मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह (भाग – 20)

1881 ई. के ज़बरदस्त भील विद्रोह के दौरान महाराणा सज्जनसिंह द्वारा कविराजा श्यामलदास को नेतृत्व सौंपकर विद्रोह को खत्म करने के लिए भेजा। कविराजा ने हरसम्भव सुलह प्रयास किए, लेकिन सुलह के वक्त एक शराबी भील द्वारा गोली चलाने से अफरा-तफरी हो गई और मेवाड़ी फ़ौज ने भी गोलियां चलानी शुरू कर दीं।

इस घटना के बाद अंग्रेज अफसर कर्नल ब्लेअर घबराया, क्योंकि वह ख़ुद सुलह के स्थान से दूर खड़ा था। इस अफरा-तफरी में उसे लगा कि महाराणा की फ़ौज ने भीलों को धोखा दे दिया और गोलियां चला दी। उसने यह बात राजपूताने के ए.जी.जी. कर्नल वाल्टर को भी लिख भेजी।

अगले दिन ऋषभदेव की पुरी के कुछ बनियों ने भीलों के पास जाकर उन्हें समझाया, जिससे भील कुछ नर्म पड़े। कविराजा ने भी अवसर देखकर आधा बराड़ (एक प्रकार का टैक्स जो भीलों की पालों पर सालाना लगता था) माफ़ कर दिया। साथ ही यह भी लिखित में दे दिया कि आज के बाद जनगणना की वजह से तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।

भीलों के मुखिया ने एक ख़त लिखवाकर कर्नल ब्लेअर को भेजा, जिसमें लिखा था कि “श्रीदरबार महाराणा की फ़ौज ने कोई धोखा नहीं किया। हमारे ही एक शराबी भील ने गोली चला दी, जिसके बाद महाराणा की फ़ौज को जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी।”

महाराणा सज्जनसिंह

कविराजा ने भीलों से कहा कि फौज के साथ सुलह नहीं हो सकती, इस ख़ातिर तुम्हारी तरफ से कुछ भील और हमारी तरफ से कुछ रियासती लोग फ़ौजों से दूर रहकर सुलह करेंगे। कविराजा श्यामलदास और मामा अमानसिंह एक मील की दूरी पर गमेतियों से मिले।

गमेतियों ने इन दोनों को नज़रें दीं। इस बार सुलह की बातचीत बिना किसी बाधा के पूरी हो गई। इस तरह कविराजा की चतुरता से बिना अधिक खून-खराबे के सुलह तय हुई। कविराजा ने एक अर्ज़ी लिखकर दयालाल चौईसा को दी और कहा कि इसे उदयपुर पहुंचा दो।

अगले दिन कविराजा 40 सवारों के साथ कर्नल ब्लेअर से मिलने के लिए खेरवाड़ा की छावनी में गए। छावनी में अंग्रेज लोग बहुत घबराए हुए थे। कर्नल ब्लेअर ने तो डूंगरपुर के रावल उदयसिंह को भी मदद के लिए बुला लिया था।

कविराजा ने वहां सभी को तसल्ली दी और वास्तविकता बता दी। कविराजा वहां से रवाना हुए और धूलेव पहुंचे। वहां से मेवाड़ी को फ़ौज को रवाना किया गया। 24 अप्रैल को मेवाड़ी फ़ौज का पड़ाव परसाद में हुआ।

कविराजा श्यामलदास और मामा अमानसिंह धूलेव में ही ठहरे रहे, जहां गमेती लोग मिलने के लिए आए। ऋषभदेव मंदिर में बैठकर कविराजा ने गमेतियों को पूरी तरह तसल्ली दे दी और फिर मंदिर का बंदोबस्त करके परसाद पहुंच गए, जहां मेवाड़ी फ़ौज ठहरी थी।

कविराजा श्यामलदास

परसाद में दयालाल चौईसा आए और महाराणा सज्जनसिंह की तरफ से भेजे हुए परवाने कविराजा को दिए, ये परवाने भीलों को महाराणा की तरफ से आश्वस्त करने के संबंध में थे। कविराजा ने ये परवाने भीलों के मुखियाओं के पास भिजवा दिए।

25 अप्रैल को मेवाड़ी फौज उदयपुर लौट गई। उदयपुर में महाराणा ने कई सरदारों, उमरावों की फ़ौजें बुला रखी थीं, ताकि बग़ावत बढ़ने पर काम आ सके। सुलह की बात तय हो जाने के कारण इन सरदारों को फ़ौज समेत विदा कर दिया गया।

कर्नल ब्लेअर ने कविराजा की कार्रवाइयों की खामियाँ गिनाकर जो ख़त राजपूताने के ए.जी.जी. वाल्टर को लिखा था, उसके कारण वाल्टर ने शम्भूनिवास महल में एक कोर्ट रखी, जिसमें महाराणा सज्जनसिंह, मेवाड़ का रेजिडेंट डॉक्टर स्ट्रेटन, विंगेट आदि मौजूद थे।

कविराजा श्यामलदास को कोर्ट में तलब किया गया और कई सवाल पूछे गए। कविराजा ने सारा हाल बयां कर दिया, जिसके बाद वाल्टर ने स्वीकार किया कि कविराजा की कोई गलती नहीं है।

भील विद्रोह को कम खून-खराबे से शांत करने के कारण महाराणा सज्जनसिंह ने कविराजा श्यामलदास को खुशी से पैरों के सोने के लंगर भेंट किए। 27 अप्रैल को ए.जी.जी. वाल्टर उदयपुर से रवाना होकर आबू चला गया।

कविराजा श्यामलदास

भील विद्रोह के बारे में लेखक की निजी राय :- 1881 ई. का भील विद्रोह 19वीं सदी का सबसे बड़ा भील विद्रोह था। इस विद्रोह की शुरुआत ही गलतफहमियों के कारण हुई, जिसे मौकापरस्त लोगों ने भीलों को बहकाकर और ज्यादा हवा दे दी।

इस विद्रोह का दमन आवश्यक था, क्योंकि इससे न सिर्फ महाराणा व उनकी फ़ौज, बल्कि प्रजा को भी बड़ी दिक्कतें आ रही थीं। कविराजा श्यामलदास ने शुरू से ही यही चाहा था कि इस विद्रोह को तलवार की नोंक की बजाय सुलह से दबाया जाए।

क्योंकि भीलों की आस्था जो मेवाड़ महाराणाओं के प्रति पिछली 13-14 सदियों से रही, वह भुलाई नहीं जा सकती थी। परन्तु भील विद्रोह ने जब ज्यादा ही हिंसात्मक रूप ले लिया, तो कुछ निर्दयता दिखानी भी आवश्यक हो गई।

कविराजा ने अंग्रेज अफसरों को भी रोके रखा, क्योंकि अगर अंग्रेजी फ़ौज भील विद्रोह को कुचलती, तो ये बड़ा ही अनैतिक विषय बन जाता। फिर भी इतना बड़ा विद्रोह बहुत कम खून-खराबे से दबा दिया गया। यह कविराजा के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सैनिक उपलब्धि थी।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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