1857 की प्रसिद्ध क्रांति की बात आती है, तो यह प्रश्न अवश्य उठता है कि राजपूताने के राजाओं ने इस क्रांति में अंग्रेजों का साथ क्यों दिया।
यहां तक की मेवाड़ जैसी रियासत जिसने सदियों से आक्रमणकारियों के विरुद्ध अनेकों बलिदान दिए, उस रियासत के महाराणा ने भी अंग्रेजों का साथ कैसे दे दिया।
सामान्य लोगों की जानकारी यहीं तक सीमित है कि “जो अंग्रेजों के साथ थे वे गद्दार थे और जो विरोधी थे वे क्रांतिकारी थे।”
ये बात इतनी सीधी नहीं थी। आख़िर ऐसा क्या हुआ कि अधिकतर राजपूत सामंतों ने अंग्रेजों का विरोध किया, लेकिन शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया। इसकी व्याख्या कुछ इस तरह है :-
मराठों व पिंडारियों की लूटखसोट के कारण राजपूताने के राज्यों की ऐसी दशा हो गई थी कि उस दयनीय स्थिति पर अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है।
एक वक्त तो ऐसा आया कि होल्कर व सिंधिया ने मेवाड़ को महाराणा से छीनकर आधा-आधा बांटने को लेकर सुलह कर ली थी। यही दशा लगभग सभी रियासतों की थी।
प्रजा भूख से मर रही थी, देश छोड़कर लगातार पलायन कर रही थी, लूटखसोट के बाद उनके घर जलाए जा रहे थे। ऐसी स्थिति में राजाओं को एक ही उम्मीद की किरण दिखाई दी – अंग्रेज सरकार।
अंग्रेजों से सन्धि के बाद लूटमार बिल्कुल बन्द हो गई। फिर अंग्रेजों ने इन रियासतों की प्रबन्ध व्यवस्था को बेहतर बनाया।
ज़ाहिर सी बात है कि इसमें उनका अपना स्वार्थ था, क्योंकि रियासतों की प्रबन्ध व्यवस्था बेहतर होगी, तभी रियासतें आर्थिक रूप से सक्षम हो सकेंगी और प्रजा कर (टैक्स) देने लायक हो सकेगी।
प्रबन्ध व्यवस्था बेहतर कर दी गई, खेती और व्यापार को जगह-जगह तरक्की तक पहुंचाने की कोशिश की गई। जो लोग पलायन कर गए थे, वे पुनः अपने-अपने इलाकों में जाकर बसने लगे।
इस समयकाल में रियासतों के सामंतों और वहां के शासक के बीच में व्यवहार बिगड़ गए, क्योंकि अंग्रेजों से सन्धि होने से पहले लूटमार के कारण शासक कमज़ोर हो गए थे,
जिसके बाद सामंतों ने शासकों के आदेशों को मानना बन्द कर दिया या कम कर दिया और शासक को अपनी जागीर की आय का एक हिस्सा भेजना भी बंद कर दिया।
अंग्रेजों से सन्धि होने के बाद अंग्रेज सरकार ने इन सामंतों से जबरन यह सन्धि करवाई कि वे शासक के आदेशों का पालन करे।
ज़ाहिर है कि इसमें भी अंग्रेज सरकार का स्वार्थ था, क्योंकि शासक के पास जागीरों की आय का एक हिस्सा नहीं पहुंचेगा, तो अंग्रेज सरकार को भी उसमें से हिस्सा नहीं मिलेगा।
यह मूल कारण था, जिससे सामन्त वर्ग और शासक के बीच में मतभेद और बढ़ गए और अधिकतर सामंतों ने 1857 क्रांति के समय अंग्रेज सरकार का विरोध व क्रांतिकारियों को शरण दी।
1857 की क्रांति का तात्कालिक कारण भले ही राइफलों में गाय व सुअर की चर्बी मिलाना रहा हो, परन्तु मूल कारण था डलहौजी की हड़प नीति। डलहौजी की हड़प नीति का सिद्धांत था कि कोई भी शासक गोद ली हुई सन्तान को गद्दी पर नहीं बिठा सकता।
यही कारण था कि इस क्रांति के मुख्य नेतृत्वकर्ताओं में अधिकतर वे शासक थे, जिनकी या तो पेंशन बन्द कर दी गई थी या राज्य व महल हड़प लिए गए थे।
डलहौजी की हड़प नीति से पीड़ित शासक वर्ग ने मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को मुगल तख़्त पर बिठा दिया, जिसका अर्थ था अंग्रेजों से केंद्रीय सत्ता छीनकर फिर से मुगलों के हाथों में आना।
राजपूताने के कई सामंतों ने अंग्रेज सरकार का विरोध किया, जिसमें आऊवा के ठाकुर कुशालसिंह का नाम अव्वल दर्जा रखता है। मेवाड़ के सलूम्बर, कोठारिया आदि रियासतों के सामंतों ने क्रांतिकारियों को शरण दी।
राजपूताने के शासक वर्ग कभी अंग्रेज सरकार की पेंशन पर ज़िंदा नहीं रहे। इन राजाओं से राज्य चलाने के अधिकार नहीं छीने गए थे, इसलिए पेंशन का प्रश्न ही नहीं उठता था।
अब तक अंग्रेज सरकार ने इन शासकों के अधिकारों और रियासतों की सुरक्षा की थी, जिसके बदले में 1857 क्रांति में इन शासकों ने अंग्रेज सरकार का सहयोग किया।
जिसने आपके अधिकारों की रक्षा की, आपने समय आने पर उनके अधिकारों की रक्षा की और जिन्होंने आपके अधिकारों का हनन किया, आपने समय आने पर उनसे अधिकार छीनने का प्रयास किया।
इस पूरे लेख का आशय यही है कि वर्तमान समय में किसी पर भी उंगली उठाना, उन्हें गद्दार करार करना आसान है, परन्तु उस समय की परिस्थितियों में जिसे जो सही लगा, उसने वो किया।
बहरहाल, इस लेख को पूरी निष्पक्षता से लिखा गया है, परन्तु फिर भी सम्भव है कि कुछ लकीर के फकीरों को इतनी उथल-पुथल भरी बातें समझ में न आए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
बहुत अच्छा
तांत्या टोपे ने कुछ समय तक राजपूताने में रहकर अंग्रेज़ों से संघर्ष किया था, निश्चय ही शासक नहीं तो सामंतों व जागीरदारों व प्रजा ने उनकी कुछ तो सहायता की होगी. इसलिये आपकी बात से सहमत हूँ.