मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह (भाग – 15)

महाराणा सज्जनसिंह द्वारा रायपुर से मेवाड़ आने तक का सफर :- किशनगढ़ व जयपुर रियासतों में कुछ दिन बिताने के बाद लौटते वक्त महाराणा सज्जनसिंह का पड़ाव रायपुर में हुआ। रायपुर में मारवाड़ नरेश जसवन्तसिंह राठौड़ द्वारा भेजे गए आगेवा के जागीरदार बख्तावर सिंह आए, जहां उनकी भेंट महाराणा सज्जनसिंह से हुई।

13 जनवरी, 1880 ई. को ठाकुर चतरसिंह व ठाकुर हरिसिंह ने महाराणा को घोड़ा व सिरोपाव नज़र किया। महाराणा ने उन दोनों को खिलअत भेंट की। रास्ते में चंडावल के ठाकुर शक्तिसिंह ने महाराणा को दावत दी। महाराणा का पड़ाव सोजत, पाली और फिर बूशी में हुआ।

बूशी में जोधपुर महाराजा स्वयं महाराणा सज्जनसिंह से भेंट करने पहुंचे, लेकिन उसी वक़्त महाराजा जसवन्तसिंह को खबर मिली कि उनके छोटे भाई की तबियत ज्यादा खराब हो गई है।

इसलिए महाराजा जसवन्तसिंह महाराणा से मुलाकात करते ही जोधपुर के लिए रवाना हो गए, लेकिन अपने भाई महाराज प्रतापसिंह व कविराजा मुरारीदान को महाराणा के आतिथ्य के लिए वहीं छोड़ गए।

वहां से रवाना होकर जीवन्द होते हुए 17 जनवरी को महाराणा सज्जनसिंह घाणेराव पहुंचे। घाणेराव का ठिकाना मेवाड़ रियासत का ही था, लेकिन महाराणा अरिसिंह के समय गोडवाड़ परगने के मारवाड़ में शामिल हो जाने के कारण यह ठिकाना भी मारवाड़ रियासत का हिस्सा हो गया।

7 वर्षीय घाणेराव ठाकुर जोधसिंह राठौड़ की तरफ से महाराणा को फौज समेत दावत दी गई। कम उम्र में ही अच्छी बातें करने वाले ठाकुर जोधसिंह से महाराणा सज्जनसिंह बड़े खुश हुए। 18 जनवरी को महाराणा सज्जनसिंह कुम्भलगढ़ पधारे।

कुम्भलगढ़ दुर्ग

इस वक्त महाराजा प्रतापसिंह व कविराजा मुरारीदान भी साथ थे, जिनको 24 जनवरी को जोधपुर के लिए विदा किया गया। फिर महाराणा सज्जनसिंह गढ़बोर, केलवा, राजनगर, नाथद्वारा होते हुए 1 फरवरी को नाहरमगरा पहुंचे, जहां शिकार व सैर करते हुए कुछ दिन बिताए और 8 मार्च को उदयपुर पहुंचे।

मार्च, 1880 ई. – महाराणा का जोधपुर प्रस्थान :- जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह राठौड़ को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिस वजह से उन्होंने महाराणा सज्जनसिंह को बहुत हठ व प्रीति के साथ आमंत्रित किया।

महाराणा सज्जनसिंह राजपूत रियासतों से संबंध सुधारना व बनाना चाहते थे, इसलिए वे 250 आदमियों सहित 18 मार्च को जोधपुर की तरफ रवाना हुए। जोधपुर महाराजा की तरफ से कविराजा मुरारीदान व आगेवा के जागीरदार बख्तावर सिंह को महाराणा को लेने के लिए भेजा गया।

मारवाड़ की तरफ से घाणेराव के ठाकुर जोधसिंह राठौड़ व खीमाणा के ठाकुर गुमानसिंह ने देसूरी की नाल तक आकर महाराणा की पेशवाई की। महाराणा सज्जनसिंह 21 मार्च को जोधपुर पहुंचे। महाराजा जसवन्तसिंह ने वहां से 5 कोस दूर स्थित मोगड़ा गांव तक आकर महाराणा की पेशवाई की।

महाराणा को राई के बाग में ठहराया गया। जब तक महाराणा वहां ठहरे, प्रतिदिन उनकी बढ़िया खातिरदारी होती और घुड़दौड़ का आयोजन किया जाता। मारवाड़ की घुड़दौड़ प्रसिद्ध रही है। इसके अलावा शिकार आदि के आयोजन भी प्रतिदिन होते थे।

मारवाड़ के कविराजा मुरारीदान, महता विजयसिंह व महाराज किशोरसिंह ने महाराणा सज्जनसिंह व महाराजा जसवन्तसिंह को दावतें दीं। महाराणा ने जोधपुर युवराज को भूषण वस्त्र भेजे। 5 अप्रैल को जोधपुर से रवाना होकर दोनों राजा झालामंड पधारे, जहां के ठाकुर जोरावरसिंह राणावत ने उनकी खातिरदारी की।

महाराणा सज्जनसिंह

6 अप्रैल को महाराणा सज्जनसिंह झालामंड से रवाना हुए और उन्होंने महाराजा जसवन्तसिंह को जोधपुर के लिए विदा किया और स्वयं पाली, देसूरी, राजनगर होते हुए 8 अप्रैल को उदयपुर लौट आए।

कविराजा श्यामलदास के भाई का देहांत :- इस सफ़र में कविराजा श्यामलदास महाराणा के साथ नहीं थे, क्योंकि उनके भाई औनाड़सिंह बीमार थे व 2 अप्रैल को उनका देहांत हो गया। औनाड़सिंह की दाहक्रिया के लिए महाराणा सज्जनसिंह ने 3 हजार रुपए देकर बहुत सांत्वना दी।

मारवाड़ से टीके का दस्तूर आना :- 20 जुलाई, 1880 ई. को जोधपुर के कविराजा मुरारीदान व कंटालिया के ठाकुर गोवर्द्धन सिंह महाराणा सज्जनसिंह की गद्दीनशीनी के टीके का दस्तूर लेकर उदयपुर आए। उनकी पेशवाई के लिए महाराणा ने कविराजा श्यामलदास व हमीरगढ़ के रावत नाहरसिंह को चम्पाबाग तक भेजा।

मेवाड़ व मारवाड़ के बीच यह दस्तूर पिछले 126 वर्षों से आपसी नाइत्तफाकी की वजह से बंद था, जो महाराणा सज्जनसिंह के द्वारा आपसी संबंधों को सुधारने से फिर शुरू हुआ।

उदयपुर सिटी पैलेस का भीतरी भाग

24 जुलाई को टीका नज़र किया गया। 30 जुलाई को मुरारीदान व ठाकुर गोवर्द्धन सिंह को जोधपुर के लिए विदा कर दिया गया।

इस प्रकार महाराणा सज्जनसिंह की वजह से मेवाड़ और मारवाड़ के बीच चली आ रही आपस की नाइत्तफाकी का अंत हुआ और दोनों रियासतों के बीच सम्बन्ध मज़बूत हुए।

स्वयं महाराणा की आयु इस समय 20-21 वर्ष ही थी, परन्तु उनकी सोच राजपूताने को एकता के सूत्र में बांधने वाली थी। महाराणा ने अपने व्यवहार से जयपुर, जोधपुर, किशनगढ़, रीवां आदि रियासतों से मधुर सम्बन्ध स्थापित किए। अगले भाग में महद्राज सभा के बारे में लिखा जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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