13 अक्टूबर, 1861 ई. – उत्तराधिकारी नियुक्त करना :- महाराणा स्वरूपसिंह की बीमारी हर दिन बढ़ती जा रही थी। इस समय तक महाराणा का कोई पुत्र नहीं था, जिस वजह से उन्होंने शम्भूसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। शम्भूसिंह महाराणा स्वरूपसिंह के भाई शेरसिंह के पौत्र व शार्दूलसिंह के पुत्र थे।
एकलिंग जी मंदिर का प्रबंध अपने हाथ में लेना :- महाराणा स्वरूपसिंह ने एकलिंग जी के मंदिर का प्रबंध अपने हाथ में लेकर वहां के गोसाई जी का मासिक वेतन तय कर दिया और एकलिंग जी का भंडार अलग कायम किया, जिसमें 6 लाख रुपए जमा हो गए।
1861 ई. – महाराणा स्वरूपसिंह का देहांत :- महाराणा स्वरूपसिंह के घुटनों की बीमारी काफी बढ़ चुकी थी, पैरों का मांस सूखकर केवल हड्डियां रह गई थीं। जून, 1861 ई. में हकीम अशरफअली की सलाह से महाराणा के घुटने पर तेजाब की पट्टी रखी गई, जिसका उल्टा असर हो गया और महाराणा को तेज बुखार हो गया।
महाराणा जीवन से निराश होकर गो-सेवा करने हेतु गोवर्द्धन विलास स्थित गौशाला में चले गए, लेकिन रोग दिन-दिन बढ़ता ही रहा। अगस्त माह में महाराणा की दशा ऐसी हो गई कि करवट तक स्वयं नहीं बदल सकते थे। फिर महाराणा ने नागर वैद्य को बुलाया और उससे पूछा कि मेरा अंतिम समय लगभग कब आने वाला है।
नागर वैद्य ने बताया कि कार्तिक पूर्णिमा (17 नवम्बर) या मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी को आपका अंतिम दिन होगा। 14 नवम्बर के दिन महाराणा स्वरूपसिंह ने गंगाजल, भस्म, रुद्राक्ष आदि सामग्री एकत्र कराई और गोशाला में पधारे, जहां उन्होंने 3 रात्रि तक अजपा मंत्र का बड़ी सावधानी से जाप किया।
महाराणा के गोशाला पधारने से लेकर अंतिम समय तक रामायण का पाठ होता रहा। महाराणा ने अपने अंतिम समय में काका दलसिंह, बेदला के राव बख्तसिंह चौहान, देलवाड़ा के राज फतहसिंह आदि को अपने हाथों से पान का बीड़ा दिया।
महाराणा स्वरूपसिंह अपनी अंतिम श्वास तक पूरे होश में थे और अपनी अंतिम क्रिया के निर्देश भी देते जा रहे थे। इस वक्त महाराणा के चारों तरफ गायें खड़ी थीं। महाराणा के आदेश से गोबर, गौमूत्र और गंगाजल उनके शरीर पर मला गया और फिर गंगाजल से स्नान करवाया गया।
फिर महाराणा स्वरूपसिंह आसन पर बिराजे और वहीं कार्तिक पूर्णिमा (17 नवम्बर) को महाराणा का देहांत हो गया। हालांकि सती प्रथा पर इस समय रोक थी, फिर भी महाराणा की पासवान ऐजाबाई उनके साथ सती होने के लिए आगे आई।
महाराणा के कुछ सामंतों ने भी उसका समर्थन किया। महाराणा की अंतिम सवारी गोवर्द्धन विलास से कृष्णपोल दरवाज़े होकर भटियाणी चौहटे होती हुई जगन्नाथराय के मन्दिर तक पहुंची। इस मंदिर पर रीति अनुसार भेंट दण्डवत करके यह सवारी बाज़ार के रास्ते से दिल्ली दरवाज़े होते हुए आहड़ गांव के महासतिया नामक स्थान पर पहुंची।
महाराणा का पार्थिव शरीर रथ में बिठाकर आहाड़ ले जाया गया। इस समय सामंतों से लेकर प्रजा तक सब लोग पैदल चल रहे थे, पर ऐजाबाई को विशेष सम्मान दिया गया और उनको घोड़े पर बिठाया गया। जैसे-जैसे सवारी आगे बढ़ती जाती, ऐजाबाई अपने आभूषणों को प्रमुख मंदिरों पर भेंट स्वरूप रखती जाती।
महासतिया पहुंचकर ऐजाबाई महाराणा स्वरूपसिंह के साथ सती हो गईं। मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेंट मेजर टेलर को इस घटना की खबर मिली, तो वह बड़ा क्रोधित हुआ और उसने कहा कि “महाराणा खुद चाहते थे कि उनके साथ कोई सती ना हो, ये काम महाराणा की इच्छा के विरुद्ध हुआ है।”
मामला बिगड़ता देखकर ऐजाबाई का समर्थन करने वाले आसीन्द के रावत उदयपुर छोड़कर अपने ठिकाने में चले गए और महता गोपालदास को कोठारिया में शरण लेनी पड़ी, क्योंकि ऐजाबाई गोपालदास की एक दासी की पुत्री थी।
महाराणा स्वरूपसिंह द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य :- गोवर्धन विलास महल, गोवर्धन सागर तालाब, पशुपतेश्वर महादेव मंदिर, स्वरूप बिहारी मंदिर, जगत शिरोमणि मंदिर, जवान सूरज बिहारी मंदिर (बांकड़े बिहारी मंदिर)
विजय स्तंभ की मरम्मत :- महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित प्रसिद्ध विजय स्तंभ पर बिजली गिरने के कारण उसकी ऊपर की छतरी टूट गई थी। महाराणा स्वरूपसिंह ने इसकी मरम्मत करवाई, लेकिन महाराणा ने किसी मंदिर का गुम्बज उखड़वाकर उसी से छतरी का गुम्बज बनवाया।
महाराणा चाहते थे कि विजय स्तम्भ का ऊपरी हिस्सा भी प्राचीन रहना चाहिए जिस वजह से यह कदम उठाना पड़ा, लेकिन इससे पहले के और बाद के स्वरुप में और अंतर पड़ गया।
महाराणा स्वरूपसिंह की रानियां :- इन महाराणा की 4 रानियां थीं :- (1) महारानी गुलाबकंवर राठौड़, जो कि राघवगढ़ के गुमानसिंह राठौड़ की पुत्री थीं। (2) रानी फूलकंवर चावड़ी, जो कि वरसोड़ा के जालिमसिंह चावड़ा की पुत्री थीं। यह विवाह 29 नवम्बर, 1841 ई. को हुआ।
(3) रानी चाँदकंवर भटियाणी, जो कि बीसलपुर के साहिब सिंह भाटी की पुत्री थीं। यह विवाह देलवाड़ा की हवेली में हुआ। (4) रानी अभयकंवर मेड़तणी, जो कि घाणेराव के ठाकुर अजीतसिंह राठौड़ की पुत्री थीं। यह विवाह 25 जून, 1844 ई. को हुआ।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)