मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह (भाग – 13)

1878 ई. – महाराणा सज्जनसिंह का नीमच, भीलवाड़ा व चित्तौड़गढ़ दौरा :- महाराणा सज्जनसिंह नीमच पहुंचे, जहां 3 अंग्रेज अफसर पेशवाई हेतु आगे आए और महाराणा के सम्मान में छावनी से 21 तोपों की सलामी सर हुई।

7 दिसम्बर को अठाणा, कणेरा, बेगूं होते हुए 12 दिसम्बर को महाराणा ने मांडलगढ़ का दौरा किया और फिर सतपड़ा पहाड़ में शिकार किया। फिर बिजोलिया में दावत कुबूल करने के बाद 17 दिसम्बर को अमरगढ़ व 18 दिसम्बर को जहाजपुर पधारे।

जहांजपुर में महता पन्नालाल व उनके भाई लक्ष्मीलाल को कुंए, तालाब व पाठशाला बनवाने के हुक्म दिए। 24 दिसम्बर को मांडलगढ़ से रवाना होकर 25 दिसम्बर को महाराणा सज्जनसिंह कविराजा श्यामलदास के आग्रह पर उनके गांव ढोकलिया पधारे।

उस वक्त महाराणा के साथ शाहपुरा के राजाधिराज नाहरसिंह, बनेड़ा के राजा गोविंदसिंह, सरदारगढ़ के ठाकुर मनोहरसिंह, भदेसर के रावत भोपालसिंह, ताणा के राज देवीसिंह झाला, हमीरगढ़ के रावत नाहरसिंह, माँगरोप के बाबा गिरवरसिंह, काकरवा के उदयसिंह आदि भी थे।

कविराजा ने महाराणा को उनके 7-8 हज़ार आदमियों सहित दावत दी। महाराणा ने इस समय ही उन्हें “कविराजा” की उपाधि दी और अजाची बनाया। (अजाची :- महाराणा के सिवाय किसी दूसरे से कुछ न मांगने वाला)

कविराजा श्यामलदास

महाराणा सज्जनसिंह बरसल्यावास, पारसोली व बस्सी होते हुए 28 दिसम्बर को चित्तौड़गढ़ पधारे। 3 जनवरी, 1879 ई. को चित्तौड़गढ़ से रवाना हुए और काकरवा में उदयसिंह के यहां दावत कुबूल की।

महाराणा का उदयपुर आगमन :- 4 जनवरी को ताणा में देवीसिंह झाला ने महाराणा को फौज समेत दावत दी। 5 जनवरी को महाराणा नाहरमगरा पहुंचे। महाराणा ने 23 जनवरी को उदयपुर राजमहलों में प्रवेश किया।

कर (टैक्स) प्रणाली में आने वाली अड़चनें :- कोठारी केसरीसिंह द्वारा बांधा हुआ ज़मीन के हासिल का ठेका टूट गया अर्थात यह एक प्रकार की कर (टैक्स) पद्धति थी, जो समाप्त हो गई। महाराणा सज्जनसिंह ने इस कार्य के लिए 1878 ई. में अंग्रेज सरकार से किसी अनुभवी अफ़सर की मांग की, तो स्मिथ को भेजा गया।

कुछ ही दिन में स्मिथ के विलायत चले जाने के कारण 1879 ई. में महाराणा ने यह कार्य विंगेट को सौंपा। दरअसल महाराणा जिस कर प्रणाली को लागू करना चाहते थे, वह किसानों के लिए भी हितकारी थी।

यह कर पद्धति कुछ-कुछ राजा टोडरमल द्वारा अकबर के शासनकाल में लागू की गई पद्धति के समान थी। लेकिन कुछ मतलबी लोग, जिन्हें पुरानी कर पद्धति से अधिक फायदा होता था, उन्होंने किसानों को इस नई पद्धति के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया।

महाराणा सज्जनसिंह

महाराणा सज्जनसिंह ने किसानों को उदयपुर बुलाकर समझाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब महाराणा ने महता पन्नालाल को भेजकर किसानों को शांत किया। विंगेट के लौट जाने के बाद महाराणा ने विडल्फ को यह काम सौंपा। महाराणा के लगातार प्रयासों से पहाड़ी इलाकों को छोड़कर समस्त मेवाड़ का ठेका बांध दिया गया।

राजसमन्द में मरम्मत कार्य :- महाराणा सज्जनसिंह अपने रनिवास सहित 1 अप्रैल, 1879 ई. को उदयपुर से रवाना हुए और नाहरमगरा, नाथद्वारा होते हुए राजनगर पधारे। महाराणा ने राजसमन्द झील की पाल, पाल किनारे स्थित बगीचे व महलों के जीर्णोद्धार का बंदोबस्त किया।

फिर गढ़बोर में चतुर्भुजनाथ की यात्रा करने के बाद 9 अप्रैल को महाराणा उदयपुर पधारे। 24 अप्रैल को महाराणा सज्जनसिंह ने उदयपुर के जगनिवास में सज्जननिवास नामक महल की प्रतिष्ठा की, जिसमें सरदारों, चारणों, पासवानों को खिलअत, इनाम आदि दिए गए।

15 जून को मेवाड़ का पोलिटिकल एजेंट मेजर केडल 3 माह की छुट्टी पर विलायत चला गया। 28 जुलाई को बाणनाथ का लिंग अखाड़े के महल में स्थापित किया गया, जो कि पहले चंद्रमहल के ऊपर गुम्बज में था।

26 अगस्त को कृष्णपोल दरवाज़े के बाहर शम्भू पलटन व सज्जन पलटन के लिए लैन तैयार करवाने का मुहूर्त निकाला गया। 21 सितम्बर को मेवाड़ का पोलिटिकल एजेंट मेजर केडल विलायत से लौट आया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में जीर्णोद्धार :- 27 सितम्बर, 1879 ई. को महाराणा सज्जनसिंह चित्तौड़गढ़ दुर्ग में जीर्णोद्धार करवाने के उद्देश्य से पधारे। महाराणा सज्जनसिंह ने नक्शे बनवाकर महारानी पद्मिनी के महलों समेत अन्य महलों की भी मरम्मत करवाने का आदेश दिया।

जो इतिहासकार रानी पद्मिनी के महलों को मात्र 150 वर्ष पुराने बताकर इतिहास झुठलाने का प्रयास करते हैं, उनके ऐतिहासिक ज्ञान को बढ़ाते हुए हम बताना चाहेंगे कि वे महल निश्चित रूप से खंडहर हो गए होंगे, जिन्हें महाराणा सज्जनसिंह ने दुरुस्त करवाया और इसी कारण ये महल 150 वर्ष पुराने प्रतीत होते हैं।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित रानी पद्मिनी महल

महाराणा का उदयपुर आगमन :- 13 अक्टूबर को महाराणा सज्जनसिंह उदयपुर पधारे। 16 अक्टूबर को मेवाड़ का पोलिटिकल एजेंट मेजर केडल अंडमान का कमिश्नर नियुक्त होकर उदयपुर से चला गया। उसकी जगह वाल्टर उदयपुर आया।

दिसम्बर, 1879 ई. – किशनगढ़ प्रस्थान :- किशनगढ़ के महाराजा पृथ्वीसिंह राठौड़ ने अपनी राजकुमारी (उदयपुर महारानी) व महाराणा सज्जनसिंह को अपने यहां आमंत्रित किया। महाराणा ने निमंत्रण स्वीकार कर उदयपुर से प्रस्थान किया।

मार्ग में बेमाली, आसींद, बदनोर, संग्रामगढ़ वगैरह ठिकानेदारों की मेहमानवाजी स्वीकार करते हुए 23 दिसम्बर को नसीराबाद पहुंचे, जहां महाराणा को खबर मिली कि महाराजा पृथ्वीसिंह बहुत बीमार हो गए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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