बड़गूजरों और कछवाहों के शौर्य का प्रतीक – काँकवाड़ी किला (राजगढ़ तहसील – अलवर) :- आसावरी और कावेरी नामक दो पहाड़ियों के बीच सीना ताने खड़ा कांकवाड़ी दुर्ग सरिस्का गेट से अंदर घने जंगलों में 23 किलोमीटर चलने के बाद नज़र आता है।
दुर्ग के चारों ओर खजूर के पेड़ बहुतायत में पाए जाते हैं। कांकवाड़ी दुर्ग वन दुर्ग की श्रेणी में आता है। सरिस्का टाइगर रिजर्व में स्थित काँकवाड़ी किले का निर्माण बड़गूजर-कछवाह संघर्ष के दौरान राजौरगढ़ के शासक राजा अजयपालदेव बड़गूजर (1035 ई.-1090 ई.) ने सीमा सुरक्षा की दृष्टि से राजौरगढ़ की सीमा पर 1042 ई. से 1044 ई. के बीच करवाया था।
यह किला काँकवाड़ी गाँव में बनने के कारण ही काँकवाड़ी किला कहलाया। राजा अजयपालदेव बड़गूजर ने कछवाहों के साथ चले युद्ध में अधिकांश इलाके वापस जीत लिए, जो उनके पिता राजा जतनदेव बड़गूजर के समय राजा दुल्हराय कछवाह ने जीते थे।
निर्माण के बाद यह किला बड़गूजर सामन्तों के अधिकार में रहा जो किलेदार की हैसियत से इस पर नियंत्रण रखा करते थे। राजा अजयपालदेव बड़गूजर ने अपने पुत्र महाराजकुमार जयंतपालदेव बड़गूजर को सबसे पहले काँकवाड़ी का किलेदार नियुक्त किया।
महाराजकुमार जयंतपालदेव बड़गूजर ने 1045 ई. से 1062 ई. (लगभग 17 वर्षों) तक यहाँ किलेदारी की। किलेदारी के दौरान ही महाराजकुमार जयंतपालदेव बड़गूजर ने अपनी पुत्री हरसुखदे कंवर का विवाह आमेर शासक राजा जान्हड़देव कछवाह (1053 ई.-1070 ई.) से करवाया था।
कछवाह इतिहास में महाराजकुमार जयंतपालदेव बड़गूजर को जैताराम लिखा है और इनकी पुत्री का विवाह राजा जान्हड़देव कछवाह के स्थान पर राजा हणुदेव कछवाह के साथ होना लिखा है, लेकिन यह जानकारी गलत मालूम होती है, क्योंकि बड़गूजर ख्यातों और बड़वो की पोथियों के साथ कुछ कछवाह लेखकों ने भी यह विवाह राजा जान्हड़देव के साथ ही होना स्वीकारा है।
कुछ समय बाद महाराजकुमार जयंतपालदेव बड़गूजर देवती किले में रहने लगे। उन्होंने यह किला राजा अजयपालदेव की आज्ञा लेकर माचेड़ी के राजाओं को सौंप दिया, लेकिन बाद के बड़गूजर राजाओं ने समय-समय पर राजनीतिक बदलाव के चलते किले को कभी देवती के बड़गूजरों तो कभी माचेड़ी के राजाओं को सौंपा है।
माचेड़ी पर उस समय राजा दाहड़राज बड़गूजर (1057 ई.-1070 ई.) का शासन था। इन राजा के समय ही काँकवाड़ी की 2 शाखाएं (कोलासर और तितरवाड़ा) निकली, जिनके मुखिया ठा. सदाराम बड़गूजर (1065 ई.-1094 ई.) थे।
ठा. सदाराम बड़गूजर ही राजा दाहड़राज के प्रतिनिधि के तौर पर काँकवाड़ी किले में तैनात रहते थे। ठा. सदाराम बड़गूजर बड़े वीर और साहसी सिद्ध हुए। इन्होंने अपने जीवनकाल में माचेड़ी के 2 राजाओं (राजा दाहड़राज और राजा सुन्हड़देव) की सेवा की थी।
सुल्तान इब्राहिम के साथ हुए युद्ध में चौहान शासक राजा दुर्लभराज तृतीय की सहायता के लिए जो सेना राजा अजयपालदेव बड़गूजर ने भेजी थी, उसमें काँकवाड़ी किलेदार ठा. सदाराम बड़गूजर भी शामिल थे।
यही स्थिति चौहान शासक विग्रहराज तृतीय और सुल्तान साहबदीन के समय थी। ठा. सदाराम बड़गूजर ने दोनों ही युद्धों में अभूतपूर्व शौर्य का परिचय देकर तुर्कों के दांत खट्टे किये थे।
आमेर शासक पजवनदेव कछवाह (1070 ई.-1094 ई.) की एक रानी प्रभावती बड़गूजर, काँकवाड़ी के ही किलेदार ठा. सदाराम बड़गूजर की पुत्री थी। हालांकि कछवाह इतिहास में रानी प्रभावती बड़गूजर के पिता का नाम नहीं दिया गया है।
लेकिन बड़गूजर इतिहास में ठा. सदाराम बड़गूजर की पुत्री का विवाह राजा पजवनदेव कछवाह के साथ होना लिखा है, जिसे कई कछवाह इतिहासकारों ने स्वीकारा है। ठा. सदाराम बड़गूजर की मृत्यु शाकम्भरी के चौहानों की सहायता करते समय किसी युद्ध अभियान में हुई थी।
इसके बाद भी इस किले पर माचेड़ी के बड़गूजर राजाओं का अधिकार रहा। राजा धारूदेव के समय इस किले को लेकर कोई खास घटना नहीं घटी। राजा दोपाड़देव बड़गूजर (1120 ई.-1135 ई.) के समय काँकवाड़ी किला राजनैतिक घटनाओं के केंद्र में रहा।
नागौर पर तुर्कों का आधिपत्य स्थापित होने के साथ ही चौहानों और तुर्कों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। जिसमें राजा दोपाड़देव बड़गूजर ने चौहानों का साथ दिया। जिसका एक बड़ा खामियाजा उन्हें अपने ऊपर आक्रमण के रुप में भुगतना पड़ा।
इस दौरान काँकवाड़ी किले ने बड़गूजर राजपरिवार के लोगों को काफी सुरक्षा प्रदान की। मोहम्मद बाल्हीम और सालार हुसैन दोनों के साथ संघर्ष की शुरुआत में ही राजा दोपाड़देव बड़गूजर ने राजपरिवार के लोगों को माचेड़ी किले से निकालकर काँकवाड़ी किले में सुरक्षित पहुँचाया था।
काँकवाड़ी किले की तलहटी (काँकवाड़ी गांव) से एक पथरीला रास्ता राजौरगढ़ के नीलकंठ महादेव मंदिर परिसर तक जाता है। इस पथरीले मार्ग की पुष्टि डॉ. मोहनलाल गुप्ता ने अपनी किताब ‘जयपुर संभाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन’ में भी की है।
इसी पथरीले मार्ग से माचेड़ी राजपरिवार को राजौरगढ़ किले तक पहुँचाया जा सका। डॉ. मोहनलाल गुप्ता ने अपनी यात्रा के दौरान काँकवाड़ी किले और राजौरगढ़ किले को जोड़ने वाले पथरीले मार्ग पर बड़ी मात्रा में खून के छींटे देखे थे।
राजा दोपाड़देव का पूरा जीवन तुर्कों के साथ संघर्ष में बीता, लेकिन शासनकाल के अंतिम वर्षों में राजा दोपाड़देव ने स्थिति को काफी हद तक सम्भाल लिया और माचेड़ी ने पुनः प्रतिष्ठा प्राप्त की।
राजा बाघराज द्वितीय (1135 ई.-1153 ई.) का प्रारंभिक जीवन काँकवाड़ी किले में ही बीता और यहीं से कुछ समय तक राजकाज के कार्य किए गए। राजगढ़ किले के निर्माण (1151 ई.) के साथ ही राजा बाघराज द्वितीय ने काँकवाड़ी किले को अपने आंठवें पुत्र कुँवर काँकलराज को सौंप दिया।
कुँवर काँकलराज बड़गूजर 1151 ई. से 1164 ई. तक यहाँ किलेदार रहे। कुंवर काँकलराज को लेकर एक भ्रांति फैली है। कुुुछ इतिहासकारों ने गलती से कुँवर काँकलराज बड़गूजर को राजपूत की जगह मीणा लिखा है और उनके द्वारा इस किले का निर्माण होना लिखा है जो कि सही नहीं है।
हाँ, यह बात सही है कि मीणाओं में भी एक काँकल नाम का मीणा योद्धा हुआ है, लेकिन वो 1151 ई. से 85 वर्ष पूर्व यानी 1066 ई. में मौजूद था। इसी मीणा योद्धा काँकल को 1068 ई. में आमेर नरेश पजवनदेव कछवाह ने अपने कुँवरपदे काल के दौरान एक युद्ध में मारा था।
केवल नाम के एक जैसा होने की वजह से बाद के लेखकों ने भ्रमवश राजपूत राजकुमार को मीणा योद्धा बना दिया, जो कि ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर गलत साबित होता है। इस तथ्य की पुष्टि पाठक रावत सारस्वत द्वारा लिखित पुस्तक ‘मीणा इतिहास’ से भी कर सकते हैं।
राजा पृथ्वीपालदेव बड़गूजर (1145 ई.-1182 ई.) के शासनकाल के दौरान देवती और काँकवाड़ी दोनों पर उनके तीसरे पुत्र कुंवर प्रताप सिंह बड़गूजर का अधिकार रहा।
तराइन के दूसरे युद्ध – 1192 ई. में राजा रामराय बड़गूजर (1182 ई.-1192 ई.) की मृत्यु के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों ने राजौरगढ़ राज्य में कई बर्बादी की। काँकवाड़ी किला भी इससे अछूता नहीं रहा।
लगभग 65 वर्षों तक बड़गूजर-मुस्लिम संघर्ष के दौरान कई उतार-चढ़ाव आए। काँकवाड़ी किला पूरी तरह मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था और काँकवाड़ी किले को खंडहरों में तब्दील होने में देर नहीं लगी।
लगभग 400 साल बाद मुग़ल काल में यह किला सुर्खियां बटोरने में सफल रहा। मुग़ल बादशाह शाहजहां ने 1630 ई. में आमेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह को माचेड़ी का मनसब प्रदान करने के साथ ही यह किला भी आमेर रियासत के अधीन हो गया।
मिर्जा राजा जयसिंह ने प्रारंभिक तौर पर काँकवाड़ी किले का पुनर्निर्माण कार्य शुरू कर दिया। लगभग यही स्थिति सवाई जयसिंह तक बन रही, लेकिन मुग़ल बादशाह औरंगजेब के समय माचेड़ी नरेश राजा उद्योत सिंह बड़गूजर अपने पैतृक किले काँकवाड़ी को लेने में सफल रहे।
बादशाह औरंगजेब ने देवती, माचेड़ी व राजपुर का विस्तृत क्षेत्र सवाई जयसिंह से लेकर राजा उद्योत सिंह बड़गूजर को सौंप दिया। इस बात का राजा सवाई जयसिंह को काफी रंज हुआ। औरंगजेब के मरते ही सवाई जयसिंह ने राजनैतिक स्थिति का लाभ उठाते हुए माचेड़ी पर आक्रमण कर दिया।
इस समय राजा उद्योत सिंह बड़गूजर राज्य में अनुपस्थित थे। सवाई जयसिंह के इस कार्य का विरोध चौमूं के सरदार मोहन सिंह नाथावत और राजा फतह सिंह नाथावत ने खुल कर किया।
1741 ई. में सवाई जयसिंह ने अपने पुत्र ईश्वरी सिंह को परगना मनोहरपुर से एक बड़ी जागीर दी, जिसमें देवती, राजौर और माचेड़ी के विस्तृत इलाक़े शामिल थे। इस समय राजगढ़, कांकवाड़ी, टहला आदि क़िले इस जागीर में थे।
इसके बाद यह किला सदैव के लिए आमेर रियासत के अधीन रहा। सवाई जयसिंह द्वारा किले का शेष पुनर्निर्माण कार्य करवाया गया। पोस्ट लेखक :- जितेंद्र सिंह बड़गूजर