राजा रामराय बड़गूजर का सम्पूर्ण इतिहास

राजा रामराय बड़गूजर का विस्तृत इतिहास :- पिता :- राजौरगढ़ शासक महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर। माता :- चौहानवंशीय रानी कैलाशदेवी। जन्म :- 5 अगस्त 1149 ई.।

राजा रामराय बड़गूजर को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का ज्ञान था। इसके साथ ही वे मीमांसा, वेदांत, गणित, सैन्य संचालन के साथ-साथ संगीत का भी अच्छा ज्ञान रखते थे। राजा ने अश्वों और गजों पर नियंत्रण में भी अपूर्व सिद्धि प्राप्त की थी। तलवार चलाने, अचूक निशाना लगाने आदि में सिद्धहस्त थे

राजौरगढ़ की लड़ाई – 1180 ई. :- ‘खरतरगच्छ पट्टावली’ के अनुसार सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अपने दिग्विजय अभियान के लिए नरायन में सैन्य संग्रह के लिए सैनिक शिविर स्थापित किए। सेनापति भुवनैकमल स्वयं अपने सैनिकों, अधिकारियों को दिशानिर्देश के साथ प्रबंध का सम्पूर्ण संचालन कर रहे थे।

सम्राट के इस दिग्विजय अभियान की शुरुआत राजौरगढ़ राज्य से हुई। सम्राट पृथ्वीराज के सेनापतियों ने राजौरगढ़ पर आक्रमण किया। बड़गूजरों की ओर से सेना का नेतृत्व महाराजकुमार रामराय बड़गूजर, कनकराय बड़गूजर और कुंवर प्रताप सिंह ने किया।

राजगढ़ – माचेड़ी शासक राजा सुवर्णदेव बड़गूजर (1153 ई. – 1201 ई.) ने सेना की एक टुकड़ी राजौरगढ़ की सहायता के लिए भिजवाई। दोनों सेनाओं के बीच लड़ाई हुई। इस युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की विजय हुई और राजौरगढ़ के बड़गूजरों को शाकम्भरी के चौहानों से सुलह करनी पड़ी।

महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर ने अपनी पौत्री नंदकुंवरी (महाराजकुमार रामराय की पुत्री) का विवाह सम्राट पृथ्वीराज चौहान के साथ किया। इस युद्ध के बाद महाराज पृथ्वीपालदेव ने अपने दोनों छोटे पुत्रों कनकराय बड़गूजर और प्रताप सिंह बड़गूजर को सेना सहित सम्राट पृथ्वीराज के दिग्विजय अभियान में भेजा। कुंवर प्रताप सिंह ने भदानक के यदुवंशी और महोबा के चंदेलों के विरुद्ध युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज की सहायता की।

आबू की रात्रिकालीन लड़ाई – 1182 ई. :- इस लड़ाई के कारणों और निष्कर्ष को लेकर इतिहासकारों में पर्याप्त मतभेद है। इतिहासकारों का एक वर्ग जो चंदरबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक मानता है, वो युद्ध का कारण चौहानों और सोलंकियों के बीच चली आ रही शत्रुता और इस लड़ाई में शाकम्भरी नरेश पृथ्वीराज चौहान की विजय मानता है।

वहीं, इतिहासकारों का दूसरा वर्ग समकालीन स्रोतों का हवाला देते हुए लड़ाई का मुख्य कारण सम्राट का दिग्विजय अभियान, प्राचीन शत्रुता और सोलंकियों का शाकम्भरी राज्य में हस्तक्षेप मानता है। बहरहाल, मैं दोनों वर्गों का पक्ष रखते हुए रात्रिकालीन लड़ाई में गुजरात के सोलंकियों का विजयी होना लिख रहा हूँ।

चंदरबरदाई कृत पृथ्वीराजरासो के अनुसार राजा भीमदेव ने होलिकोत्सव के दिनों में शिवपूरी नामक स्थान को जलाया और लूट लिया। इसलिए वहां के सामन्त सलख परमार (सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामन्त) ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान से इसकी शिकायत कर दी।

राजा भीमदेव और उनके सेनापति धारावर्ष परमार को सबक सिखाने के लिए सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने सामंतों के नेतृत्व में सेना भेजी। इस सेना में मुख्य सेनापति राजा रामराय बड़गूजर, राजा जैत्र प्रमार और राजा चामुंडराय थे। ‘सुअन सूर सामन्त, मंत लग्गे विरुझानं। रा चामण्ड, जैतसी, राम बड़गूजर दानं।।’

राजा रामराय बड़गूजर और राजा जैत्र प्रमार ने पट्टनपति के छत्रधारी वीरों की ओर देखा। उस समय उनके लक्ष्यभेदी वार पहाड़ों को ध्वंस करने जैसे प्रतीत हो रहे थे। उसे देखकर ओष्ठ दबाते हुए और खड्ग के प्रहार की झड़ी लगाते हुए जैत्र प्रमार आगे बढ़े और शत्रुओं को इस प्रकार नष्ट करने लगे मानो युद्धस्थल रूपी खेत मे ग्रामीण लोग (शाकम्भरी सेना) हाथों से चावल कूट रहे है।

उसी तरह देवताओं द्वारा स्तुति करते हुए जूझवार रामराय बड़गूजर ने भी अपनी खड्ग को मुट्ठी में ग्रहण करते हुए वार किया। जिसे देखकर नर, नाग, देवी, देवताओं ने हर्षित होकर पुष्पांजलि अर्पित की।

‘बड़गूजर राम, जैत, छत्र देखै पट्टनवै। वै नीसांनी मार, घाट गिरवर घट्टनवै।। अधरा खंडन खग्ग, झग्ग झूरे सुं पमारह। मनो सराली जंग, पान कुट्टै गंमारह।। रा रामदेव देवत्त तुव, जाजै जोरि जुहथ्थ किय। नर नाग देवी देव विहसी, पञ्जुली पञ्जु प्रहास दिय।।’

सामंतों के हाथ वार करते हुए, कमानों से बाण चलाते हुए, वीरों के मुख मार-मार घोषणा करते हुए भय स्वरूपी जैत्र प्रमार और राजा रामराय बड़गूजर ने चालुक्य सेना को युद्ध स्थल से पीछे हटने पर विवश कर दिया। इस प्रकार क्षत्रियों में रात्रि का युद्ध हुआ और युद्ध में सामंतों (राजा जैत्र प्रमार और राजा रामराय बड़गूजर ) की विजय हुई।

दूसरे वर्ग का मत है कि चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय ने अपने सेनापति धारावर्ष परमार और जगद्देव प्रतिहार के बल पर शाकम्भरी के पश्चिमी सीमा पर कब्जा कर लिया और वहां सैनिक छावनी बनाकर ओला-फलोदी व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण कर लिया।

इस बात की पुष्टि राजा भीमदेव द्वितीय के वि.स. 1239 (1182 ई.) ओला शिलालेख से होती है। ये व्यापारिक मार्ग शाकम्भरी की पश्चिमी सीमा को सौराष्ट्र से जोड़ता था। मेड़ता के सामन्त राजा उद्दग परमार ने व्यापारिक मार्ग पर चालुक्यों के नियंत्रण और सैनिक छावनी की सूचना राजा रामराय बड़गूजर को दी।

चालुक्यों पर आक्रमण करने के पीछे राजा रामराय बड़गूजर के प्रमुख 2 कारण थे। पहला यह कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान इस समय महोबा के शासक राजा परमर्दिदेव चंदेल के साथ युद्धरत थे। उनकी अनुपस्थिति में राज्य की सुरक्षा का भार राजा रामराय बड़गूजर पर था।

दूसरा प्रमुख कारण इस व्यापारिक मार्ग से होने वाला व्यापार था। राजौरगढ़ के बड़गूजर शासक और शाकम्भरी के चौहान कई वर्षों से इस व्यापारिक मार्ग से व्यापार करते आ रहे थे, ऐसे में व्यापारिक गतिविधियां बाधित ना हों, इसके लिए भी आक्रमण जरूरी था।

राजा रामराय बड़गूजर ने राजा उदग परमार को साथ लेकर चालुक्यों के नगर आबू पर हमला किया और उसे घेर लिया। काफी दिनों के बाद एक रात चालुक्य सेनापति राजा धारावर्ष परमार किले से बाहर निकले और राजा रामराय पर आक्रमण क़िया। दोनों सेनाओं के बीच लड़ाई हुई। इस लड़ाई में सेनापति धारावर्ष विजयी रहे।

राजा रामराय बड़गूजर और राजा उद्द्ग परमार के इस रात्रिकालीन आक्रमण की असफलता का वर्णन राजा प्रह्लादन (राजा धारावर्ष के छोटे भाई) द्वारा लिखित संस्कृत नाटक ‘पार्थ पराक्रम व्यायोम’ में मिलता है। नाटक के अनुसार रात्रिकालीन आक्रमण में पृथ्वीराज चौहान स्वयं मौजूद नहीं थे और इस लड़ाई में उनके सामंतों को पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

राजा प्रह्लादन परमार द्वारा रचित नाटक ‘पार्थ पराक्रम व्यायोम’ ऐतिहासिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। कुछेक जगहों पर राजा प्रह्लादन ने जरूर पक्षपात किया है।

कवि चंद बरदाई ने इस युद्ध में राजा जैत्र प्रमार का शामिल होना लिखा है, लेकिन मुझे इस नाम के किसी भी राजा के होने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। इसके विपरीत राजा उद्द्ग परमार का होना ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक है। इनका एक शिलालेख भी मिला है जो 1192 ई. का है।

ओला-फलोदी व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण करना – 1182 ई. :- आबू की पराजय के बाद राजा रामराय बड़गूजर ने ओला-फलोदी व्यापारिक मार्ग पर हमला किया। इस हमले में वीकमपुर के सामन्त कतिया सांखला ने राजा रामराय की मदद की।

राजा रामराय बड़गूजर ने चालुक्यों द्वारा स्थापित सभी सैनिक छावनी को तहस-नहस कर दिया और इस मार्ग पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। राजा रामराय बड़गूजर ने लगभग 7 माह तक इस व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण बनाये रखा।

इसी समय राजा रामराय बड़गूजर को सूचना मिली कि मोहम्मद गौरी इसी ओर आक्रमण करने आ रहा है। राजा रामराय बड़गूजर सेना लेकर गौरी की तरफ चल पड़े।

राजा का राज्याभिषेक – 1182 ई. :- इस वर्ष के अंतिम माह में महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर का देहान्त हुआ। महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर का अंतिम शिलालेख 1182 ई. का मिला है। राजसी ठाट-बाट के साथ राजा रामराय बड़गूजर का राज्याभिषेक हुआ। राजा रामराय बड़गूजर राजौरगढ़ के 17वें शासक बने।

राजा रामराय बड़गूजर द्वारा मोहम्मद गौरी को बंदी बनाना – 1183 ई. :- मोहम्मद गौरी इससे पहले मुल्तान (1175 ई.), उच्छ (1175 ई.), दक्षिणी सिंध (1182 ई.) और लाहौर (1182 ई.) जीत चुका था। उसके राज्य की दक्षिणी-पूर्वी सीमा जैसलमेर और बीकानेर से लगने लगी थी, जो शाकम्भरी राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा थी।

ऐसे में गौरी का सारूण्डे (बीकानेर) पर आक्रमण करना और राजा रामराय बड़गूजर का उससे लड़ने जाना भौगोलिक और राजनैतिक दोनों ही दृष्टिकोणों से सही मालूम होता है।

पृथ्वीराज रासो के अतिरिक्त पुरातन प्रबंध संग्रह, फलौदी माता मंदिर का लेख, सुसाणी माता शिलालेख, नयनचंद्र सूरी कृत हम्मीर महाकाव्य आदि प्रमाणों के आधार पर इस युद्ध की सत्यता सिद्ध की जा सकती है।

उपर्युक्त सभी संदर्भों को क्रमबद्ध पढ़ने से राजा रामराय बड़गूजर द्वारा मोहम्मद गौरी को बंदी बनाना, गौरी का सम्राट को कर देना स्वीकार करके छूटना, सम्राट की ओर से सामन्तों का कर लेने गजनी जाना आदि घटनाएं सदृश्य दिखाई पड़ती है।

1) पुरातन प्रबंध संग्रह में इस युद्ध में गौरी को बन्दी बनाकर गौरी से कर वसूलने के बारे में लिखा है कि “पृथ्वीराज ने गौरी को हराकर उसे करद बनाया और यह कर वसूलने के लिए शल्यहस्त प्रतापसी ग़जनी जाया करता था।”

2) फलौदी माता मंदिर का लेख (पार्श्वनाथ, मेड़ता रोड़-नागौर) :- गुरुवार चैत्र सुदी 11 संवत 1555 (1498 ई.) के फलोदी माता लेख से भी इस युद्ध में गौरी को बंदी बनाने और पृथ्वीराज द्वारा कर वसूलने की बात लिखी है।

इस शिलालेख के 2, 3, 4, 5 श्लोक के अनुसार :- “पृथ्वीराज द्वारा गौरी से कर वसूलने के लिए डाहल प्रदेश के राजा मधुकरदेव परमार के पुत्र सूर परमार को ग़जनी भेजा। जहां कर सम्बन्धी झगड़े में यह 74 तुर्कों को मारने के बाद स्वयं हत हुआ।”

3) सुसाणी माता शिलालेख (मोरखानो-बीकानेर) :- ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा संवत 1573 (1516 ई.) का सुसाणी माता का लेख भी उपरोक्त बातों का समर्थन करता है और गौरी को पृथ्वीराज का करद बताता है।

4) नयनचंद्र सूरी कृत हम्मीर महाकाव्य के अनुसार पृथ्वीराज ने सेना सजाकर गौरी पर चढ़ाई की, गौरी को कैद कर अपने पैरों पर झुकाया। जब उसने वार्षिक दंड देेना स्वीकार किया, तब उसे कारागार से मुक्त किया गया।

5) कवि चंदरबरदाई पृथ्वीराज रासो में लिखते हैं :- ‘बड़गूजर बलिवंड राम, तत्तार मण्डिय रन। सार धार उभझरिय, श्रोन झंहरिय गगन तन।। लोह हड्ड उद्दंत, हंस छुड़न्त श्रीर सर। फिरत रुण्ड बिन मुंड, दंति बिन सूंड सार झर।। अद्भुत भयान समहर मचिय, रचिय रक्तू कालिय कहर। इक लरत गिरत घुमन्ट, भटकि नट्ट मण्डिय वहर।।

रणक्रीड़ा में नहीं थकने वाला, शस्त्राघात में प्रवृत्त रहने वाला, स्नान, ध्यान, दान, पूजा आदि सुकर्म करने वाला बलवान रामराय बड़गूजर 8 हज़ार की सेना के साथ अचानक सारुण्डे नामक स्थान (बीकानेर) पर आ पँहुचा। उसके आते ही प्रलयकाल के मेघ अचानक उमड़ उठे।

उसी समय प्रचंड युद्ध छिड़ गया। रामराय बड़गूजर ने क्रोधित हो, खड्ग हाथ में लेकर गौरी सेना को काटने लगा। देखते ही देखते उस मतवाले बड़गूजर वीर ने मस्तक रहित हाथियों के ढेर लगा दिए और युद्ध में रामराय ने गौरी शाह को बंदी बना लिया।

उपर्युक्त सभी प्रमाणों से प्रमाणित होता है कि सारूण्डे नामक स्थान पर वर्चस्व को लेकर दोनों सेनाओं के बीच लड़ाई हुई। राजपूत सेना का नेतृत्व राजा रामराय बड़गूजर ने किया। लड़ाई में गौरी को राजा रामराय बड़गूजर के द्वारा बंदी बनाया गया।

जिसे वार्षिक कर दंडस्वरूप देने की शर्त पर कैद मुक्त किया। इस कर को लेने सम्राट की ओर से राजा मधुकर परमार के पुत्र सूर परमार जाया करते थे। कर से सम्बंधित एक झगड़े में राजा सूर परमार वीरगति को प्राप्त हुए। इनकी जगह पर प्रतापसी कर लेने गजनी जाया करता था।

चालुक्य सेनापति जगदेव द्वारा व्यापारिक मार्ग पर पुनः अधिकार करना – 1183 ई. :- राजा रामराय की उपस्थिति में चालुक्य सेना ने व्यापारिक मार्ग पर अधिकार करने का कोई प्रयास नहीं किया, लेकिन जैसे ही राजा रामराय बड़गूजर सारूण्डे की लड़ाई के लिए रवाना हुए, तो जगदेव प्रतिहार ने उचित समय जानकर पुनः इस व्यापारिक मार्ग के कुछेक इलाके पर अधिकार कर लिया।

व्यापारिक मार्ग पर आक्रमण करने और पुनः अधिकार की जानकारी सेनापति जगदेव प्रतिहार के एक अन्य शिलालेख से मिलती है, जो बैशाख सुदी 2, वि.स. 1239 (15 अप्रैल, 1183 ई.) का है। जगदेव प्रतिहार को सम्राट के स्थानीय सामन्त राणा कतिया परमार से लड़ाई भी करनी पड़ी थी।

व्यापारिक मार्ग पर पुनः अधिकार की सूचना राजा रामराय बड़गूजर को राजौरगढ़ में मिल चुकी थी और वो पुनः इस मार्ग को जीतने के लिए रवाना होने वाले थे, लेकिन इस समय सम्राट पृथ्वीराज चौहान महोबा का अभियान करके वापस अजमेर आ चुके थे।

बिना सम्राट की सलाह के राजा रामराय बड़गूजर ने जगदेव प्रतिहार पर आक्रमण करना उचित नहीं समझा। इसलिए राजा रामराय ने सम्राट को सूचना भिजवाकर नागौर की ओर प्रस्थान किया।

नागौर की लड़ाई – नवंबर 1184 ई. :- चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय ने सेनापति धारावर्ष को सेना के साथ नागौर पर हमला करने के लिए भेजा। सेनापति जगदेव प्रतिहार भी सेना लेकर धारावर्ष के साथ शामिल हो गए।

चालुक्य सेना ने नागौर का किला घेर लिया। राजा रामराय बड़गूजर, राजा उदग परमार और गुहिलवंशी राजा मोतीश्वरा इस समय किले में ही मौजूद थे। किले के बाहर राणा आहड़ के पुत्र अम्बरक शत्रु सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इस संदर्भ में राजा अम्बरक का एक शिलालेख मिला है, जो 16 नवंबर 1184 ई. का है।

राजा रामराय बड़गूजर ने किले के द्वार खोल चालुक्य सेना पर हमला किया। दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में चालुक्य सेना की हार हुई और चालुक्य सेनापति को संधि करके वापस लौटना पड़ा। चालुक्यों की नागौर युद्ध में पराजय और अपमानजनक संधियों का वर्णन वेरावल प्रशस्ति और खरतरगच्छ पट्टावली दोनों में मिलता है।

तराइन का पहला युद्ध – जनवरी 1191 ई. :- सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने विचार किया कि दिन-दिन सुल्तान की शक्ति बढ़ती जा रही है, अगर इस वक्त उसे नहीं रोका, तो गज़नी से दोबारा आकर वह हावी हो सकता है।

शहाबुद्दीन गौरी गज़नी की तरफ जाने की फ़िराक़ में था, लेकिन उसे ख़बर मिली कि अजमेर के सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने कई राजाओं की फ़ौजें मिलाकर तबरहिन्द (भटिंडा) के किले की तरफ कूच किया है।

सम्राट के साथ सेनापति कैमास, राजा प्रताप सिंह बड़गूजर राजा उदयराज, सेनापति स्कन्द, सेनापति भुवनैकमल्ल, राजा रामराय बड़गूजर, राजा उदग परमार, गुहिलवंशी राजा मोतीश्वरा, राजा कतिया परमार, दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर, राजा कनकराय बड़गूजर आदि थे।

मुहम्मद गौरी ने ख़बर सुनते ही राजपूतों को मार्ग में ही रोकने के लिए तराइन के मैदान में पड़ाव डाला। गौरी की फौज में मुख्य सेनापतियों में कुतुबुद्दीन ऐबक भी था। सरहिंद के गवर्नर जियाउद्दीन काजी तुलकी बिन अब्दुस्सलाम तुलकी ने तुलकी जनजाति के 1200 घुड़सवारों को मुहम्मद गौरी की सहायता के लिए भेजा।

सम्राट की अश्व सेना के दाहिने भाग का नेतृत्व राजा रामराय बड़गूजर कर रहे थे। वहीं बाए भाग की अश्वसेना का नेतृत्व राजा उदग परमार कर रहे थे। गजसेना के बीच में सम्राट स्वयं एक गज पर तीर-कमान व भाले के साथ युद्ध का नेतृत्व कर रहे थे।

दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर भी हाथी पर विराजमान थे। उनकी सहायता के लिए राजा प्रताप सिंह बड़गूजर भाला व तलवार लिए घोड़े पर सवार थे।

मुहम्मद गौरी ने जब राजपूतों की लंबी कतार वाली अश्वसेना देखी तो उसके हौंसले पस्त हो गए और उसने राजपूतों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए अपनी सेना को भी कतारों में खड़ा किया।

जब कोई सेना अपने शत्रु के मुक़ाबले अपने दोनों भागों के किनारे स्थित सेना को मजबूत करती है तो उसका उद्देश्य यह होता है कि आक्रमण की भागदौड़ दोनों बाजुओं के किनारों वाली सेना निभाएगी।

युद्ध प्रारम्भ हुआ। मुहम्मद गौरी ने अपनी दोनों पार्श्व की सेना को आगे बढ़ाया। सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर को आगे करके दोनों भागों की अश्वसेना को आगे बढ़ाया।

राजा रामराय बड़गूजर और राजा उदग परमार ने अपनी अपनी अश्वसेना लेकर तेजी से आक्रमण किया। यह आक्रमण इतना तेजी से हुआ कि देखते ही देखते मुहम्मद गौरी की सेना दोनों तरफ से सम्राट की अश्वसेना द्वारा तेजी से अंदर की तरफ़ धकेली गई। मुहम्मद गौरी खुद मध्यभाग (कल्बे लश्कर) में आ गया और दोनों तरह से राजपूत सेना ने घेर लिया।

राजा प्रताप सिंह बड़गूजर का वीरगति पाना :- सामने से राजा प्रताप सिंह बड़गूजर ने गौरी के दाहिने बाजू की सेना पर आक्रमण किया। मुहम्मद गौरी ने सेना को पीछे हटा कर राजा प्रताप सिंह को सेना के मध्य भाग तक आने दिया।

इस समय राजा प्रताप सिंह बड़गूजर मुहम्मद गौरी की सेना के मध्य भाग और दाहिने बाजू के बीच फंस कर युद्ध करने लगे। इसी बीच हाथी पर सवार दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर का सामना गौरी से हुआ। गौरी ने राजा पर बरछा चलाया, जिससे बरछा राजा के कंठ तक चला गया और 2 दांत गिर गए।

फिर राजा चाहड़पाल ने भी ज़ख्मी हालत में बरछा चलाया, जिससे सुल्तान की बाज़ू पर गहरा घाव लगा और घोड़े से गिरने ही वाला था कि तभी एक खिलजी सिपाही ने फ़ौरन सुल्तान के घोड़े पर सवार होकर उसको संभाला और घोड़ा भगाकर उसे युद्धभूमि से बाहर ले गया।

राजा प्रताप सिंह गौरी की सेना से लडते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इस घमासान युद्ध में बहुत सारे मुस्लमान सैनिक मारे गये। राजपूतों की भयंकर मार खाकर बड़े-बड़े अफगानी, खल्जी और गौर के अमीर मैदान जंग से भागने लगे। स्वयं गौरी भी गम्भीर रूप से घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा, जिसे किसी खल्जी सैनिक ने बचाया।

मुस्लिम इतिहासकार मिन्हाज लिखता है “सुल्तान गौरी के घाव की पीड़ा इतनी असह्य हो गई कि सुल्तान घोड़े की पीठ से गिरने ही वाले थे कि तभी एक बहादुर खल्जी पैदल सैनिक ने उसे पहचान लिया। वह कूदकर सुल्तान के पीछे बैठ गया और उसे छाती से चिपकाकर घोड़े को भगा ले गया। इस प्रकार वह सुल्तान को युद्ध क्षेत्र से बाहर ले आया।”

तबरहिन्द का युद्ध – 1191-92 ई. :- तराइन के प्रथम युद्ध में सुल्तान शहाबुद्दीन को शिकस्त देने के बाद सम्राट पृथ्वीराज ने तबरहिन्द किले को घेर लिया। इस लड़ाई में राजा रामराय बड़गूजर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

तबरहिन्द किले पर गौरी ने काज़ी ज़ियाउद्दीन तोलक को 12 हज़ार की फ़ौज के साथ तैनात कर रखा था। 13 महीनों की सख़्त घेराबंदी के बाद दोनों सेनाओं के बीच लड़ाई हुई। लड़ाई में क़ाज़ी जियाउद्दीन पराजित हुआ और सम्राट ने किला फतह किया।

गहड़वालों का क्षेत्र लूटना – 1191 ई. :- सम्राट ने अपने प्रधान सेनापति स्कंध और राजा कनकराय बड़गूजर को सेना की टुकड़ी के साथ गहड़वालों के किसी क्षेत्र को लूटने भेजा। जिस कारण सेना की एक टुकड़ी तराइन के दूसरे युद्ध में शामिल ही नहीं हो पाई।

तराइन का दूसरा युद्ध – 1 मार्च 1192 ई. :- इस समय सेनापति कैमास मारा जा चुका था। राजा प्रताप सिंह बड़गूजर तराइन के पहले ही युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दे चुके थे। सेनापति स्कंध और राजा कनकराय बड़गूजर गहड़वालों के क्षेत्र लूटने गए हुए थे।

सम्राट के पास केवल भुवनैकमल, राजा रामराय, राजा उदग परमार, राजा मोतीश्वरा, कतिया परमार, दिल्लीपति राजा चाहड़पाल तोमर आदि गिने चुने राजा थे। निजी सेना के नाम पर इन सभी राजाओं के पास बहुत ही कम सेना थी।

शहाबुद्दीन गौरी ने पिछली शिकस्त से बहुत कुछ सीखकर सुनियोजित तरीके से युद्ध की तैयारियां शुरू कर दीं। सुल्तान ने तुर्क, ताजिक और अफगानों को तैयार करवाकर 1 लाख 20 हज़ार की जर्रार फौज इकट्ठी की और इस विशाल फौज के साथ वह लाहौर पहुंचा।

शहाबुद्दीन गौरी की फौज के प्रमुख सिपहसालार व साथी :- कुतुबुद्दीन ऐबक, नासिरुद्दीन कुबाचा, खारबक, नरसिंहदेव, मुहम्मद बिन महमूद, अल्बा (इलाह), मुकलबा, खरमेल, ताजुद्दीन यलदुज। मुहम्मद गौरी की सेना के अतिरिक्त इनके पास अपनी निजी सेनाएं भी थीं।

सम्राट पृथ्वीराज चौहान भी बहुत से राजा-महाराजाओं को साथ लेकर गौरी का सामना करने पहुंचे। सम्राट की फौज व हाथियों की संख्या गौरी के मुकाबले लगभग दुगुनी थी।फरिश्ता के अनुसार इस लड़ाई में 150 छोटे-बड़े राजाओं ने भाग लिया।

जब राजपूत फौज निद्रावस्था में थी, तब ज़िरहबख़्तरों और अश्वों से सुसज्जित 40 हज़ार के सैन्य ने राजपूत खेमों में तबाही मचा दी। हज़ारों राजपूत बिना लड़े ही खेत रहे और फिर शेष राजपूतों ने जैसे-तैसे फौजी जमावट की।

युद्ध प्रारम्भ हुआ। हाथियों की सेना लेकर गोविंदराय आगे बढ़े और खारबक के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। खारबक ने अपने मुंह पर ढाल रखकर अपनी रक्षा की और धनुर्धरों को आदेश दिया कि वे अपने बाणों द्वारा सिर्फ हाथियों और महावतों पर निशाना साधे।

खारबक का आदेश पाते ही तुर्कों ने हाथियों और महावतों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। जैसे ही 3-4 महावत और हाथी घायल हुए, हाथियों की पंक्ति अस्त-व्यस्त हो गई। बाणों की मार खाकर हाथी विकल होकर इधर-उधर भागने लगे।

इसी समय ख़रमेल ने भागते हुए हाथियों के पीछे नगाड़ों को जोर-जोर से पिटवाया। नगाड़ों के शोर से हाथियों में, जिस पर चढ़कर सम्राट युद्ध कर रहे थे, वह अनियंत्रित होकर भागने लगा। सम्राट पृथ्वीराज घायल हाथी से उतर कर घोड़े पर सवार होकर युद्ध करने लगे।

दिन के तीसरे पहर तक युद्ध चलता रहा। तीसरे पहर में गौरी ने पीछे खड़ी फौज को लड़ाई में शामिल होने का हुक्म दिया, जिसमें करीब 70 हज़ार सैनिक थे। भारी मारकाट के बीच तुर्कों को काटते हुए राजा रामराय बड़गूजर शत्रु सेना के बीच घिर गए।

दिल्ली के राजा गोविंदराय तोमर आखरी सांस तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। गौरी ने इनकी पहचान इनके टूटे दांतो से की। अंत में सम्राट घोड़े से उतरकर पैदल ही तुर्कों से लड़ने लगे। गौरी को आगे बढ़ता देख राजा रामराय अपने विश्वसनीय 150 सैनिकों के साथ आगे बढ़े।

राजा रामराय बड़गूजर ने अपने बड़े भारी सांग से हाथी पर वार किया और सांग हाथी के शरीर में फंस गया, जिससे वह निकालने पर भी नहीं निकला। तभी तुर्क सिपहसालारों ने राजा रामराय पर हमला किया, किंतु राजा रामराय ने उसे मार गिराया।

राजा का नहीं दबने वाला शरीर कठिनाइयों से शत्रुओं द्वारा रौंदा गया और अंत में तलवारों के वार से राजा का मस्तक और अस्थिपंजर टूट फुट गया। काफी देर तक राजा रामराय के शरीर में प्राण रहे और वह लड़ते हुए धराशाई हुए।

सरसुती नदी के किनारे सम्राट को तुर्कों ने बंदी बनाया। इतिहास के इस युगपरिवर्तनकारी युद्ध में 1 लाख राजपूतों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी।

राजा रामराय बड़गूजर का मूल्यांकन :- राजा रामराय बड़गूजर अपने पूर्वजों की ही भांति वीर, पराक्रमी और दानी थे। सम्राट की ओर से राजा ने सभी युद्धों में अद्भुत शौर्य का परिचय दिया। राजा के शासनकाल में व्यापारिक गतिविधियां अपने उच्च स्तर पर थी।

राज्य में प्रजा पर कोई अन्यान्य नहीं किया जाता था, न ही अनावश्यक कर वसूले जाते थे। यात्रियों के लिए तीर्थयात्रा (मुख्यतः पुष्कर यात्रा) की पूर्ण सुविधा थी। धार्मिक मामलों में राजा सहिष्णु थे, स्वयं शैव धर्मावलंबी होने पर भी जैन धर्म का आदर करते थे।

कई जैन मुनि अजमेर से दिल्ली जाते समय राजौरगढ़ राज्य से होकर जाते थे, जिनका राजा द्वारा पूर्ण श्रद्धा भाव से आदर सत्कार करते थे। सैन्य, आर्थिक और धार्मिक मामलों के साथ-साथ राजा के शासनकाल में राजौरगढ़ का स्थापत्यकला में भी उच्चस्थान था।

प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर ओझाजी लिखते हैं “मुसलमानों के अधिकार करने से पहले राजौरगढ़ की स्थापनाकला देखते ही बनती थी। यहां (राजौरगढ़) की मूर्ति कला मथुरा , बयाना जैसे प्रसिद्ध नगरों के समकक्ष थी। मुस्लिम आक्रांताओं ने यहां कई मंदिर तोड़े।”

बड़गूजर राजपूतों पर लिखी अब तक सभी ऐतिहासिक किताबों में कई आधुनिक इतिहासकारों यथा- श्रीमोहन सिंह कानोता, श्रीमहेंद्र सिंह तलवाना, कुंवर अमित सिंह राघव और उनकी टीम ने केवल ‘पृथ्वीराज रासो’ को आधार मानकर राजा रामराय बड़गूजर का इतिहास लिखा है और कई युद्धों में राजा रामराय बड़गूजर का शामिल होना लिखा है।

जिनमें मेवाती-मुंगल युद्ध, अमीर हुसैन की सहायतार्थ गौरी से युद्ध, गौरी की नागौर पर चढ़ाई, मंगल गढ़ युद्ध – नागौद के पास, गौरी की नागौर पर दूसरी चढ़ाई, संयोगिता हरण युद्ध समेत 11 युद्ध में शामिल होने की बात लिखी है।

लेकिन मुझे इनमें से किसी भी युद्ध के पक्ष में कोई भी समकालीन प्रमाण नहीं मिले हैं। इसलिए इन युद्धों को लेकर मैं किसी भी नतीज़े पर नहीं पँहुच पाया हूं। प्रमाणों के अभाव में इन युद्धों को लिखना मैं उचित नहीं समझता। पाठक यदि इन सभी युद्धों को पढ़ना चाहते हैं तो उपयुक्त तीनों लेखकों में से किसी भी लेखक की किताब पढ़ सकते हैं।

पोस्ट लेखक :- जितेंद्र सिंह बड़गूजर

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