मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह (भाग – 13)

चापलूसी भरी बातों का हास्य से समाधान :- महाराणा स्वरूपसिंह ने अपने सरदारों में एक बात पर गौर किया कि वे महाराणा की हर बात पर हां में हां मिलाया करते थे, भले ही महाराणा गलत बात ही क्यों न कर दे।

एक दिन महाराणा ने जान बूझकर एक बड़ी चट्टान की तरफ देखकर कहा कि “मेरे बचपन में यह चट्टान बहुत छोटी थी, अब बड़ी हो गई है”

सब सरदारों ने महाराणा की हां में हां मिला दी, पर एक सरदार ने कहा कि “पत्थर तो बढ़ता नहीं, हुज़ूर की नज़र में फ़र्क़ हो तो बात दूसरी है”। महाराणा उन सरदार पर खुश हुए और बाकी सबसे कहा कि मेरी उसी बात पर हां में हां मिलाओ जो सही लगे।

1856 ई. – गोपाल पाणेरी को क़ैद करना :- गोपाल पाणेरी नामक एक ब्राह्मण था। महाराणा का विश्वासपात्र होने के कारण उसको धर्माध्यक्ष व खबरनवीसी का काम सौंपा गया। वास्तव में गोपाल पाणेरी निहायत घटिया किस्म का शख्स था, जो धर्माधर्म पर ज्यादा विचार न करके जालसाजी और दग़ाबाज़ी किया करता था।

महाराणा स्वरूपसिंह

परन्तु शातिर होने के कारण उसका सच सामने नहीं आ पा रहा था। महाराणा को उस पर विश्वास इसलिए था, क्योंकि महाराणा उसे जो भी काम सौंपते, उसे वह बहुत जल्द पूरा कर देता था।

यहां तक कि जिस काम को करने के लिए उसको 7 दिन को मोहलत दी जाती, उसे वह 2 ही दिन में कर देता था। जो लोग उसकी शिकायत महाराणा से करते, तो महाराणा को यही लगता कि शासक के वफादार शख्स की अक्सर झूठी शिकायतें होती हैं।

महाराणा ने गोपाल को ख़ैरातखाने का दारोगा भी नियुक्त कर दिया। खैरातखाना उसे कहते थे, जहां दान दक्षिणा और गरीबों को रुपए देने के लिए खज़ाना रखा जाता था। गोपाल ने खैरातखाने का बहुत सा रुपया ख़ुद पर ख़र्च कर दिया।

जो कोई शख्स गोपाल के विरुद्ध जाता, उसको वह रिश्वत, जादू टोने और राजद्रोह जैसे आरोप में फंसाकर क़ैद करवा देता और उसका सारा सामान ज़ब्त किया जाता। ज़ब्त सामान तो महाराणा के पास पहुंच जाता, लेकिन उसमें से बहुत कुछ गोपाल पहले ही निकाल लेता था।

गोपाल की जालसाजी एक दिन महाराणा स्वरूपसिंह को पता चली। महाराणा को उस पर बड़ा क्रोध आया और सबसे ज्यादा क्रोध इस बात पर आया कि उसने ख़ैरातखाने का रुपया हड़प लिया, जो कि नेक कार्यों के लिए ख़र्च किया जाना था।

इस घटना से मालूम पड़ता है कि उस ज़माने में लालची लोग किस हद तक जा सकते थे। 31 मार्च, 1856 ई. को महाराणा ने गोपाल को गिरफ़्तार कर लिया और उसके घर की तलाशी ली गई, जहां बहुत सा सोना महाराणा को मिला।

गोवर्द्धनविलास में महल बनवाना :- 1856 ई. में महाराणा स्वरूपसिंह गोवर्द्धनविलास में रहने लगे। इसी वर्ष से वहां महल आदि बनवाने का काम शुरू किया गया। 23 अप्रैल, 1856 ई. को कप्तान शावर्स मेवाड़ का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त हुआ।

महाराणा स्वरूपसिंह

गोकुलचंद को मेवाड़ का प्रधान नियुक्त करना :- 27 दिसंबर, 1856 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने महता शेरसिंह के स्थान पर महता स्वरूपचंद के पुत्र गोकुलचंद को खिलअत प्रदान करके प्रधान पद पर नियुक्त किया।

महाराणा के काका महाराज दलसिंह, कायस्थ हरनाथ व ढींकड्या उदयराम को आदेश दिया गया कि रिवाज़ के मुताबिक गोकुलचंद को उनके मकान पर सम्मान सहित पहुंचा दिया जाए।

बिजोलिया का बखेड़ा :- बिजोलिया के सरदार केशवदास पंवार के पुत्र शिवसिंह के 3 पुत्र थे :- गिरधरदास, नाथसिंह व गोविन्ददास। केशवदास के जीते जी उनके पुत्र शिवसिंह व पौत्र गिरधरदास का देहांत हो गया।

गिरधरदास की पत्नी ने केशवदास की सलाह लेकर नाथसिंह का हक़ ख़ारिज करते हुए अपने देवर गोविन्ददास को गोद ले लिया।

1847 ई. में केशवदास ने महाराणा स्वरूपसिंह के पास एक अर्ज़ी भेजी, जिसमें लिखा था कि “मेरे मरने के बाद मेरे सबसे छोटे पौत्र गोविन्ददास को बिजोलिया का मालिक बनाया जावे।”

महाराणा ने इस बात को मंज़ूरी दे दी, जिसके बाद केशवदास से गोविन्ददास की गद्दीनशीनी के नज़राने के तौर पर 20 हज़ार रुपए महाराणा ने ले लिए। साथ ही महाराणा ने ये आज्ञा भी दी कि नाथसिंह के निर्वाह के लिए उनको बिजोलिया जागीर में ही 1600 रुपए वार्षिक आय का कोई गांव दिया जाए।

केशवदास के जीते जी तो बिजोलिया में कोई झगड़ा नहीं हुआ, लेकिन 1856 ई. में उनका देहांत होने के बाद 3 वर्षों तक गोविन्ददास और नाथसिंह के बीच लड़ाई-झगड़े होते रहे। फिर नाथसिंह का देहांत हो गया, जिसके बाद झगड़ा स्वतः समाप्त हो गया और गोविन्ददास बिजोलिया के मालिक बन गए।

बिजोलिया गढ़

चारण आढ़ा कृष्णदास का देहांत :- 21 अक्टूबर, 1856 ई. को चारण आढ़ा कृष्णदास का देहांत हो गया। उनके भतीजे रामलाल को गोद लेकर उनको कृष्णदास की जगह कायम किया गया। 10 नवम्बर को महाराणा ने रामलाल को हाथी, खिलअत व मोतियों की कंठी प्रदान की।

कृष्णदास का खानदान कभी भी सिसोदिया राजपूतों के अलावा किसी अन्य राजपूत से कोई धन वगैरह नहीं लेता था, क्योंकि महाराणा भीमसिंह ने इस खानदान वालों के लिए सीसोदा गांव की जागीर दी थी।

सिसोदिया राजपूतों के लिए ये गांव बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि कहा जाता है कि राणा राहप के सीसा पीने की घटना इसी गांव में घटी, इसलिए सीसोदा से सिसोदिया वंश का नाम पड़ा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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