मेवाड़ महाराणा शम्भूसिंह (भाग – 9)

22 अक्टूबर, 1870 ई. को अजमेर में लॉर्ड मेयो का दरबार हुआ। फिर शाम के वक्त गवर्नर जनरल लॉर्ड मेयो हाथी पर सवार होकर महाराणा शम्भूसिंह से मिलने उनके शिविर की तरफ आया।

शिविर से कुछ दूर हाथी से उतरकर पैदल चलते हुए बड़ी नरमी के साथ टोपी उतारकर महाराणा को सलाम किया। शिविर में दाईं ओर लॉर्ड मेयो चांदी की कुर्सी पर व बाईं तरफ ठीक वैसी ही कुर्सी पर महाराणा बिराजे। अन्य सरदार व अफ़सर लोग 55 सादी कुर्सियों पर बैठे।

महाराणा ने अंग्रेजी में लॉर्ड मेयो से बातचीत की। लॉर्ड मेयो ने कहा कि “अजमेर में मेरे आने का मुख्य उद्देश्य खास आपसे मुलाकात करने का ही था।” फिर लॉर्ड मेयो ने जोधपुर महाराजा के अलावा सभी राजाओं से मुलाकात की, क्योंकि जोधपुर महाराजा अजमेर आने के बावजूद दरबार में शामिल नहीं हुए थे।

जोधपुर महाराजा की महाराणा से मुलाकात :- रात को साढ़े दस बजे जोधपुर महाराजा तख्तसिंह अचानक अपने 3-4 आदमियों के साथ महाराणा से मिलने उनके डेरे में पहुंचे। महाराणा ने भी आनन-फानन में दौड़कर महाराजा की पेशवाई की।

जोधपुर महाराजा तख्तसिंह राठौड़

फिर दोनों ने पलंग पर बैठकर बातचीत की। महाराजा तख्तसिंह ने महाराणा से कहा कि “मैं यहां इसलिए आया हूँ ताकि कोई मौकापरस्त व्यक्ति आपके और मेरे बीच रंज पैदा न कर दे। मेरे दरबार से चले जाने का कारण आपका मुझसे ऊंचे दर्जे पर बिराजना बिल्कुल नहीं है।

मैं (महाराजा तख्तसिंह) इसलिए दरबार छोड़कर गया क्योंकि आपके और मेरे बीच पॉलिटिकल एजेंट का बैठना तय हो गया था। पोलिटिकल एजेंट का अपने से आगे बैठना मैं बेअदबी समझता हूँ। इस ख़ातिर आप अपने मन में किसी प्रकार का कोई रंज न रखियेगा।”

फिर महाराणा बग्घी में सवार होकर जोधपुर महाराजा के साथ जोधपुर वालों के शिविर में गए। फिर कुछ समय बाद महाराणा लौट आए। ये इन दोनों शासकों की अंतिम मुलाकात थी। 24 अक्टूबर, 1870 ई. को लॉर्ड मेयो अजमेर से जयपुर की तरफ रवाना हो गया।

25 अक्टूबर, 1870 ई. को किशनगढ़ के महाराजा पृथ्वीसिंह राठौड़ अपने 2 पुत्रों शार्दूलसिंह व जवानसिंह सहित महाराणा शम्भूसिंह से मिलने आये, तो महाराणा ने उनको अपनी बाई तरफ गद्दी पर बिठाया व उनके दोनों पुत्र गद्दी से नीचे बैठे।

उस ज़माने में बैठक व्यवस्था का काफी ध्यान रखा जाता था, जिसमें जरा भी भूल-चूक राजाओं के आपसी रिश्ते खराब कर सकती थी। इस वक्त यदि कृष्णगढ़ महाराजा के ज्येष्ठ पुत्र अकेले मिलने आते, तो जरूर वे महाराणा की गद्दी के बाईं तरफ बैठ सकते थे, लेकिन वे अपने पिता के साथ आये इसलिए ज्येष्ठ पुत्र की बैठक भी पिता की गद्दी के बराबर न होकर नीचे थी।

महाराणा शम्भूसिंह

किशनगढ़ के सभी सरदारों ने महाराणा को नज़रें दिखलाई। फिर महाराणा भी किशनगढ़ महाराजा के शिविर में गए, जहां फिर से किशनगढ़ के सरदारों ने महाराणा को नज़रें दिखलाई।

26 अक्टूबर को राजपूताने के ए.जी.जी. कर्नल ब्रुक व मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट कर्नल निक्सन ने महाराणा के शिविर में आकर मुलाकात की। रात के वक्त किशनगढ़ महाराजा पृथ्वीसिंह अपने दोनों पुत्रों सहित पुनः महाराणा के शिविर में आए और भोजन करने के बाद लौट गए।

27 अक्टूबर, 1870 ई. को जयपुर महाराजा रामसिंह कछवाहा की तरफ से गीजगढ़ के जुझारसिंह चांपावत व एक अहलकार महाराणा शम्भूसिंह के लिए गद्दीनशीनी का दस्तूर लेकर हाजिर हुए। जयपुर महाराजा की तरफ से 1 हाथी, 4 घोड़े, खिलअत आदि महाराणा को भेंट किए गए।

इसी दिन बग्घी में सवार होकर महाराणा शम्भूसिंह ने तारघर व गवर्मेंट स्कूल का दौरा किया, जहां स्कूल के बच्चों को इनाम वगैरह दिए। फिर कर्नल ब्रुक के बंगले पर मुलाकात के बाद अपने शिविर में लौट आए।

28 अक्टूबर, 1870 ई. को महाराणा शम्भूसिंह ने तीर्थनगरी पुष्कर में स्नान करके वहां चांदी का तुलादान, गजदान व अश्वदान किया। फिर अजमेर से रवाना होकर नसीराबाद छावनी में पधारे, जहां 19 तोपों की सलामी सर हुई।

29 अक्टूबर, 1870 ई. – राजराणा पृथ्वीसिंह पर महाराणा की कृपा :- 1838 ई. में अंग्रेज सरकार ने राजराणा जालिमसिंह झाला के वंशज मदनसिंह को कोटा से 17 परगने दिलवाकर झालावाड़ का अलग राजा बनाया था, जिसे राजपूताने के किसी भी राजा ने राजा नहीं माना।

मदनसिंह के पुत्र पृथ्वीसिंह झाला ने भी इस दरबार में भाग लिया था। पृथ्वीसिंह झाला को राजपूताने के राजा अपनी बराबरी का न मानकर बैठक में उचित स्थान नहीं देते थे। मेवाड़ महाराणाओं का बड़प्पन हिंदुस्तान भर में मशहूर रहा है।

महाराणा शम्भूसिंह

पृथ्वीसिंह झाला ने विचार किया कि अगर मुझको राजपूताने में उचित स्थान हासिल करना है, तो महाराणा से ही भेंट करनी होगी। हाड़ौती के पोलिटिकल एजेंट ने इस बारे में मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट से बात की और महाराणा से भेंट करवाने की सिफारिश की।

महाराणा शम्भूसिंह ने पृथ्वीसिंह झाला से भेंट करने की विनती स्वीकार कर ली। महाराणा ने राजराणा पृथ्वीसिंह से नसीराबाद में भेंट की और उन्हें अपनी बाईं तरफ गद्दी पर बिठाया तथा मोरछल, चंवर आदि रखने की इजाजत दी।

इत्र, पान आदि दस्तूर होने के बाद महाराणा ने विदाई के वक्त राजराणा को 1 हाथी, 2 घोड़े, 13 किश्तियाँ खिलअत, ज़ेवर आदि भेंट किए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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