राजा धर्मपाल इस युद्ध में पराजित हुए और पीछे धकेल दिए गए। राजा नागभट्ट द्वितीय ने इसके बाद ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की।
राजा अचलदेव बड़गूजर और रावल खुम्माण द्वितीय :- इस समय बग़दाद का शासक ख़लीफ़ा अलमामून सिंध विजय करने के बाद एक विशाल सेना लेकर मेवाड़ की चढ़ाई के लिए आगे बढ़ा।
अब्बासी ख़लीफ़ा अलमामून रूढ़िवादी मुसलमान था। उसका मुख्य उद्देश्य भारत में इस्लाम का परचम लहराना था। उसके साथ ईरानियों, खुरासानियों आदि की विशाल सेना थी।
बगदाद के खलीफा के चित्तौड़ आक्रमण का समय भी निश्चित नहीं हो पाया है कि कब अलमामून ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया होगा ? लेकिन सिकरवार ख्यात के अनुसार युद्ध की तिथी वि.स. 870 ( 814 ई. ) बताई जाती है। जबकि कुछ इतिहासकारों द्वारा वि.स. 880 ( 824 ई. ) बताई गई है।
राजपूताने के प्रामाणिक ग्रंथ वीर विनोद के लेखक कविराजा श्यामलदासजी भी इस युद्ध का समय निश्चित नहीं कर पाए हैं। वीर विनोद में कविराजा श्यामलदास जी लिखते हैं – “813 ई. से 833 ई. के मध्य बगदाद के ख़लीफ़ा अलमामू ने चित्तौड़ (मेवाड़) पर आक्रमण किया।”
रावल खुम्माण द्वितीय पर दलपतिविजय द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘खुम्माण रासौ’ में भी इस युद्ध का वर्णन मिलता है। ‘खुम्माण रासौ’ और ‘वीर विनोद’ दोनों ग्रंथो से राजौरगढ़ के बड़गूजरों का मेवाड़ की सहायता के लिए आना लिखा है।
अलमामून से राजपूतों का युद्ध :- सभी राजपूत राजाओं ने रावल खुम्माण द्वितीय के नेतृत्व में अपनी-अपनी फौज समेत अलमामून के साथ युद्ध किया। युद्ध में अलमामून का सेनापति मारा गया। इस युद्ध में राजपूत सेना ने मुस्लिम सेना को करारी शिकस्त दी। राजपूत सेना ने अलमामून का सिंध तक पीछा किया।
इस लड़ाई का इतना ही वर्णन शुद्ध है, इसके अतिरिक्त विस्तार से खुमाण रासो में लिखा गया है जिसका वर्णन काल्पनिक है, उक्त रासो में कई राजाओं और रियासतों के नाम भी लिखे हैं, जिन्होंने इस लड़ाई में भाग लिया। इन रियासतों में अजमेर, सिरोही, जैसलमेर रियासतों के नाम भी लिख दिए, जो उस समय अस्तित्व में ही नहीं थे।
सिकरवार ख्यात के अनुसार युद्ध वर्णन :- सम्बत आठ सौ सत्तर का आगमन हुऔ जब। बादशाह मामून आय घेरों चित्तौड़ तब।। रिमझिम बरसत बूँद कभी सावन की झड़ी थी। युद्ध करन के हेतु दुंहुँ दिशि सैन्य खड़ी थी।। खुरासान बादशाह संग सेना बड़ी थी भारी। अश्व चढ़े रावल खुमान ले भाला तेग कटारी।।
दाहिन ओर थे कीरत मंजन सिकरवार महान। बांये दिशि थे अचलदेव बड़गूजर क्षत्री शान।। पांच-पांच यवनन को काटत अचलदेव बड़गूजर। मंजनदेव जी सात सुस्लमां टाँगत माला ऊपर।। कीरत देव की बीरता छाय रही तेहि ठौर। हस्त-मुंड काटत सदा तेग के एकहि दौर।।
राजा अचलदेव बड़गूजर द्वारा कुलदेवी का मंदिर बनवाना :- कुलदेवी माँ आशावरी माता को लेकर राजा अचलदेव बड़गूजर के साथ एक लोककथा स्थानीय स्तर पर काफी प्रचलित है। बड़गूजर राजपूत पहले कुलदेवी के रूप में माँ कालिका/चण्डिका को पूजते थे, लेकिन ख़लीफ़ा अलमामून से युद्ध के बाद माँ आशावरी को पूजने लगे।
जब ख़लीफ़ा अल-मामून ने आक्रमण किया, तब रावल खुम्माण की सहायतार्थ राजा अचलदेव बड़गूजर ने चित्तौड़ जाते समय मन्नत मांगी कि यदि मैं युद्ध में जीता तो आपका (कुलदेवी का) जीवनभर आभारी रहूंगा और मंदिर बनवाऊंगा।
युद्ध में जीतने के बाद राजा अचलदेव बड़गूजर ने आगे भी कुलदेवी का नामकरण आशावरीदेवी (आशा को पूरा करने वाली देवी) रखा और राजौरगढ़ में मंदिर बनवाया।
यदुवंशियों द्वारा कामा और पहाड़ी इलाके के क्षेत्रों पर अधिकार करना :- राजा अचलदेव बड़गूजर के शासनकाल के दौरान कामा आदि इलाकों पर यदुवंशी राजाओं का अधिकार करना सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। जिस समय राजा अचलदेव बड़गूजर मेवाड़ की सहायता के लिए गए हुए थे।
उस दौरान कामा के स्थानीय शासक राजा जनदेव बड़गूजर (812 ई.-833 ई.) तीर्थयात्रा के लिए अपनी रानी के साथ कुरुक्षेत्र स्नान के लिए गए हुए थे। उपर्युक्त परिस्थितियों का लाभ मथुरा (सूरसेन) यदुवंशीयों ने उठाया और कामा क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। दोनों के बीच भदानक राज्य (कामा क्षेत्र-भरतपुर ) को लेकर युद्ध हुआ।
इस युद्ध में बड़गूजर सेना का नेतृत्व भांडारेज के किलेदार राजा लूणराज बड़गूजर ने किया। शासक की अनुपस्थिति और राजौरगढ़ से उचित समय पर सैनिक सहायता न मिलने की वजह से बड़गूजर राजपूतों की इस युद्ध में हार हुई और कामा वाला क्षेत्र बड़गूजरों के अधिकार से निकलकर यदुवंशी राजपूतों के अधिकार में आ गया।
पोस्ट लेखक :- जितेंद्र सिंह बडगूजर
संदर्भ सूची :- (1) वीर विनोद – कविराजा श्यामलदास (2) क्षत्रिय राजवंश, बड़गूजर – सिकरवार – मडाढ़ – कुंवर अमित सिंह राघव, डॉ. खेमराज राघव, पवन बख़्शी (3) प्रतिहार राजपूतों का इतिहास – रामलखन सिंह