मेवाड़ महाराणा शम्भूसिंह (भाग – 6)

1868-69 ई. – मेवाड़ में भीषण अकाल :- 1868 ई. में समूचे राजपूताने में बड़ा भारी अकाल पड़ा। इस अकाल को ‘त्रिकाल’ कहा जाता है, क्योंकि इसमें 3 महत्वपूर्ण चीजों की कमी पड़ गई :- अन्न, चारा व पानी।

महाराणा शम्भूसिंह के आदेश से कोठारी केसरीसिंह ने सभी व्यापारियों से कहा कि आप बाहर से अनाज वगैरह मंगवाओ, आपको राजकोष से सहायता मिल जाएगी। व्यापारियों ने लाखों रुपए का अनाज मंगवा लिया।

लेकिन अकाल बड़ा व्यापक था और इस अकाल ने 1869 ई. की शुरुआत में उग्र रूप धारण कर लिया। राजपूताने की अन्य रियासतों से भी अकाल से पीड़ित हज़ारों लोग मेवाड़ में आ गए।

महाराणा शम्भूसिंह ने इंदौर से 20 हज़ार, ईडर से 15 हज़ार, सेठ चांदनमल्ल के ज़रिए 25 हज़ार, मगरा के हाकिम के ज़रिए 25 हज़ार, खेमराज हुक्मीचंद से 10 हज़ार, हैदर हिप्तुल्लाह व ईसा ताज खां से 24500, इब्राहिम से 11 हज़ार रुपए का अनाज मंगवाया।

महाराणा शम्भूसिंह

इसके अलावा महाराणा ने रसूल बोहरा से 4 हज़ार, रामनारायण मूंदड़ा से 5 हज़ार, धनराज चौधरी से 5 हज़ार, उदयपुर शहर के व्यापारियों से 1,05,500 रुपए का अनाज मंगवाया। ये अनाज उन गरीबों के लिए था, जो काम करने में सक्षम नहीं थे।

इसके अलावा 2 लाख रुपए उन लोगों पर ख़र्च किए, जो मज़दूरी करके अपना पेट भर सके। इसके अलावा 25 हज़ार रुपए का अनाज बहुत ही सस्ते भाव में उन गरीबों को बेचा गया, जो मांगकर भोजन करना इज़्ज़त के बर्खिलाफ़ समझते थे।

गरीबों के लिए महाराणा ने सारंगदेवोत राजपूतों की कानोड़ की हवेली में एक खैरातखाना खोल दिया, जिससे हज़ारों लोगों की जान बच गई।

यहां एक धोबा भरकर (जितना दोनों हाथों में आ सके) बाकली (पानी में पकाई हुई मक्की) और एक धोबा भूंगड़े (भुने हुए चने) जो मांगे, उसको दिया जाने लगा। इस कार्य हेतु वहां महता मोतीराम के पुत्र फूलचंद को नियुक्त किया गया।

कानोड़ के महल

महाराणा की सलाह के अनुसार बहुत से सरदारों ने अपने यहां खैरातखाने खोले। भीलवाड़ा, चित्तौड़, कपासन के साहूकारों ने भी खैरातखाने खोले। देवली की छावनी में भी एक ख़ैरातखाना खोला गया, जिसके लिए महाराणा शम्भूसिंह ने 1 हज़ार रुपए दिए।

बेदला के राव बख्तसिंह चौहान ने उदयपुर के रास्ते पर खैरातखाना खोल दिया। शिवरती के महाराज गजसिंह ने भी खैरातखाना खोल दिया। अकाल की भारी मार के साथ ही उदयपुर में हैजा का रोग फैल गया और हर गली में हाहाकार मच गया।

हर दिन उदयपुर में करीब 200 लोग मरने लगे। लोग अपने संबंधी रोगियों को घरों में छोड़कर चले गए, लाशों को जलाने वाला भी कोई न था, जिस वजह से कोतवाल लाशों को गाड़ियों में भरकर एक साथ जलवा देता था।

कविराजा श्यामलदास लिखते हैं “रात के वक़्त मैं मकान की छत से देखता तो श्मशानों की आग से पहाड़ों के दामन तक रोशनी दिखाई पड़ती थी। इन दिनों मेरे भाई वृजलाल और अठाणा के रावत दूलहसिंह का इन्तिक़ाल हो गया।

मैं (श्यामलदास) ने अठाणा में लड्डू और रोटियां बांटी, तो उन लोगों का हाल ऐसा था कि उनमें से एक आदमी के मुंह में एक निवाला और दूसरा निवाला हाथ में था कि उसकी जान निकल गई। बहुत से लोग रात को सोते और सुबह उठते ही नहीं। ईश्वर ऐसे दिन किसी को न दिखाए।”

बाग-बगीचे, कुंए, बावड़ियां वगैरह सब सूख गए। पिछोला झील में भी पानी इतना कम रह गया था कि महाराणा शम्भूसिंह को जगनिवास से ब्रह्मपुरी की तरफ नाव की बजाय बग्घी में सवार होकर जाना पड़ता था।

अंतिम संस्कार के बाद स्नान करने के लिए पिछोला किनारे आने वाले लोगों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई कि हर तरफ चीत्कार ही सुनाई पड़ती थी। लोगों के पीने के लिए एकमात्र पिछोला ही रह गई थी, जहां से हर दिन कई लोग पीने का पानी लेकर जाने लगे।

पिछोला झील

मेवाड़ की प्रजा ने उदयपुर राजमहलों के बाहर आकर महाराणा शम्भूसिंह से निवेदन किया कि “आप 5-10 कोस दूर पधार जावें।” महाराणा शम्भूसिंह ने जवाब दिया कि “हम अपनी प्रजा को इस क़दर तकलीफ़ में देखकर कहीं नहीं जाएंगे।”

अकाल के बाद 1869 ई. में ही मेवाड़ में अच्छी बारिश हुई, जिससे मक्का, ज्वार आदि फसलें उगने लगीं। भूख के मारे लोगों की आँतड़ियां सूख गई थीं। इस हालत में उन्होंने कच्चा अनाज ही खाना शुरू कर दिया। पेट भर कच्चा अनाज खाने से हैजा का रोग ज्यादा फैल गया और हज़ारों लोग मर गए।

महाराणा शम्भूसिंह ने अनाज का महसूल माफ़ कर दिया और जिन व्यापारियों ने अकाल के समय में राहत कार्य किए थे, उनका आधा या एक चौथाई महसूल सदा के लिए माफ़ कर दिया।

इन्हीं दिनों अंग्रेज सरकार द्वारा नीमच से नसीराबाद तक सड़क बनवाने का कार्य प्रारंभ किया गया। महाराणा ने इस सड़क के मेवाड़ वाले हिस्से को स्वयं बनवाना चाहा। महाराणा ने मेवाड़ के ही लोगों को काम पर लगाया, ताकि उन्हें रोजगार मिल सके।

इसके अतिरिक्त महाराणा ने जगह-जगह इमारतें वगैरह बनाने का काम सौंपकर लोगों की हरसंभव मदद की। इमारतों के काम में 2 लाख रुपए खर्च हुए। इस अकाल के समय में उदयपुर में करीब 11 लाख 63 हजार लोगों को खाना खिलाया गया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

error: Content is protected !!