1857 ई. की क्रांति की आड़ में कुछ लोग अपना हित साधने में भी लगे हुए थे। फिरोज़ नामक एक शख्स ने खुद को मुगल बादशाह का वंशज कहकर प्रसिद्धि पाई और विद्रोह कर दिया। पहले तो मंदसौर में सिंधिया ने इस विद्रोह को दबाया।
परन्तु कुछ दिन बाद फ़िरोज़ ने 2 हजार की फौज इकट्ठी करके मन्दसौर पर चढ़ाई कर वहां के सूबेदार को मार दिया और थानेदार को कैद कर मंदसौर पर कब्ज़ा कर लिया। फिरोज़ ने मंदसौर के एक ब्राह्मण कोतवाल को जबरन मुसलमान बनाया।
इसी फिरोज़ को कई लेखों व किताबों में एक क्रांतिकारी का दर्ज़ा दिया गया है, क्योंकि अधिकतर पाठ्यपुस्तकें इसी सिद्धांत पर आधारित हैं कि जो अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े वे क्रांतिकारी हैं और जो अंग्रेजों के साथ रहे वे गद्दार हैं।
फ़िरोज़ ने मालवा पर कब्ज़ा करने के बाद 10 हज़ार की फ़ौज जमा कर ली। इस फ़ौज में ज्यादातर विदेशी और मेवाती थे। फिरोज़ ने मालवा के अमीर लोगों के पास सन्देश भिजवाए कि तुम हमारी खिदमत में रहो, लेकिन फ़िरोज़ को उन अमीरों का साथ नहीं मिला।
नीमच में तैनात अंग्रेजी फ़ौज व मेवाड़ी फ़ौज को यह शक था कि मंदसौर में मुसलमानों द्वारा विद्रोह करने के बाद निम्बाहेड़ा वाले भी विद्रोह कर सकते हैं, क्योंकि निम्बाहेड़ा के मुलाज़िम भी मुसलमान हैं। इनका शक सही निकला।
निम्बाहेड़ा का मुस्लिम अफ़सर भी फिरोज़ से मिल गया। कप्तान शावर्स ने ये सूचना महाराणा स्वरूपसिंह को दी, तो महाराणा ने पैदल सैनिकों की एक टुकड़ी, पचास घुड़सवार और 2 तोपें रवाना कर दी।
महाराणा के आदेश से इस फौज के साथ सादड़ी, कानोड़, बांसी, बेगूं, भदेसर, अठाणा, सरवानिया, दारू, बिनोता आदि नीमच के नज़दीक के ठिकानों के सरदार भी उनकी टुकड़ियों समेत मिल गए।
कप्तान शावर्स व अर्जुनसिंह ने अंग्रेजी पलटन व मेवाड़ी फौज के साथ निम्बाहेड़ा की नदी के पास पड़ाव डाला। यहां से उन्होंने एक चौबदार को पैगाम देकर निम्बाहेड़ा के हाकिम के पास भेजा और कहलवाया कि “हम कुछ दिनों तक निम्बाहेड़ा पर कब्ज़ा रखेंगे।”
इस वक़्त टोंक (राजपूताने की सरहद में मौजूद एकमात्र मुस्लिम रियासत) के नवाब का बख्शी निम्बाहेड़ा में मौजूद था। उस बख्शी ने उस चौबदार का कत्ल कर करके शहरपनाह के दरवाजे बंद करवा दिए।
2 अंग्रेज निम्बाहेड़ा के मुस्लिम अफसर के पास भेजे गए, जिन्होंने कहा कि जब तक ये बगावत खत्म न हो जाये, तब तक तुम निम्बाहेड़ा हमें सौंप दो। पर निम्बाहेड़ा के अफसर ने उन दो में से एक अंग्रेज को मार डाला, जिसके बाद दोनों फ़ौजों में जंग छिड़ गई।
निम्बाहेड़ा वालों ने तोपों से गोलों की बारिश शुरू कर दी। इस लड़ाई में अंग्रेज व मेवाड़ी फौज के कुल मिलाकर 23 सैनिक मारे गए। मेवाड़ी फ़ौज का एक चपरासी और अंग्रेजी पलटन का यंग नामक एक सैनिक तोप के गोलों से मारा गया।
निम्बाहेड़ा में मौजूद टोंक वालों का बख्शी वहां से निकलकर भागा और मंदसौर वालों से मिल गया। कप्तान शावर्स, जैक्सन, महता शेरसिंह, अठाणा के रावत दीपसिंह, कायस्थ अर्जुनसिंह आदि ने निम्बाहेड़ा की शहरपनाह पर चढ़कर हमला करना चाहा, तो अंदर से किला खाली पाया।
निम्बाहेड़ा पर मेवाड़ वालों ने अधिकार स्थापित कर लिया। (निम्बाहेड़ा का परगना अहिल्याबाई होल्कर ने महाराणा से छीन लिया था, जिसके बाद 1857 ई. में मेवाड़ वालों ने पुनः यहां अधिकार किया)
निम्बाहेड़ा का तारा पटेल उस हाकिम को भगाने में व चौबदार की हत्या में हाकिम का साथ देने का दोषी पाया गया, इस ख़ातिर उसे तोप से उड़ा दिया गया।
निम्बाहेड़ा का परगना 2 वर्षों तक मेवाड़ के अधिकार में रहा। फिर टोंक और मेवाड़ वालों ने निम्बाहेड़ा पर अपना-अपना दावा किया, लेकिन महता शेरसिंह की ढिलाई के कारण यह परगना हाथ से निकल गया और टोंक रियासत में शामिल किया गया।
23 अक्टूबर, 1857 ई. को जीरण में 400 क्रांतिकारियों और 400 अंग्रेजों के बीच लड़ाई हुई, जिसमें कप्तान रीड और कप्तान टूकर मारे गए। कप्तान टूकर का सिर काटकर मंदसौर के द्वार पर लटका दिया गया। क्रांतिकारियों ने जीरण लूट लिया।
इस घटना के बाद करीब 2 हज़ार क्रांतिकारी नीमच की तरफ रवाना हुए। ये ख़बर सुनकर कप्तान बैनिस्टर सैन्य टुकड़ी सहित नीमच से रवाना हुआ, रास्ते में कप्तान शावर्स 300 मेवाड़ी सिपाहियों के साथ बैनिस्टर से मिल गया।
नीमच की छावनी के पास नदी किनारे दोनों सेनाओं के बीच गोलीबारी चलती रही। इस लड़ाई में ज्यादा जान-माल का नुकसान नहीं हुआ, लेकिन क्रांतिकारी हावी रहे।
मेवाड़ी फ़ौज में शामिल अठाणा के रावत दीपसिंह ने अपने बच्चों को पहाड़ों में भेज दिया और ख़ुद किले में आए। उन्होंने किले को दुरुस्त किया और आसपास के लोगों को किले में शरण दी, ताकि इन लड़ाइयों में आम लोगों को कोई जनहानि न हो।
इसी वक्त काइमदीन नाम का एक शख्स जावद का मुख़्तार बन गया। अठाणा के जुलाहे भी उसके साथ हो गए। अठाणा का निवासी अलीड़ा नाम का एक जुलाहा रावत दीपसिंह के पास आया और रावत से कहा कि “अब मेरा नाम अलीड़ा नहीं, अलियार खां है, अब आपको हमसे कोई मतलब नहीं होना चाहिए।”
कुछ दिन बाद इन्हीं जुलाहों की जान रावत दीपसिंह ने बचाई, तब इन जुलाहों को अपनी गलती का एहसास हुआ। 12 नवम्बर, 1857 ई. को कप्तान शावर्स व लेफ्टिनेंट फ़र्क़हर्सन ने बघाणा और निक्सनगंज में फतह हासिल की। फिर अंग्रेजों ने 23 नवम्बर को तथाकथित मुगल शहज़ादे फ़िरोज़ को मंदसौर से खदेड़ दिया।
कप्तान शावर्स ने मेवाड़ी फ़ौज की टुकड़ी को साथ लेकर नीमच पर भी फतह हासिल कर ली। इन लड़ाइयों में मेवाड़ की तरफ से शिवदास काबरा (महाजन) और बाघसिंह (राजपूत) मारे गए। कप्तान शावर्स फ़ौज सहित उदयपुर आ गया।
1858 ई. में राजपूताने के मशहूर क्रांतिकारी आऊवा के ठाकुर कुशालसिंह चाम्पावत अंग्रेजों से आऊवा की लड़ाई में पराजित हुए और उन्होंने मेवाड़ में प्रवेश करके कोठारिया रावत जोधसिंह चौहान के यहां शरण ली। अंग्रेजी फौज कोठारिया पहुंची, लेकिन उन्हें ठाकुर कुशालसिंह के बारे में कुछ पता न चला।
जुलाई, 1858 ई. में मशहूर क्रांतिकारी तांत्या टोपे ने करीब 8000 क्रांतिकारियों के साथ मेवाड़ में प्रवेश करते हुए मांडलगढ़ के करीब पड़ाव डाला। बारिश होने की वजह से यह पड़ाव 2-3 दिन तक वहीं रहा, जिसके कारण मेवाड़ वालों को लगा कि तांत्या टोपे का इरादा मांडलगढ़ पर हमला करने का भी हो सकता है।
ये विचार करके महता स्वरूपचंद व गोकुलचंद ने 3000 राजपूतों की फौज को मांडलगढ़ की सुरक्षा ख़ातिर तैनात किया, पर तांत्या टोपे ने मेवाड़ को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। तांत्या टोपे मेवाड़ में छापामार लड़ाई लड़ते हुए अंग्रेजी फौज से छोटी-बड़ी कई लड़ाइयां लड़े। तांत्या टोपे ने झालावाड़, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा में भी प्रवेश किया।
20 नवम्बर, 1858 ई. को गवर्नर जनरल की ओर से महारानी विक्टोरिया का एक घोषणा पत्र महाराणा स्वरूपसिंह के पास आया, जिसे दरबार में पढ़कर सुनाया गया। इस घोषणा पत्र में ये बातें लिखी थीं :-
(1) अब तक हिंदुस्तान पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार था, पर अब हमने इसे अपने अधिकार में ले लिया है। (2) ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए गए पुराने सभी करार स्वीकार किए जाते हैं। (3) हिंदुस्तान का जो प्रदेश हमारे अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है, हम उसे नहीं बढ़ाएंगे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)