1899-1900 ई. – छप्पनिया अकाल :- यह अकाल विक्रम संवत 1956 में पड़ा, इसलिए इसे छप्पनिया अकाल कहा जाता है। यह मेवाड़ में पड़ने वाला सबसे भयंकर अकाल था।
मेवाड़ की सभी झीलें, तालाब वग़ैरह सूख गए, बोई हुई फ़सलें भी सूख गईं। अनाज का भाव इतना अधिक बढ़ गया कि लोग शाक-पात, वन्य पशु आदि जो मिला उसी पर निर्वाह करने लगे।
घास के अभाव में लोगों ने पशुओं को पेड़ों की छालें खिलाना शुरू कर दिया। लोग मक्का के डूंडिये (मक्की के दाने निकलने के बाद बचे हुए शेष भाग) को पीसकर खाने लगे। महाराणा फतहसिंह ने गरीब प्रजा को बचाने के लिए हरसंभव प्रयास किए।
उन्होंने बाहर से हज़ारों मन अन्न मंगवाया, जो कि रेल से लाया गया। इस समय महाराणा ने देबारी से उदयपुर तक 8 मील की रेलवे लाइन तैयार करवाकर अनाज वग़ैरह सीधा उदयपुर मंगवा लिया।
महाराणा फतहसिंह ने बड़े-बड़े कस्बों में खैरातखाने खोले, कई राहत कार्य करवाए और व्यापारियों को भी मदद दी। इस अकाल की भयावहता इतनी अधिक थी कि असंख्य पशु मर गए और लाखों लोग मारे गए।
अगले वर्ष 1901 में जब बारिश हुई, तो भूखे लोगों ने कच्चा अनाज ही खाना शुरू कर दिया, जिससे हैजा, पेचिश जैसी बीमारियां फ़ैल गई और इससे भी कई लोग मर गए।
1891 ई. में हुई जनगणना में मेवाड़ की आबादी 18 लाख 45 हजार 8 थी, जो की 1901 ई. की जनगणना में 10 लाख 18 हजार 805 रह गई।
इस अकाल में जो लोग बच पाए वह भी महाराणा के प्रयासों के कारण बच गए, वरना इस अकाल के समय लोगों के लिए पलायन करना भी मुश्किल हो गया था, क्योंकि यह अकाल मेवाड़ से बाहर भी अनेक स्थानों पर पड़ा।
सलूम्बर रावत का देहांत :- 1901 ई. में सलूम्बर के रावत जोधसिंह चुंडावत का निसंतान देहांत हो गया। चावंड के रावत खुमाणसिंह चुंडावत को सलूम्बर की गद्दी पर बिठाया गया।
शिवरती महाराज का देहांत :- 1902 ई. में शिवरती के महाराज गजसिंह का निसंतान देहांत होने पर महाराणा फतहसिंह ने करजाली के महाराज सूरतसिंह के बड़े पुत्र हिम्मतसिंह को शिवरती की गद्दी पर बिठाया।
महाराज सोहनसिंह का देहांत :- 1902 ई. में उदयपुर में बागोर के अधिकारच्युत सरदार महाराज सोहनसिंह का देहांत हो गया। महाराणा फतहसिंह ने सोहनसिंह के परिवार की स्त्रियों आदि को बागोर की हवेली में रहने की अनुमति दे दी और साथ ही उनके जीवननिर्वाह हेतु धन देना भी तय कर लिया।
महाराज सूरतसिंह को जागीर देना :- महाराणा फतहसिंह ने अपने बड़े भाई करजाली महाराज सूरतसिंह को 2000 रुपए आय की जागीर का सुकेर गांव दिया।
दिल्ली दरबार व महाराणा फतहसिंह का स्वाभिमान :- एडवर्ड सप्तम की गद्दीनशीनी के मौके पर दिल्ली में एक बड़ा दरबार आयोजित किया गया, जिसमें एडवर्ड सप्तम का बेटा ड्यूक ऑफ केनॉट और हिंदुस्तान के कई प्रतिष्ठित राजा-महाराजा शुमार हुए।
हिंदुस्तान के वायसराय लॉर्ड कर्जन के अनुरोध पर महाराणा फतहसिंह 30 दिसम्बर 1902 ई. को उदयपुर से रवाना हुए। हालांकि महाराणा का मन दरबार में शामिल होने का नहीं था।
मलसीसर के ठाकुर भूरसिंह, जोबनेर के ठाकुर करणसिंह, राव गोपालसिंह खरवा ने महाराणा को दिल्ली जाने से रोकने के लिए प्रयास किए व शाहपुरा के बारहठ केसरीसिंह से इस विषय में बातचीत की।
नसीराबाद स्टेशन पर राव गोपालसिंह खरवा महाराणा से मिले और उनको एक संदेश दिया। ये संदेश लिखा था मशहूर क्रांतिकारी केसरीसिंह बारहठ ने, वही केसरीसिंह जिन्होंने अपने बेटे का नाम महाराणा प्रताप के नाम पर ‘प्रताप’ रखा था।
केसरीसिंह बारहठ ने महाराणा फतहसिंह को दिल्ली दरबार में भाग लेने से रोकने के लिए 13 सोरठे लिखे, जिनका शीर्षक था “चेतावणी रा चूंगट्या”। इस शीर्षक का आशय है ‘चुभने वाली चेतावनी’।
केसरीसिंह के लिखे सोरठे महाराणा प्रताप व महान सिसोदिया वंश के स्वाभिमान का स्मरण कराने वाले थे, जिन्हें पढ़कर महाराणा फतहसिंह का स्वाभिमान जाग गया।
महाराणा दिल्ली पधारे, लेकिन वहां जाकर बीमारी का बहाना बना लिया और दरबार में भाग नहीं लिया। 1 जनवरी, 1903 ई. को हिन्दुस्तान भर के राजा-महाराजाओं से भरे हुए दरबार में मेवाड़ महाराणा की कुर्सी खाली देखकर लॉर्ड कर्जन विष के घूंट पीकर रह गया।
प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने केसरीसिंह की घटना का वर्णन नहीं किया है और महाराणा के दरबार में भाग न लेने का कारण सफर की थकान को बताया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार केसरीसिंह बारहठ ने सोरठे लिखकर भेजे अवश्य थे।
परन्तु महाराणा फतहसिंह तक वे सोरठे पहुंचते उससे पहले ही वे दिल्ली पहुंच चुके थे। इस घटना की वास्तविकता अब तक प्रामाणिक रूप से सिद्ध नहीं हो पाई है।
परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि महाराणा फतहसिंह को उस समय कोई थकान या बीमारी नहीं हुई थी, वे केवल थकान का बहाना कर रहे थे। क्योंकि महाराणा फतहसिंह शारीरिक रूप से बहुत ज्यादा फुर्तीले थे, मात्र एक रात के सफर से थक जाना उनके स्वभाव से विपरीत मालूम होता है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)