29 अक्टूबर, 1870 ई. को महाराणा शम्भूसिंह राजराणा पृथ्वीसिंह के शिविर में पधारे, जहां राजराणा ने खातिरदारी में कोई कमी न रखी।
राजराणा ने चांदी के हौदे सहित एक हाथी, 2 घोड़े, 13 किश्तियाँ खिलअत, तलवार, ढाल, पेशकब्ज़, मोतियों की माला, सर्पेच आदि महाराणा को भेंट किए। 30 अक्टूबर, 1870 ई. को महाराणा शम्भूसिंह भिनाय के राजा मंगलसिंह के यहां पधारे, जहां महाराणा को फौज समेत दावत दी गई।
बांदनवाड़ा, बरल व रामपुरा में एक-एक दिन ठहरकर 3 नवम्बर, 1870 ई. को महाराणा शम्भूसिंह बदनोर पहुंचे, जहां के ठाकुर प्रतापसिंह मेड़तिया राठौड़ को महाराणा के आगमन की इतनी खुशी हुई कि मानो उनका जीवन सफल हो गया हो।
उन्होंने महाराणा की बहुत बढ़िया ख़ातिरदारी करते हुए 2 दिन तक फौज समेत दावत दी। ठाकुर प्रतापसिंह ने महाराणा को 1 हाथी, 2 घोड़े, पोशाक, ज़ेवर वगैरह नज़र किए। उन्होंने महाराणा के साथ आए हुए चारणों व पासवानों को भी कीमती खिलअत दिए।
5 नवम्बर को महाराणा शम्भूसिंह आसींद पहुंचे, जहां के रावत खुमाणसिंह चुंडावत ने महाराणा को 2 दिन तक फौज समेत दावत दी। 7 नवम्बर को महाराणा बेमाली पहुंचे, जहां के रावत लक्ष्मणसिंह ने महाराणा को फौज समेत दावत दी।
9 नवम्बर को रवाना होकर मांडल, भीलवाड़ा, हमीरगढ़, गंगार में पड़ाव डालते हुए महाराणा शम्भूसिंह 13 नवम्बर को चित्तौड़गढ़ की तलहटी में पधारे। 17 नवम्बर को महाराणा के मामा महाराज लालसिंह बीकानेर से आए, जिनसे चित्तौड़गढ़ में मुलाकात हुई।
महाराज शक्तिसिंह ने महाराणा के विरुद्ध जाते हए बागोर की गद्दी के लिए दावा किया था, जिस वजह से महाराणा शम्भूसिंह उनसे नाराज़ थे। लेकिन चित्तौड़गढ़ में महाराज शक्तिसिंह ने महाराणा के सामने हाजिर होकर नज़र दिखलाई, जिससे महाराणा की नाराजगी दूर हो गई।
24 नवम्बर को महाराणा ने चित्तौड़गढ़ से प्रस्थान किया। सींगपुर, मातृकुंडिया व खांखला होते हुए 29 नवम्बर को सरदारगढ़ पहुंचे, जहां ठाकुर मनोहरसिंह डोडिया ने दावत दी। 30 नवम्बर को सियाणा में पड़ाव डालते हुए 1 दिसम्बर को महाराणा गढ़बोर पहुंचे।
वहां चारभुजा जी की पूजा करने के बाद 3 दिसम्बर को कुम्भलगढ़ दुर्ग में प्रवेश किया। किले को अच्छी तरह देखने के बाद 4 दिसम्बर को पुनः गढ़बोर पधारे। फिर देसूरी की नाल, खरणोटा व केलवा में पड़ाव डालते हुए 8 दिसम्बर को राजनगर पहुंचे।
महाराणा ने 9 दिसम्बर को राजसमंद झील किनारे अपना जन्मोत्सव मनाया। फिर कांकरोली द्वारकाधीश जी के दर्शन करके राजसमन्द झील का भ्रमण किया। 13 दिसम्बर को नाथद्वारा में पड़ाव हुआ। नाथद्वारा में गोवर्धननाथ की पूजा की।
16 दिसम्बर को कोठारिया में पड़ाव हुआ। फिर कैलाशपुरी में एकलिंगनाथ जी के दर्शन करते हुए महाराणा शम्भूसिंह 18 दिसम्बर को गोवर्धनविलास में पहुंचे।
गोवर्धनविलास में ज्योतिषियों ने खराब समय बताते हुए महाराणा से कहा कि आपको उचित समय आने पर ही उदयपुर महलों में प्रवेश करना चाहिए। महाराणा एक महीने तक गोवर्धनविलास में ही रुके। 16 जनवरी, 1871 ई. को शुभमुहूर्त में महाराणा शम्भूसिंह ने उदयपुर राजमहलों में प्रवेश किया।
1871 ई. – नाथद्वारा गोस्वामी की बग़ावत :- नाथद्वारा के गोस्वामी ने सारे एहसानों को भुलाकर महाराणा की बर्ख़िलाफी की, जिस वजह से महाराणा शम्भूसिंह ने एक फौज रवाना की। लेकिन फिर भी इस झगड़े का कोई सार नहीं निकला, तो महाराणा ने उसके कुछ गांव ज़ब्त कर लिए।
कोटा के महाराव का उदयपुर आगमन :- 22 फरवरी, 1871 ई. को कोटा के महाराव शत्रुसाल हाड़ा विवाह करने हेतु ईडर जा रहे थे, तब मार्ग में उदयपुर में रुके। उनके सम्मान में उदयपुर तोपखाने से 17 तोपों की सलामी सर हुई।
3 दिन तक मेवाड़ की तरफ से बढ़िया खातिरदारी की गई। 25 फरवरी को महाराव शत्रुशाल ईडर की तरफ लौट गए। इस वक्त महाराणा ने कोटा महाराव की फ़ौज के लिए मार्ग में भोजन हेतु रसद उपलब्ध करवाई।
कविराजा श्यामलदास की चतुरता :- महाराणा शम्भूसिंह कान के कच्चे थे। ईर्ष्यालु मुंहचढे लोगों ने महाराणा को सलाह दी कि आपका विचार तीर्थयात्रा करने का है, इस ख़ातिर जो व्यय होवे वो अहलकारों से वसूल कर लिया जाना चाहिए।
महाराणा उनकी बातों में आ गए और उन्होंने कोठारी केसरीसिंह और छगनलाल से 3 लाख रुपए और मेहता पन्नालाल से 1 लाख 20 हजार रुपए का रुक्का लिखवा दिया।
तब कविराजा श्यामलदास ने एक दिन गुलाबबाग में महाराणा शम्भूसिंह को एक हिंदी कविताओं की किताब देते हुए कहा कि इसमें कवित्व काफी अच्छे हैं। कविराजा ने उस किताब में एक पन्ना अलग से डाल दिया था।
उसमें लिखा था कि आपको इन ईर्ष्यालु लोगों की बातों में आकर राज्य के सच्चे हितैषियों से इस तरह वसूली नहीं करनी चाहिए। महाराणा ने कविराजा की बात ली और कविराजा को एकतरफा ले जाकर कहा कि तुम मौके पर ऐसी बातें बेख़ौफ़ होकर कह दिया करो।
महंत हिम्मतराम का उदयपुर आगमन :- 25 जून, 1871 ई. को शाहपुरा के रामस्नेही पंथ के साधु महंत हिम्मतराम का उदयपुर आना हुआ, तो महाराणा शम्भूसिंह उनकी पेशवाई के लिए भुवाणा तक पधारे और उनको नवलखा बाग़ के महलों में ठहराया।
अफीम का कांटा कायम करना :- महाराणा शंभूसिंह ने उदयपुर में अफीम का कांटा भी कायम कर दिया। समस्त उदयपुर की अफीम उदयपुर में आती थी, फिर यहां से खेरवाड़ा के रास्ते अहमदाबाद जाने लगी। इस बन्दोबस्त में महता पन्नालाल ने अच्छे प्रयास किए थे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)