1881 ई. – जनगणना से नाराज़गी व कुछ अन्य मांगों को लेकर ज़बरदस्त भील विद्रोह :- जनगणना, बराड़ टैक्स आदि के कारण भीलों ने ज़बरदस्त विद्रोह करते हुए कलालों को मार डाला। महाराणा सज्जनसिंह द्वारा भेजे गए मेवाड़ी सेना के नेतृत्वकर्ता कविराजा श्यामलदास ने भीलों को काबू में करने के प्रयास जारी रखे।
इन निर्मम हत्याओं का प्रतिशोध लेने के लिए कविराजा के हुक्म से बारहपाल के सैंकड़ों घर जला दिए गए। जोगियों के फले के करीब भैरा गमेती के घर में 2 सिंधी सिपाही ज़ख्मी हालत में मिले, जिनको उस गमेती की स्त्री ने बचाया था।
वे दोनों सिपाही जमादार जानमुहम्मद के रिसाले के थे। इन दोनों को उदयपुर पहुंचाया गया। रात भर भीलों की ‘फाइरे-फाइरे’ (भीलों का उद्घोष) की आवाजें आती रहीं और गोलियां चलती रहीं। 28 मार्च को मेवाड़ी फौज के ऊंट चरते-चरते कुछ दूर निकल गए, जिनमें से 2 को भीलों ने तीरों से मार दिया।
इसी दौरान अलसीगढ़, पई और कोटड़ा के भीलों ने बगावत करते हुए कामदार धूलचंद नागोरी समेत 2-3 सिपाहियों को मार डाला। महाराणा सज्जनसिंह ने भैंसरोडगढ़ के रावत प्रतापसिंह, महाराज रायसिंह और अब्दुर्रहमान खां को फ़ौज समेत उस तरफ भेजा। इन लोगों ने 2 भीलों को मार दिया।
भीलों ने केवड़ा नाल की चौकियां जला दीं। महाराणा ने कुराबड़ के रावत रतनसिंह चुंडावत, महता तख्तसिंह व बाठरड़ा रावत के पुत्र मदनसिंह सारंगदेवोत को फ़ौज समेत उस तरफ भेजा। इनके वहां जाने से केवड़ा की नाल का बंदोबस्त हो गया।
29 मार्च को महाराणा सज्जनसिंह का एक ख़त कविराजा श्यामलदास के पास आया। कविराजा उस समय भोजन कर रहे थे। ख़त में लिखा था कि भीलों की बग़ावत के कारण मुझे जगह-जगह फ़ौज भेजनी पड़ रही है, तुम 3 दिन से वहां बैठे हो, पर कुछ कार्रवाई नहीं की।
ये ख़बर पढ़कर कविराजा ने भोजन बीच में ही छोड़ दिया और फौज समेत रवाना हुए। धूप बहुत तेज़ थी, जिससे सिपाही, घुड़सवार सब तंग आ गए थे। टीडी की नदी पर पहुंचकर सब सिपाहियों और घोड़ों ने पानी पिया।
ऊंची-नीची भूमि के कारण मामा अमानसिंह घोड़े से गिर गए, जिससे उनके पैर में सख़्त चोट लगी, लेकिन फ़ौरन ही घोड़े पर चढ़ते हुए बोले कि मुझे चोट नहीं लगी। मेवाड़ी फ़ौज गधेड़ाघाटी में पहुंची, जहां भीलों ने कई पेड़ काटकर रास्ता बंद कर रखा था, जिसको साफ करते हुए मेवाड़ी फौज आगे बढ़ी।
इस तंग घाटी के दोनों ओर से हज़ारों भीलों ने तीर बरसाए और गोलियां चलाई, पर पुख्ता इंतजामों के चलते किसी को कोई नुकसान न हुआ। 2 भील मारे गए, जिनकी लाशें अन्य भील लोग उठा कर ले गए।
पडूणा के दक्षिणी इलाके में सिंधी सिपाही ने एक भील का सिर काट दिया और परसाद में पहुंचकर उस सिर को पेड़ पर लटका दिया गया, ताकि भीलों में खौफ़ पैदा हो।
परसाद में शाम के समय कविराजा को खबर मिली कि ऋषभदेव की पुरी को 7 हज़ार भीलों ने घेर रखा है और उनका इरादा मंदिर लूटकर खेरवाड़ा की छावनी पर हमला करने का है। परसाद से आगे जाने पर भीलों पर वार किए गए, जिसमें 6 भील मारे गए। उनकी लाशें उनके साथी उठाकर ले गए।
पीपली की पाल के करीब एक बड़े पहाड़ की जड़ में 100-200 भील हथियार समेत छिपे हुए थे। मेवाड़ी फ़ौज के 20 घुड़सवार दयालाल चौईसा की कमान में जा रहे थे, ये घुड़सवार मेवाड़ी फ़ौज से कुछ आगे चल रहे थे।
भीलों ने इनको अलग-थलग जानकर हमला कर दिया, लेकिन घुड़सवारों ने बिगुल बजाकर सचेत कर दिया, जिससे कविराजा फ़ौज समेत वहां पहुंच गए। यहां हुई लड़ाई में 20-25 भील मारे गए, जिनमें 2-3 भील नामी थे।
कविराजा के घोड़े से ठीक आगे एक भिश्ती चल रहा था। एक भील द्वारा चलाई गई गोली उसके पैर की पिंडली में लगी। कविराजा ने उस भिश्ती को ऊंट पर बिठाया। एक और भील ने गोली चलाई, जो कि मेवाड़ी फ़ौज के साथ चल रहे एक बंजारे की गर्दन में लगी।
मेवाड़ी फौज ने ऋषभदेव पहुंचकर भीलों को तितर-बितर किया और मंदिर की रक्षा के इंतज़ाम पुख्ता किए। मेवाड़ी फ़ौज के वहां पहुंचने के बाद मंदिर के पुजारियों और वहां मौजूद सिपाहियों को तसल्ली हुई। 2 हज़ार भीलों ने पूर्वी तरफ की पहाड़ियों से ऋषभदेव कस्बे की तरफ हमला किया।
दयालाल चौईसा 50 घुड़सवार लेकर गए। 2 भील मारे गए। 3 दिन तक मंदिर के आसपास की पहाड़ियों में 6-7 हज़ार भीलों ने शोरोगुल किया। कविराजा इस उम्मीद में थे कि बिना खून-खराबे के ये लड़ाई खत्म की जाए।
भीलों के नेतृत्वकर्ताओं में बीलक की पाल का नीमा गमेती, पीपली का खेमा व सगतड़ी का जोयता थे। ऋषभदेव मंदिर के पुजारी खेमराज भंडारी ने कविराजा से कहा कि मैं भीलों के मुखिया से कुछ समझाईश कर सकता हूँ।
कविराजा तो इसी फ़िराक़ में थे कि किसी तरह शांति से बात हो जाए। खेमराज भंडारी बीलक की पाल में गए और भीलों को समझाया। भील ऋषभदेव मंदिर व पुजारियों पर भरोसा रखते हैं, इसलिए थोड़ी देर रुक गए।
शेष अगले भाग में। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)