1875 ई. – ईडर में विवाह :- इन दिनों महाराणा सज्जनसिंह के लिए ईडर व जोधपुर दोनों राजघरानों से रिश्ते आए, जिनमें से ईडर वालों का प्रस्ताव स्वीकार किया गया।
ईडर के महाराजा केसरीसिंह राठौड़ ने अपनी बहन का विवाह प्रस्ताव महाराणा सज्जनसिंह के समक्ष रखा था, जो स्वीकार किया गया। 30 मई, 1875 ई. को गणपति स्थापना हुई। इसी दिन पुरोहित शिवराज ने महाराणा को उदयपुर में दावत दी।
महाराणा सज्जनसिंह के लिए पहले यह मन्नत मांगी गई थी कि चतुर्भुजनाथ के दर्शन के बाद ही महाराणा का विवाह करवाया जाएगा। महाराणा 1 जून को एकलिंगजी, राजनगर होते हुए 3 जून को गढ़बोर पहुंचे।
वहां मन्नत के अनुसार भेंट पूजन आदि करके 4 जून को पुनः राजनगर पहुंचे। 5 जून को कांकरोली पधारकर द्वारिकाधीश जी के दर्शन किए और फिर पलाणा पहुंचे। फिर चम्पाबाग में पड़ाव डालते हुए 7 जून को उदयपुर राजमहलों में आए।
कविराजा के घर दावत :- 12 जून, 1875 ई. को महाराणा सज्जनसिंह कविराजा श्यामलदास के मकान पर पधारे, जहां कविराजा ने महाराणा को दावत दी। महाराणा ने कविराजा को ताजीम व चांदी की छड़ी भेंट की।
महाराणा ने कविराजा को कागज़ों पर लगाने के लिए मुहर रखने का हुक्म दिया। मुहर पर यह दोहा खुदवाया गया :- महारान रघुवंश मनि, सज्जन पूरक आस। चरण शरण ते मुद्रिका, श्यामलदास प्रकास।।
महाराणा ने कविराजा को कहा कि जब तक तुम्हें कोई जागीर नहीं दी जाती, तब तक तुम्हें सवारी, लवाजमा और ख़र्च रियासत की तरफ से मिलेगा। फिर बागोर, करजाली, शिवरती, बेदला, देलवाड़ा, सरदारगढ़ आदि सरदारों ने भी महाराणा को दावतें दीं।
इनके अलावा महता गोकुलचंद, कोठारी बलवन्तसिंह, कायस्थ अर्जुनसिंह, राव बदनमल, साह जोरावरसिंह सुराणा, महता लालचंद, महता गोपालदास, कायस्थ प्राणनाथ, पुरोहित श्यामनाथ, धायभाई गणेशलाल, महासाणी रतनलाल, पुरोहित उदयलाल,
कायस्थ अक्षयचन्द, ढींकड्या तेजराम, पांडे किशोरराय, राय सोहनलाल, सेठ जोरावरमल आदि अहलकार व पासवानों ने भी दावतें दीं। 28 जून को महाराणा सज्जनसिंह का यज्ञोपवीत हुआ। 30 जून को वर निकासी हुई व बारात का पड़ाव गोवर्द्धनविलास में हुआ।
3 दिन वहीं ठहरने के बाद बारहपाल, परसाद, धुलेव, बिछीवाड़ा, समेरा, बिलाड़ा में पड़ाव डालते हुए 12 जुलाई को बारात ईडर पहुँची। साथ में खेरवाड़ा का फर्स्ट असिस्टेंट पोलिटिकल एजेंट मेजर केनिंग भी था। ईडर के महाराजा केसरीसिंह राठौड़ व महीकांठा के पोलिटिकल एजेंट ने आगे आकर महाराणा की पेशवाई की।
सायंकाल को लग्न के वक्त महाराणा सज्जनसिंह ईडर के राजमहलों में पधारे और महाराजा केसरीसिंह की बहन के साथ विवाह किया। 20 जुलाई को महाराणा ने महारानी संग ईडर से प्रस्थान किया व 28 जुलाई को गोवर्द्धनविलास के महलों में पहुंचे।
यह पूरा विवाह बड़ी ही धूमधाम से हुआ, लेकिन धुलेव, बिछीवाड़ा और बिलाड़ा में बारिश की वजह से बारातियों के ज़रदोजी, कमखाब और गोटा किनारी के कपड़े कीचड़ में ख़राब हो गए। 2 अगस्त, 1875 ई. को महाराणा सज्जनसिंह ने उदयपुर के राजमहलों में प्रवेश किया।
अर्जुनसिंह द्वारा इस्तीफा देना :- महता गोकुलचंद व कायस्थ अर्जुनसिंह महकमा खास विभाग में काम करते थे। अर्जुनसिंह ने मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट चार्ल्स हर्बर्ट के तेज तर्रार मिज़ाज को देखकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
चार्ल्स हर्बर्ट ने अजमेर से महता पन्नालाल को उदयपुर बुलाया। 4 सितम्बर को पन्नालाल को महाराणा के सामने हाजिर किया गया। 8 सितम्बर को पन्नालाल को अर्जुनसिंह के स्थान पर नियुक्त कर दिया गया।
सितम्बर, 1875 ई. – सोहनसिंह द्वारा मेवाड़ की गद्दी के लिए दावा :- बागोर के महाराज शेरसिंह का चौथा पुत्र सोहनसिंह, जो की अपने ही बड़े भाई समरथ सिंह द्वारा गोद लिया गया था, उसने मेवाड़ की गद्दी के लिए दावा किया।
मामला बढ़ जाने के कारण मेवाड़ की फौज व भील कोर के 273 सिपाही बागोर भेजे गए और सोहनसिंह को गिरफ्तार करके बनारस भेज दिया गया और उससे बागोर की जागीर ज़ब्त कर ली गई।
महाराणा का काव्य प्रेम :- कोटा के चारण फ़तहदान ने महाराणा सज्जनसिंह के पास 25 कवित्त लिखकर भेजे। एक कवित्त में लिखा था “पहुमी कसोटी हाटक सी रेख रान रावरे सुयश की”। इसे पढ़कर महाराणा ने कहलवाया कि “पहुमी के स्थान पर यदि ‘काश्यपि’ शब्द हो तो कसोटी के साथ वर्णमैत्री हो जाएगी”।
इस पर फ़तहदान ने लिखा कि “यदि महाराणा मुझे इन कवित्त के बदले पारितोषिक के रूप में 1 लाख पसाव भी देते, तो इतनी प्रसन्नता न होती, जितनी महाराणा द्वारा कविता सुधारने पर हुई है”
एक दिन महाराणा सज्जनसिंह बारहट किशनसिंह से बूंदी के इतिहास का ग्रंथ वंश भास्कर सुन रहे थे। तब किशनसिंह पढ़ते-पढ़ते रुक गए और बोले कि यहां चरण के कुछ अक्षर रह गए हैं, केवल इतना ही पाठ है कि “पहुमान रुक्कीय अक्क ढक्कीय ……… बिच्छुरे”
तब महाराणा कुछ सोचकर बोले “पहुमान रुक्कीय अक्क ढक्कीय चक्क चक्कीय बिच्छुरे….. ऐसा पाठ होगा इस चरण का”। (इतिहासकार ओझा जी को इस ग्रंथ की दूसरी प्रति जब प्राप्त हुई तब उसमें ठीक महाराणा द्वारा बतलाया हुआ पाठ ही मिला)
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)