मार्च, 1884 ई. – बोहेड़ा का बखेड़ा :- भींडर के महाराज मदनसिंह शक्तावत ने बोहेड़ा की गद्दी के लिए रतनसिंह का दावा महाराणा सज्जनसिंह के समक्ष पेश किया, जिसको महाराणा ने स्वीकार करके रतनसिंह को बोहेड़ा का उत्तराधिकारी घोषित करके बांसड़ा और देवाखेड़ा गांव जागीर में दे दिए।
रतनसिंह भींडर के महाराज हमीरसिंह के तीसरे पुत्र थे। बोहेड़ा के अदोतसिंह, जो कि पहले सगतपुरा के जागीरदार थे, बाद में बोहेड़ा का राज मिला, उन्होंने रतनसिंह को गांव देने से इनकार किया और सगतपुरा के केसरीसिंह को अपना उत्तराधिकारी चुना।
महाराणा सज्जनसिंह ने ये ख़बर सुनकर बांसड़ा, देवाखेड़ा और मंगरवाड़ पर खालिसा भेज दिया। इस पर अदोतसिंह ने कहा कि “महाराणा तो हमारे स्वामी हैं, बोहेड़ा भी छीन लेवें तब भी मंज़ूर है, पर हम भींडर वालों को एक बीघा ज़मीन भी नहीं देंगे।”
मार्च माह में अदोतसिंह का देहांत हो गया। महाराणा ने महता गोपालदास को 300 सैनिकों के छोटे लश्कर समेत बोहेड़ा पर भेजते हुए हुक्म दिया कि “केसरीसिंह से कहना कि 7 दिन के भीतर अपने जागीरदारों और परिवार की स्त्रियों समेत यहां आ जावे”
गोपालदास फौज समेत बोहेड़ा की सीमा पर पहुंचे, जहां केसरीसिंह ने उनको बोहेड़ा के भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। नतीजतन 19 मार्च को उदयपुर से मेवाड़ी फौज बोहेड़ा के लिए रवाना हुई। इस फौज का नेतृत्व महता पन्नालाल के छोटे भाई महता लक्ष्मीलाल ने किया।
इस फौज में चित्तौड़गढ़ की भीम पलटन, मगरा की भीम पलटन, शम्भू पलटन, सज्जन पलटन, केवलरी रिसाला व 2 तोपें शामिल थीं। अंग्रेजी पलटन का अफ़सर लोनार्गिन भी फ़ौज के साथ था।
बोहेड़ा का कोई किला नहीं था, लेकिन रावत के घर के आसपास प्रजा के घर होने से दिक्कतें आ रही थीं, इसलिए महता लक्ष्मीलाल ने केसरीसिंह को समझाना चाहा, पर वो नहीं माने।
शक्तावतों और उनके अन्य साथी राजपूतों ने मजबूत फाटकों से नाकेबंदी कर रखी थी, खाने का सामान भी पहले से जमा कर रखा था और पीने के लिए कुंआ था।
महाराणा सज्जनसिंह का सख़्त आदेश था कि “पहले शक्तावतों को समझाने के सब प्रयास किए जावें, क्योंकि वे भी हमारे ही लोग हैं। दोनों तरफ से कोई भी मरे, नुकसान हमारा ही है। समझाने पर भी न माने तो ही हमला किया जावे।”
इस ख़ातिर महता लक्ष्मीलाल ने उनको समझाने के काफ़ी प्रयास किए, जो सब विफल हुए। उनको डराने के लिए लक्ष्मीलाल ने खाली जगह देखकर तोपों से गोले भी दागे, लेकिन सब बेफायदा रहे।
नतीजतन 6 अप्रैल को लड़ाई शुरू हुई। केसरीसिंह शक्तावत की तरफ 400 सैनिक थे, जिनमें से अधिकतर बोहेड़ा और उसके नज़दीकी इलाकों के राजपूत थे, कुछ मुस्लिम थे और कुछ इंदौर और सीतामऊ के नजदीकी राजपूत भी शामिल थे।
महता लक्ष्मीलाल ने तोप चलाने का हुक्म दिया, जिससे फाटकें वग़ैरह टूट गईं और पैदल सिपाहियों ने भीतर प्रवेश किया। भीतर वालों ने गोलियां चलाई, जिससे भीम पलटन के 2 सिपाही मारे गए।
फिर बोहेड़ा वालों ने पछेवड़ी फेरकर लड़ाई रुकवाने का संकेत किया, तो महता लक्ष्मीलाल ने अपनी फौज से लड़ाई रोकने को कहा, लेकिन बोहेड़ा वालों ने दगाबाजी करते हुए अचानक गोलीबारी शुरू कर दी।
इस लड़ाई से बोहेड़ा में आग भी लग गई। केसरीसिंह व कामदार शोभालाल अपनी औरतों, बच्चों व अन्य राजपूतों के साथ वहां से बच निकलने में सफल रहे। महता लक्ष्मीलाल ने उनका पीछा करने का हुक्म दिया। थोड़ा दूर जाते ही बोहेड़ा वालों ने मोर्चा ले लिया।
फिर लड़ाई हुई, जिसमें महाराणा की फौज ने हावी होकर विपक्ष का मोर्चा तोड़ दिया। फिर बोहेड़ा वालों ने एक नाले का सहारा लेकर मोर्चा खड़ा किया, कुछ देर लड़े और फिर वहां से पराजित होकर एक पहाड़ी पर पहुंचे।
वहां से उन लोगों ने छिपकर गोलियां चलाना बन्द किया और अपनी औरतों को पहाड़ी की ओट में छोड़कर मैदान में आ गए और खुलकर सामना करते हुए गोलीबारी शुरू कर दी।
इस वक्त महाराणा की फ़ौज में शामिल रिसालदार गुलशेर खां की दाईं पसली में गोली लगी और थोड़ी देर बाद दफेदार हीरासिंह की छाती में गोली लगी। इन दोनों के वीरगति पाने के बाद महाराणा की फ़ौज ने ऐसा सख़्त हमला किया कि बोहेड़ा वालों को दोबारा बन्दूकें भरने का मौका ही नहीं मिला।
केसरीसिंह और शोभालाल ने हथियार डाल दिए। महता लक्ष्मीलाल ने केसरीसिंह की औरतों को बांसी के रावत मानसिंह शक्तावत, जो कि बोहेड़ा वालों के भाई बंधु ही थे, उनके यहां ठहराया।
केसरीसिंह को उनके 38 आदमियों समेत गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 13 जख्मी हालत में गिरफ्तार हुए। महता लक्ष्मीलाल ने बोहेड़ा का बंदोबस्त महता गोपालदास के सुपुर्द किया और स्वयं 12 अप्रैल को कैदियों सहित उदयपुर पहुंचे।
अगले भाग में बोहेड़ा की इस लड़ाई में वीरगति पाने वालों व ज़ख्मी होने वाले सिपाहियों का वर्णन किया जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)