मेवाड़ महाराणा शम्भूसिंह (भाग – 11)

रियासती प्रबन्ध :- 11 जून, 1871 ई. को महाराणा शम्भूसिंह ने कोठारी केसरीसिंह की निगरानी में कोठारी छगनलाल, महता गोपालदास, महता जालिमसिंह, कायस्थ राय सोहनलाल, कायस्थ मथुरादास, भंडारी केवलराम, ढींकडिया उदयराम, साह जोरावरसिंह सुराणा इन 8 लोगों को कारखानों का बंदोबस्त करने का आदेश दिया।

महाराणा शंभूसिंह की इच्छा थी कि मेवाड़ में लाटा व कूंता कर (टैक्स) प्रणालियों का खात्मा किया जावे और किसानों से ठेकाबन्दी होकर नकद रुपया मुकर्रर किया जावे। लेकिन मेवाड़ के अहलकार इस पक्ष में नहीं थे, इसलिए महाराणा ने अपनी मंशा कोठारी केसरीसिंह को बताई।

कोठारी केसरीसिंह ने अपनी अक्लमंदी से पिछले दस वर्षों का औसत निकालकर ठेका बांध दिया। कुछ मतलबी लोगों ने केसरीसिंह के काम में अड़चन डालने के प्रयास किए थे, लेकिन केसरीसिंह ने अपना काम कर दिया।

इन्हीं दिनों महाराणा के मामा बीकानेर के लालसिंह व उनके पुत्र डूंगरसिंह उदयपुर से बीकानेर की तरफ लौट गए।

महाराणा शम्भूसिंह

गढ़ी वालों की प्रतिष्ठा बढ़ाना :- 9 अगस्त को गढ़ी के जागीरदार रतनसिंह चौहान (महाराणा शम्भूसिंह के श्वसुर), जो इस वक्त उदयपुर में थे, उन्होंने महाराणा को दावत दी। महाराणा ने भी उनको राव की पदवी, ताजीम, बांहपसाव, पान का बीड़ा देकर प्रतिष्ठा बढ़ाई।

31 अक्टूबर को महाराणा शम्भूसिंह अपने सभी सरदार व जनाना समेत बदनमल्ल की हवेली पर पधारे व 5 दिन तक वहीं रहे। 23 नवम्बर को शाहपुरा के राजाधिराज नाहरसिंह लक्ष्मणसिंहोत के तलवार बंधी।

GCSI का ख़िताब :- 4 दिसम्बर को राजपूताने का ए.जी.जी. कर्नल ब्रुक उदयपुर आया। 6 दिसम्बर, 1871 ई. को शाम के वक्त उदयपुर महलों के चौक में दरबार हुआ। महाराणा चांदी के सिंहासन पर बिराजे। अंग्रेज अफसर व मेवाड़ के सरदार और अहलकार सादी कुर्सियों पर बैठे।

दरअसल इस दरबार से कुछ दिन पहले कर्नल ब्रुक ने अंग्रेज सरकार की तरफ से महाराणा शम्भूसिंह को GCSI (grand commander of the star of India) नाम का सबसे बड़ा ख़िताब अजमेर दरबार में दिए जाने की सूचना दी थी।

इस पर महाराणा ने कर्नल ब्रुक से कहा था कि “मेवाड़ के महाराणा प्राचीनकाल से ही हिंदुआ सूरज कहलाते हैं, इस लिए अब मुझे स्टार (तारा) बनने की जरूरत नहीं।”

बाद में गवर्नर जनरल लॉर्ड मेयो ने महाराणा को कहलवाया कि “हमारे यहां यह ख़िताब बराबरी वालों को दिया जाता है, इसमें आपकी अप्रतिष्ठा नहीं, बल्कि प्रतिष्ठा है।”

तब महाराणा ने गवर्नर जनरल को यह कहलवाया कि “अगर गवर्नमेंट अंग्रेजी की यही इच्छा है, तो यह तमगा हमें उदयपुर में ही दे दिया जावे, इसके लिए हम अजमेर नहीं आएंगे।”

6 दिसम्बर को उदयपुर में कर्नल ब्रुक ने बड़े सम्मान के साथ इस ख़िताब का तमगा व एक हीरों का हार महाराणा को पहनाया। इस अवसर पर कर्नल ब्रुक ने कपड़े के झंडे में लपेटकर महाराणा शम्भूसिंह को एक चिन्ह भेंट किया, जो उदयपुर का राजचिन्ह कहलाता है।

उदयपुर का राजचिह्न

इस चिन्ह के एक तरफ क्षत्रिय व एक तरफ भील है, जिनके बीच में सूर्य के आकार के ऊपर एकलिंगेश्वर की मूर्ति है और नीचे दोहे का पद है जिसमें लिखा है “जो दृढ़ रक्खे धर्म को, तिहिं रक्खे करतार”।

यह एक गलत धारणा है कि इस चिन्ह के एक तरफ झाला मान व दूसरी तरफ राणा पुंजा है। वास्तव में चिन्ह में क्षत्रिय व भील की मूर्तियां प्रतीकस्वरूप हैं, जो उनके घनिष्ठ संबंधों को दर्शाती हैं।

25 फरवरी, 1872 ई. को शिवरती के महाराज गजसिंह की पुत्री के विवाह के अवसर पर महाराणा शंभूसिंह उनकी हवेली पर हथलेवा छुड़ाने पधारे। 27 फरवरी 1872 ई. को कोठारी केसरीसिंह का देहांत हो गया।

लक्षचण्डी हवन :- 17 मई, 1872 ई. को महाराणा शम्भूसिंह ने लक्षचण्डी का हवन करवाया, जिसमें ब्रह्मचारी मथुरादास के कहने पर हज़ारों रुपया खर्च हुआ। फिर अन्य ब्राम्हणों ने दावा किया कि यह पूर्णाहुति, कुंड व मंडप शास्त्रों की विधि अनुसार नहीं हुए।

इस बहस में महाराणा ने कविराजा श्यामलदास को पंच बनाया। कविराजा ने जांच करवाकर कहा कि वास्तव में कुंड बनवाने में गलती हुई है। तब महाराणा ने शांति करवाई।

मथुरादास ने कर्मान्तरी अमृतराम का कुसूर दिखाने के लिए भाद्रपद पूर्णिमा के दिन महालय श्राद्ध करना अनुचित बताया। आखिरकार मथुरादास का दावा ख़ारिज हुआ।

महाराणा शम्भूसिंह

रूपाहेली और लांबा ठिकानों के आपसी विवाद :- बदनोर से निकले हुए 2 ठिकानों रूपाहेली और लांबा के सरदारों के बीच ज़मीनी विवाद हुआ। लांबा के बाघसिंह ने अपने बेटे की मौत का बदला लेने के लिए रूपाहेली वालों से तसवारिया गांव छीनना चाहा।

महाराणा शम्भूसिंह ने इस मामले की जांच करवाई और आदेश दिया कि तसवारिया गांव बाघसिंह को सौंप दिया जावे। महाराणा के आदेश की पालना न होने पर फ़ौजकशी का आदेश हुआ।

भीम पलटन, स्वरूप पलटन, शम्भू पलटन, 2 तोपें, रिसाला, देवगढ़, आसींद, बदनोर, भैंसरोड, शाहपुरा, भगवानपुरा, दौलतगढ़, संग्रामगढ़ ठिकानों की फ़ौजें, महता गोकुलचंद के नेतृत्व में जहाजपुर व मांडलगढ़ की फ़ौजें तसवारिया भेजी गई।

इस फ़ौज ने 15 मई, 1872 ई. को तसवारिया पर अधिकार कर लिया। तसवारिया सरदार की माता ने महाराणा को सेनाव्यय देकर प्रार्थना की कि ये गांव भले ही आप रख लेवें, लेकिन लांबा वालों को न देवें। महाराणा ने उनकी बात मानते हुए यह गांव स्वयं के नियंत्रण में ले लिया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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