महाराणा फतहसिंह का जन्म परिचय :- महाराणा फतहसिंह का जन्म 16 दिसम्बर, 1849 ई. को हुआ। इनके पिता शिवरती के महाराज दलसिंह थे, जो कि महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के चौथे पुत्र अर्जुनसिंह के वंशज थे।
महाराणा फतहसिंह का व्यक्तित्व :- मेवाड़ के अंतिम महाराणाओं में सर्वाधिक प्रसिद्धि महाराणा फतहसिंह को ही मिली, जिसका प्रमुख कारण उनका व्यक्तित्व था। इन महाराणा का रंग गेहुंआ, कद लंबा व चेहरा प्रभावशाली था। महाराणा फतहसिंह का रंग-ढंग, आचार-व्यवहार, रहन-सहन आदि सब पुराने ढंग के थे।
महाराणा फतहसिंह तेजस्वी, कुलाभिमानी, प्रभावशाली, पराक्रमी, बहुत परिश्रमी, सहनशील, वीर, धीर, गंभीर, निडर, सदाचारी, जितेंद्रिय, मितव्ययी, कर्तव्यपरायण, परोपकारशील, धर्मनिष्ठ, शरणागत-वत्सल और पुराने ढंग के आदर्श शासक थे।
महाराणा फतहसिंह के गुणों की ख्याति भारत में ही नहीं, इंग्लिस्तान तक फ़ैली थी। जो भी इन महाराणा से एक बार भेंट करता, वह इन महाराणा का क़िरदार जीवनभर नहीं भूलता।
शासनकाल के प्रारंभ में एक बार धोखा खाने के बाद ये महाराणा कभी किसी पर पूरा विश्वास नहीं करते थे। महाराणा फतहसिंह चापलूसों और दूसरों की सिफारिशों पर कम ध्यान देते थे।
इन महाराणा को बंदूक, तलवार आदि शस्त्र चलाना, घुड़सवारी, शिकार आदि कार्यों में महारत हासिल थी। शायद ही इनका निशाना कभी खाली गया हो। इनके लिए शिकार मनोरंजन नहीं, बल्कि व्यायाम व क्षत्रियोचित शिक्षा थी।
ये महाराणा केवल हिंसक जानवरों का ही शिकार करते थे। कभी भी पक्षी, हिरण आदि पर वार नहीं करते। कड़ी धूप में बिना थके बीस-बीस मील तक घुड़सवारी, आखेट के समय दुर्गम पर्वत श्रेणियों पर बंदूक को कंधे पर रखकर पैदल चढ़ना इनके लिए साधारण बात थी।
इस प्रकार नियमित व्यायाम हो जाने से व किसी भी प्रकार का व्यसन (शराब, अफीम आदि) न करने से ये महाराणा प्रायः नीरोग रहते थे। कभी कब्ज़ वग़ैरह होती तो वैद्य-हकीमों की दवाइयां न लेकर 4-5 दिनों तक लगातार उपवास कर लेते।
उपवास से कमजोरी आती, जो फिर से शिकार पर जाने से स्फूर्ति आने के बाद सही हो जाती। महाराणा फतहसिंह मेवाड़ के पहले महाराणा थे, जो बहुविवाह प्रथा से घृणा करते थे। इन महाराणा को नाच-गान का भी कोई शौक नहीं था।
ये महाराणा साधु-संतों के सत्कार में बहुत सा धन खर्च करते, दीन-दुःखियों व अबलाओं की मदद के लिए हर वक़्त तैयार रहते, दान वग़ैरह के कार्यों में भी हमेशा आगे रहते।
महाराणा फतहसिंह हर काम सोचकर करते ताकि किसी के साथ कोई अन्याय न हो, इस कारण राज्य का बहुत सा काम होने में देरी भी बहुत लगती थी।
ये महाराणा अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे और ना ही पढ़ाई से कोई विशेष लगाव था, इसलिए जो विद्वानों का सम्मान महाराणा सज्जनसिंह के समय में हुआ, वो इन महाराणा के समय में नहीं हुआ।
महाराणा फतहसिंह के समय में शासन पद्धति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, क्योंकि महाराणा को पुराने विचार और ढंग बदलना अच्छा नहीं लगता था, इस कारण इनके शासनकाल में अन्य राज्यों की तुलना में मेवाड़ की आय वृद्धि कम हुई।
महाराणा फतहसिंह प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में उठते थे। स्नान करते समय गंगालहरी का पाठ सुनते। फिर ईश्वर की उपासना करते, रामायण, भागवत आदि पुराणों को सुनते। महाराणा फतहसिंह ने जीवनभर इस दिनचर्या का पालन किया।
दीर्घजीवी महाराणा फतहसिंह की स्मरण शक्ति, शारीरिक और मानसिक शक्ति उनके अंतिम समय तक भी जस की तस बनी रही। महाराणा फतहसिंह का यह विचार था कि अब तक वर्णाश्रमधर्म के पालन में तत्पर रहने के कारण ही हिन्दूओं का अस्तित्व बना हुआ है।
मेवाड़ के नए महाराणा का चयन :- महाराणा सज्जनसिंह का निस्संतान देहांत होने के कारण फिर से उत्तराधिकारी का चयन हुआ। मेवाड़ के पिछले 4 शासक महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के दूसरे पुत्र बागोर महाराज नाथसिंह के वंशज थे।
लेकिन इस बार सभी ने सलाह करके अगला उत्तराधिकारी बागोर से ना लेकर करजाली से लेना तय किया। महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के तीसरे पुत्र बाघसिंह के वंशज करजाली महाराज सूरतसिंह थे, लेकिन सभी सरदारों ने सलाह करके कहा कि सूरतसिंह उदासीन प्रवृत्ति का है, इस ख़ातिर मेवाड़ की गद्दी के योग्य नहीं है।
फिर सभी ने सलाह की, महाराणा शम्भूसिंह व महाराणा सज्जनसिंह की रानियों से भी सलाह ली गई व आख़िरकार करजाली महाराज सूरतसिंह के 35 वर्षीय भाई फतहसिंह को हर तरह से योग्य समझते हुए मेवाड़ की गद्दी पर बिठा दिया।
मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठने से पहले फतहसिंह को शिवरती के महाराज गजसिंह ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
राज्याभिषेक :- 23 दिसम्बर, 1884 ई. को महाराणा फतहसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बिराजे और ठीक एक माह बाद 23 जनवरी, 1885 ई. को राज्याभिषेक का उत्सव हुआ।
ये पहला अवसर था जब मेवाड़ के नए महाराणा आयु में मेवाड़ के पिछले महाराणा से बड़े थे। अर्थात महाराणा सज्जनसिंह का जन्म वर्ष 1859 ई. था व महाराणा फतहसिंह का जन्म वर्ष 1849 ई. था।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)