महलों व मंदिरों की प्रतिष्ठा :- 1 जून, 1857 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह द्वारा बनवाए गए गोवर्द्धनसागर महल, गोवर्द्धनसागर तालाब, पशुपतेश्वर महादेव व ऐजनस्वरूपबिहारी मंदिर की प्रतिष्ठा हुई।
नेपाल वालों की खातिरदारी :- 4 सितम्बर, 1857 ई. में नेपाल के वज़ीर जंग बहादुर से बग़ावत करने के बाद चौतरिया (राजवी) गुरुप्रसादशाह के बेटे हिम्मतबहादुर शाह और दलप्रकाश शाह उदयपुर आए, जहां महाराणा स्वरूपसिंह ने उनकी बढ़िया खातिरदारी की।
कोठारिया वालों से पूछताछ :- 8 जून, 1858 ई. को जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह राठौड़ की फ़ौज व अंग्रेजी रिसाला ने मेवाड़ के कोठारिया ठिकाने में प्रवेश किया और पूछा कि ठाकुर कुशालसिंह को तुमने यहां छिपा रखा है। फिर कोठारिया के ठाकुर जोधसिंह चौहान ने कोठारिया का गढ़ दिखला दिया और कहा कि देख लो, यहां कुशालसिंह नहीं है।
हरिहर मंदिर की प्रतिष्ठा :- 25 अप्रैल, 1859 ई. को हरिहर मंदिर की प्रतिष्ठा हुई। यह मंदिर महाराणा स्वरूपसिंह की माता ने पिछोला झील के जलनिवास महल के सामने की तरफ बनवाया।
5 मई, 1859 ई. – केसरीसिंह राणावत को कैद करना :- तीरोली का जागीरदार केसरीसिंह राणावत शेखावाटी की तरफ के राजपूतों को मेवाड़ में ही लूटमार करवाने में मदद करता था। महाराणा स्वरूपसिंह को इस बात की सूचना मिली।
फिर महाराणा ने कायस्थ मुंशी गुल्लू को फौज समेत विदा किया। कायस्थ गुल्लू ने शेखावाटी राजपूतों का बहादुरी से सामना किया। इस लड़ाई में मेवाड़ वाले विजयी रहे और कायस्थ गुल्लू सख़्त ज़ख्मी हुए।
कायस्थ गुल्लू ने उनका सामान, घोड़े वगैरह ज़ब्त कर लिए और तीरोली के जागीरदार केसरीसिंह राणावत को बंदी बनाकर महाराणा के सामने पेश किया। महाराणा ने खुश होकर कायस्थ को एक खिलअत व एक गांव भेंट किया।
महता शेरसिंह से ज़ुर्माना वसूल करना :- 15 मई, 1859 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह और महता शेरसिंह के बीच किसी बात को लेकर नाइत्तफाकी दिन-दिन बढ़ती रही। महाराणा ने शेरसिंह से सवा तीन लाख रुपया ज़ुर्माने स्वरूप लिया।
महाराज शेरसिंह का देहांत :- 24 मई, 1859 ई. को महाराणा के नज़दीकी रिश्तेदार बागोर के महाराज शेरसिंह का देहांत हो गया। 20 जून को शेरसिंह के पौत्र शम्भूसिंह उदयपुर आए।
महाराणा ने पहले शेरसिंह पर सख़्ती की थी और शंभूसिंह को भी उनके हक से खारिज कर दिया था। लेकिन अब महाराणा ने शम्भूसिंह को उनके कुटुम्ब सहित उदयपुर बुलवाकर शम्भूसिंह को बागोर का वारिस घोषित कर दिया।
कोठारी केसरीसिंह को प्रधान बनाना :- 13 अक्टूबर, 1859 ई. को महाराणा ने गोकुलचंद के स्थान पर कोठारी केसरीसिंह को प्रधान पद पर नियुक्त करके खिलअत प्रदान की। रिवाज़ के मुताबिक नए प्रधान केसरीसिंह को हाथी पर बिठाकर काका दलसिंह के साथ केसरीसिंह के मकान पर भेजा गया।
1860 ई. – सालिमसिंह से कुंडई गांव दोबारा ज़ब्त करना :- भींडर के सरदार ने लावा और बोहेड़ा पर कई चढ़ाइयां की, पर दोनों ठिकानों के सरदारों ने बहादुरी से सामना किया, जिस कारण भींडर के सरदार का वहां अधिकार न हो सका।
लावा के सरदार चतरसिंह शक्तावत के काका सालिमसिंह ने कुंडई गांव पर कब्ज़ा कर लिया। यह गांव पहले महाराणा स्वरूपसिंह ने सालिमसिंह से ज़ब्त किया था। महाराणा ने फौज भेजकर सालिमसिंह को वहां से निकाल दिया।
उपद्रवी मीणों का दमन :- 29 जनवरी, 1860 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने देलवाड़ा के राज फतहसिंह वैरीशालोत की तलवार बंधाई की रस्म की। इसी दिन महाराज चन्दसिंह को जहाजपुर के उपद्रवी मीणों का दमन करने भेजा गया।
महाराज चन्दसिंह ने मीणों के गाडोली, लुहार आदि गांव लूटते हुए 5-6 उपद्रवी मीणों को तोप से उड़ाकर कठोर दंड देकर खैराड़ में शांति स्थापित की। कई मीणों की हाजिरी लिए जाने का भी बन्दोबस्त किया गया।
मानसिंह की बगावत :- महाराज चंदसिंह ने सींगोली के जागीरदार बाबा मानसिंह के ठिकाने पर कब्ज़ा कर लिया, तो मानसिंह 300 शेखावाटी राजपूतों को लेकर मेवाड़ में घुसा और लूटमार के इरादे से मांडलगढ़ के गांव दाणिया की कोटड़ी में पहुंचा।
लेकिन वहां के भोमिया कान्हावत गोपालसिंह, महताबसिंह, हमीरसिंह, बलवन्तसिंह, सूरजपुरा के रौड़सिंह, इंद्रपुरा के रामसिंह राणावत, जसवंतपुरा के शेरसिंह राठौड़, खुमाणसिंह, बृजलाल ने मानसिंह से जमकर मुकाबला किया।
इस लड़ाई में मानसिंह की हार हुई और उसकी तरफ से 3 राजपूत मारे गए। मानसिंह की फौजी टुकड़ी में से 6 घोड़े मेवाड़ वालों ने छीन लिए व कुछ आदमियों को क़ैद किया। इस लड़ाई में कान्हावत गोपालसिंह को बंदूक के छर्रे लगे, जिससे वे सख़्त ज़ख्मी हुए। महाराणा स्वरूपसिंह ने उनको जागीर में कुछ ज़मीन भेंट की।
महाराणा स्वरूपसिंह ने खुश होकर इस लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से शामिल सभी वीरों को खिलअत वगैरह भेंट की। इस घटना के कुछ दिन बाद मानसिंह ने भीलवाड़ा के पुर गांव में डाका डाला और 2-3 महाजनों का सामान लूट लिया।
उदयपुर राजमहल में समारोह के दौरान हुए झगड़े का वर्णन :- 7 फरवरी, 1860 ई. को निम्बाहेड़ा के मसले व सती प्रथा के मुद्दे पर बातचीत करने के लिए राजपूताने के ए.जी.जी. ईडन, जयपुर के पोलिटिकल एजेंट टेलर और मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट कप्तान शावर्स का उदयपुर आना हुआ।
महाराणा ने अपने चौगान के दरीखाने में इनसे मुलाकात की। महाराणा ने हाथियों की लड़ाई का आयोजन भी करवाया। इस अवसर पर अंग्रेजी रिसाला के एक सिख सवार से महाराज दलसिंह के भतीजे अजीतसिंह की तकरार हो गई और अजीतसिंह ने उस पर तलवार का वार कर दिया।
फिर अंग्रेजी रिसाला बदला लेने के लिए तैयार हो गया, तब ए.जी.जी. ईडन ने बीच में पड़कर लड़ाई रुकवाई। 15 फरवरी को उक्त सब अंग्रेज अफ़सर उदयपुर से रवाना हो गए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)