दौसा के देवगिरि दुर्ग का सम्पूर्ण इतिहास

बड़गूजर व कछवाहा राजपूतों के शौर्य का प्रतीक – दौसा का किला – देवगिरी दुर्ग :- राजस्थान की राजधानी जयपुर से 54 किलोमीटर दूर और राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) – 11 पर स्थित धनुषाकार जिला दौसा बड़गूजर राजपूतों की प्रथम राजधानी रहा है।

देवगिरी पहाड़ी पर स्थित होने के कारण इसे प्राचीन काल में देवगिरी पर्वत या देवसा/देववासा (अपभ्रंश दौसा) कहा गया है। दोनों ही नाम समकालीन इतिहास में मिलते हैं।

गुप्तसाम्राज्य के पश्चिमी भाग (राजपूताना, मालवा, गुजरात के कुछ हिस्से) पर हूणों के अधिकार करने के बाद गुप्तवंशी शासकों ने वल्लभी के सूर्यवंशी क्षत्रियों के साथ मिलकर हूणों को यहां से खदेड़ना शुरू किया।

हूणों के साथ चली इस युद्ध-श्रृंखला के दौरान वल्लभी के सूर्यवंशी शासकों की एक शाखा (परमभट्टारक कनकसेन के दूसरे पुत्र राघवसेन के वंशज) विस्थापित हुई। वल्लभी की इस सूर्यवंशी शाखा ने सर्वप्रथम देवगिरी नामक पर्वत पर अधिकार किया और यहां शासन करने लगे।

दौसा दुर्ग में स्थित मंदिर

चूँकि सूर्यवंशियों की यह शाखा गुर्जरदेश (वर्तमान गुजरात राज्य) के बड़नगर से विस्थापित हुए थे, इसलिए कालांतर में यह क्षत्रिय बड़गूजर कहलाने लगे। दौसा के प्रथम परमप्रतापी शासक राजा श्रीतावट ने गुहिल के विजय अभियान में उनका साथ देकर अपनी स्थिति को और भी मजबूत बनाया।

इसके बाद से बड़गूजरों ने राज्य विस्तार की नीति को अपनाया। किले का निर्माण कार्य भी श्रीतावट के काल से शुरू होकर एक लंबे समय तक चला। कई राजाओं ने अपने-अपने काल में निर्माण कार्य करवाए। देवगिरी दुर्ग एक छाजले के आकार का है, जिसके उत्तर दिशा की ओर खड़ी ढलान है, जो किले को प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करती है।

देवगिरी दुर्ग के 2 दरवाज़े हैं जिसे हाथीपोल और मोरी दरवाजा कहते हैं। मोरी दरवाजा छोटा और संकरा है, जो घोटाला तालाब नामक जलाशय में खुलता था, जहां वर्तमान में खेल का मैदान बना हुआ है। इसी के पास एक कुआं बना हुआ है, जो वर्तमान में अच्छी अवस्था में है।

मोरी दरवाजे के पास ‘राजाजी का कुआं’ स्थित है। इसी कुएं के पास 4 मंजिला विशाल बावड़ी स्थित है। वर्षा ऋतु के समय में सागर से वर्षा का पानी कुओं के माध्यम से बावड़ी में संरक्षित किया जाता था। 4 मंजिला बावड़ी के पास बैजनाथ महादेव का मंदिर बना हुआ है।

मोरी दरवाजे के पास ‘सूर्य मंदिर’ बना हुआ है, जो बड़गूजर राजपूतों के सूर्यवँशी होने का अकाट्य प्रमाण है। युद्ध के समय हाथीपोल को बंद कर दिया जाता था। मोरी दरवाजा ही किले के बाहर आने-जाने के लिए आमतौर पर प्रयोग में लाया जाता था।

दौसा दुर्ग में स्थित बावड़ी

देवगिरी दुर्ग के सामने वाला भाग दोहरे परकोटे से परिवेष्टित है। किले के अंदर स्थित परकोटे के प्रांगण में भगवान श्रीरामचन्द्रजी, दुर्गा माता मंदिर और एक जैन मंदिर बना हुआ है। दुर्ग की ऊंची चोटी पर गढ़ी में बड़गूजरों के कुलदेवता नीलकंठ महादेव का मंदिर बना हुआ है।

इसी गढ़ी में अश्वशाला, विशाल कुंड और सैनिक विश्रामगृह बना हुआ है। राजनैतिक कैदियों को रखने के लिए कभी-कभी इन कमरों का इस्तेमाल किया जाता था। दौसा के उत्तर में सोमनाथ महादेव का मंदिर, पश्चिम में गुप्तेश्वर महादेव का मंदिर और दक्षिण में सहजनाथ का मंदिर और मोरी दरवाजे के पास वैद्यनाथ मंदिर बना हुआ है।

बीच में पहाड़ी पर ऊंचाई पर स्थित कुलदेवता नीलकंठ महादेव का मंदिर और उसके चारों दिशाओं में मंदिर का मूल-आधार आर्यों की विश्व कल्पना पर आधारित है। क्षीर सागर के बीच में मन्दिराञ्चल पर्वत और उसके चारों दिशाओं के चार महाद्वीप के प्रतीक दौसा के बड़गूजरों द्वारा निर्मित मंदिर पंचायतन मंदिर कहलाते हैं।

कहा जाता है कि इन पांचों मंदिरों (बैजनाथ, गुप्तेश्वर, नीलकंठ, सोमनाथ व सहजनाथ) के शिवलिंग को एक ही रात्रि में स्थापित किया गया था। महादेवजी के इतने अधिक संख्या में मंदिरों का होना बड़गूजरों के शैव परंपरा का अनुयानी होना सिद्ध करते हैं।

1871 ई. के आसपास कनिंघम और उनके साथी कार्लाइल को दौसा के देवगिरी पहाड़ की उत्तरी ढलान पर कई ऐतिहासिक साक्ष्य मिले थे। उनके बाद 1935-1936 ई. में दयाराम साहनी को देवगिरी किले की इन्हीं जगहों से लगभग 50 देव मूर्तियां प्राप्त हुई थी, जो पहाड़ी की तलहटी में बने नीलकंठ महादेव के प्राचीन मंदिर का हिस्सा थी।

जो मूर्तियां खुदाई के दौरान खंडित हो गई, उन्हें वहीं नीलकण्ठ महादेव मंदिर के बाहर की दीवार पर अव्यवस्थित क्रम के साथ लगवा दिया गया। खंडित हुई मूर्तियों में भगवान श्रीरामचंद्रजी, हनुमानजी, दुर्गा माता मूर्ति और कुछ मूर्तियां नृत्यांगनाओं की है। अधिकांश मूर्तियां करौली के लाल पत्थर से बनी हुई है।

दौसा दुर्ग में स्थित खंडित मूर्तियां

राजा श्रीतावट के ज्येष्ठ पुत्र राजदेव ने विस्तारवादी नीति अपनाई और दौसा से निकलकर मत्स्यप्रदेश पर आक्रमण करके उसे अपने अपने अधिकार में कर लिया। महाराज राजदेव ने अपने ही नाम पर ‘राज्यपुर’ बसाया और यहां एक किला बनवाया जिसे आज राजौरगढ़ का किला कहते हैं।

इसके बाद राजौरगढ़ ही बड़गूजरों की राजधानी रही और दौसा को बड़गूजर सामंतों को देकर एक सैन्य छावनी बनाई गई। राजा राजदेव के वंशजों के कई शिलालेखों जैसे :-

महाराजाधिराज परमेश्वर सावटदेव (923 ई.), महाराजाधिराज परमेश्वर मथनदेव बड़गूजर (959 ई.), महाराजाधिराज अजयपालदेव (1044 ई.) और महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर (1151 ई. और 1182 ई.) इत्यादि से बड़गूजरों की राजधानी ‘राज्यपुर’ का उल्लेख मिलता है।

राजौरगढ़ नरेश महाराज अचलदेव (812 ई.-839 ई.) स्वयं एक अच्छे घुड़सवार थे। उन्होंने घोड़े के व्यापारिक केंद्र के रूप में दौसा को उभारने के अथक प्रयास किए, जिसमें महाराजाधिराज परमेश्वर सावटदेव (911 ई.-957 ई.) ने काफी हद पर सफलता पाई।

कन्नौज के प्रतिहार सम्राटों की सेना में एक बड़ा भाग घुड़सवार सेना का था, जो सम्भवतः राजौरगढ़ के बड़गूजरों द्वारा ही पूरा किया जाता रहा होगा।

राजा दुल्हराय कछवाहा और राजा रालणसी चौहान का घोड़े का व्यापारी बनकर दौसा आना इस बात को प्रमाणित करता है कि 11वीं सदी तक घोड़ों के व्यापार के लिए दौसा एक प्रमुख स्थान था। पड़ोसी राज्यों द्वारा अच्छी नस्ल के घोड़ों का क्रय-विक्रय दौसा से ही किया जाता था।

पोस्ट लेखक :- जितेंद्र सिंह बडगूजर

error: Content is protected !!