नवम्बर, 1881 ई. – चित्तौड़गढ़ दरबार :- महाराणा सज्जनसिंह ने शर्त रखी थी कि अगर भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन ख़ुद मेवाड़ आकर ख़िताब से नवाजे तभी मंज़ूर है। महाराणा का मान रखते हुए लॉर्ड रिपन 22 नवम्बर को चित्तौड़गढ़ पहुंचा।
डॉक्टर स्ट्रेटन ने लॉर्ड रिपन से सभी सरदारों का परिचय करवाया। अगले दिन 23 नवम्बर को चित्तौड़गढ़ दुर्ग में दरबार हुआ। इस अवसर पर गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन ने महाराणा सज्जनसिंह को GCSI के ख़िताब से नवाज़ा।
इस समय अंग्रेजी तोपखाने से महाराणा के सम्मान में 21 तोपों की सलामी सर हुई। दरबार में महाराणा सज्जनसिंह की तरफ से कर्नल वाल्टर ने एक स्पीच दी, जो चित्तौड़ के गौरव से सम्बंधित थी। यह स्पीच कुछ इस तरह थी :-
“आज मैं अपने सरदारों सहित इस प्राचीन राजधानी चित्तौड़ में, जिसका बड़प्पन सदियों से चलता आया है, आपसे मिलकर बड़ा खुश हूँ। इस चित्तौड़ शहर को हम सब बड़ा प्रसिद्ध और प्रिय समझते हैं,
जिसकी रक्षा करने और जिसको अपने अधिकार में रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने गत समय में अपने अमूल्य प्राण अर्पण किए हैं। इस यादगार के निमित्त मेवाड़ के सिसोदिया राजाओं ने अपनी पदवी ‘चित्तौड़ा’ रखी है।”
शाम के वक्त लॉर्ड रिपन अपने साथियों सहित चित्तौड़गढ़ का किला देखने के लिए निकला। डॉक्टर स्ट्रेटन ने चित्तौड़ के इतिहास की छोटी सी किताब लॉर्ड रिपन को दी, ताकि चित्तौड़ का किला देखते वक्त उसका इतिहास जानने में आसानी हो।
लॉर्ड रिपन ने इस अवसर पर एक स्पीच दी, जिसमें महाराणा के लिए ये पंक्तियां कही गईं :- “महाराणा साहिब प्रतिष्ठित, प्राचीन और उत्तम कुलीन क्षत्रियों में से अव्वल दर्जे के हैं। यह खानदान हिंदुस्तान के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है। मैं इस बात से और भी अधिक प्रसन्न हुआ कि
महाराणा साहिब केवल अपने उत्तम बर्तावों और शील स्वभाव से ही प्रसिद्ध नहीं हैं, बल्कि अपनी बुद्धिमानी में भी प्रसिद्ध हैं, जिससे वे अपनी प्रजा पर हुकूमत करते हैं। महाराणा साहिब ने हमको चित्तौड़ के इतिहास की वे बातें याद दिलाई हैं, जिनके कारण से चित्तौड़ प्रसिद्ध है। वे
यादगारें उस वीरता का स्मरण कराती हैं, जो अन्य इतिहासों में बहुत कम मिलती हैं। उन वीरताओं में सिर्फ यहां के पुरूष ही प्रसिद्ध नहीं थे, बल्कि इस घराने की स्त्रियां भी प्रसिद्ध थीं। इस किले की चोटी के गिर्द
राजस्थान की बहादुरियों की यादगारियाँ जमा हैं। महाराणा साहिब के पूर्वज ऐसे थे कि जब उन्हें लगता कि देश की प्रतिष्ठा जा रही है, तब वे उस प्रतिष्ठा को बचाने के लिए समरभूमि में लड़ मरते थे।”
24 नवम्बर को लॉर्ड रिपन अजमेर के लिए रवाना हो गया। रुख़सत के वक्त महाराणा सज्जनसिंह ने अपने 8 सरदारों सहित लॉर्ड रिपन से मुलाकात की। 26 नवम्बर को महाराणा सज्जनसिंह ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में फौज की हाजिरी ली।
स्वामी दयानंद सरस्वती का चित्तौड़ आगमन :- इन्हीं दिनों स्वामी दयानंद सरस्वती का चित्तौड़ आना हुआ, जहां उनकी मुलाकात स्वामी जीवनगिरी से हो गई। दोनों ने आपस में शास्त्रार्थ करने का इरादा किया, लेकिन महाराणा ने विचार किया कि इससे विवाद भी हो सकता है। इसलिए महाराणा ने शास्त्रार्थ की अनुमति नहीं दी।
28 नवम्बर को राजपूताने का ए.जी.जी. वाल्टर चित्तौड़गढ़ आया, लेकिन यहां आने के कुछ दिन बाद बीमार हो गया और 20 दिसम्बर को चित्तौड़ से लौट गया।
चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत :- महाराणा सज्जनसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत के लिए सालाना 24 हज़ार रुपए इस कार्य में लगाना तय किया। महाराणा ने चित्तौड़ में इस कार्य हेतु कर्मचारी नियुक्त कर दिए।
महाराणा का उदयपुर आगमन :- 28 दिसम्बर, 1881 ई. को महाराणा सज्जनसिंह जनाने सहित ट्रेन में चित्तौड़गढ़ से रवाना हुए और मांडल पहुंचे। फिर कुछ दिन अपने पिता बागोर के महाराज शक्तिसिंह के यहां रहे और 24 जनवरी, 1882 ई. को उदयपुर राजमहलों में पधारे।
महता माधवसिंह के यहाँ पधारना :- 21 मार्च को महाराणा सज्जनसिंह महता माधवसिंह के मकान पर पधारे। महाराणा ने माधवसिंह को एक खिलअत और पैर में पहनने के सोने के आभूषण बख्शे। 9 मई को मेवाड़ रेजीडेंसी के पद पर नियुक्त होकर कर्नल स्मिथ उदयपुर आया।
मार्च-मई, 1882 ई. – भीलों का विद्रोह :- 21 मार्च को भौराई की पाल वाले भीलों ने मगरा क्षेत्र के गिरदावर दयालाल चौईसा को घेरकर फ़साद किया, जिसके बाद नठारा के भीलों ने भी फ़साद शुरू कर दिया।
महाराणा सज्जनसिंह ने मामा अमानसिंह को फौज समेत भेजकर इस विद्रोह का दमन करवाया। इस लड़ाई में बाठरड़ा के राव दलेलसिंह के पुत्र मदनसिंह सारंगदेवोत ने भी भाग लिया था। मगरा के हाकिम महता गोविंदसिंह ने भी अच्छा कार्य किया।
महाराणा ने 29 मई, 1882 ई. को मामा अमानसिंह को पैरों के सोने के लंगर व महता गोविंदसिंह को खिलअत देकर सम्मानित किया। भौराई की पाल वाले भील अक्सर बग़ावत किया करते थे, इस ख़ातिर महाराणा सज्जनसिंह ने वहां एक किला बनवाकर उस इलाके में शान्ति स्थापित करवाई।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
जय हो ऋषि दयानंद सरस्वती जी की