मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह जी (भाग – 14)

1853 ई. – डाकन प्रथा पर रोक :- विशेष रूप से मेवाड़ में एक कुप्रथा चल पड़ी थी, जिसको डाकन प्रथा कहा गया। इस प्रथा में अनपढ़ जाहिल लोग किसी एक औरत पर डाकन होने का इल्जाम लगाकर कहते थे कि जो भी उनके नज़दीक में किसी की मौत या कुछ अनहोनी हुई, वो उस औरत के कारण हुई।

फिर उस औरत को डाकन करार करके कांटों में डालकर ज़िंदा जला देते थे या सिर काट डालते या किसी दरख़्त से उल्टा लटकाकर मारते थे। कई बार औरत का सिर मुंडवाकर उसे गधे पर बिठाकर घुमाया जाता।

(विडम्बना है कि वर्तमान समय में भी कभी-कभार ऐसी घटनाएं पढ़ने को मिलती है। आज भी पहाड़ी इलाकों में अनपढ़ लोगों में कहीं-कहीं यह रिवाज़ चल रहा है, जिस पर सख़्ती से रोक लगाई जानी चाहिए।)

कविराजा श्यामलदास अपनी पुस्तक वीरविनोद में लिखते हैं कि “यह ज़ालिम रिवाज़ मैंने अपनी आंखों से देखा हुआ है और गवर्नमेंट अंग्रेजी ने इसको बन्द किया। वैसे तो अब तक हज़ारों आदमियों के दिलों में औरत के डाकन होने का ख़्याल जमा हुआ है, लेकिन धीरे-धीरे यह ख़्याल कम होता जा रहा है।

मैंने इस बारे में लोगों की तसल्ली के लिए बहुत सी कोशिश की। मैंने लोगों से कहा कि अगर कोई शख्स मेरे सामने किसी औरत को डाकन साबित कर दे, तो मैं उसको 500 रुपए का इनाम दूंगा।

कविराजा श्यामलदास

वैसे बहुत सी औरतें ऐसी भी हैं जो बेशर्मी इख़्तियार करते हुए डाकन होना कुबूल कर लेती हैं, ताकि हर किसी शख्स को धमकाकर उससे कपड़े, ज़ेवर, अनाज वग़ैरह लेकर अपना गुज़ारा कर सके। गवर्नमेंट अंग्रेजी ने इस रिवाज़ को बंद करवाकर बड़ी मिहरबानी की है।”

महाराणा स्वरूपसिंह ने यह आदेश जारी किया कि जो कोई शख्स किसी औरत को डाकन करार देकर उसे पिटेगा, उसे 6 माह तक क़ैदख़ाने में रखा जाएगा और अगर उस औरत को मार दिया जाता है, तो मारने वाले को वही सज़ा मिलेगी, जो एक हत्यारे को मिलती है।

इस आदेश के उपरांत भी डाकन प्रथा पूर्ण रूप से खत्म नहीं हुई, बल्कि इस आदेश के बाद नकली डाकन बनकर लोगों को लूटने वाली महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो गई। क्योंकि उन महिलाओं को विश्वास हो गया कि अब लोग उन्हें मार पीट नहीं सकते।

बाद में महाराणा सज्जनसिंह ने इन झूठी महिलाओं को देश निकाला देना प्रारम्भ कर दिया, जिसका वर्णन महाराणा सज्जनसिंह के इतिहास में विस्तार से किया जाएगा।

महाराणा स्वरूपसिंह

1857 ई. – आमेट का बखेड़ा :- आमेट के रावत पृथ्वीसिंह का देहांत हो गया। इनके कोई पुत्र नहीं था। आमेट वालों ने जीलोला के सरदार दुर्जनसिंह के ज्येष्ठ पुत्र चतरसिंह को गद्दी पर बैठाना चाहा, जो कि वास्तव में सबसे नज़दीकी दावेदार थे।

पर बेमाली के सरदार जालिमसिंह ने अपने दूसरे बेटे अमरसिंह को आमेट की गद्दी दिलानी चाही, जो कि दूर के रिश्तेदार थे और आमेट की गद्दी के दावेदार नहीं थे। जालिमसिंह ने स्वर्गीय रावत पृथ्वीसिंह की माता और पत्नी को अपनी तरफ मिला लिया।

कोठारिया, देवगढ़, कानोड़, बदनोर, ताल, भैंसरोड, कोशीथल आदि ठिकानों के सरदारों ने वास्तविक उत्तराधिकारी चतरसिंह का पक्ष लिया। सलूम्बर, भींडर, गोगुन्दा, कुराबड़, बागोर, बनेड़ा, लसाणी, मान्यावास आदि ठिकानों ने अमरसिंह का पक्ष लिया, जो वास्तविक हक़दार नहीं थे।

महाराणा स्वरूपसिंह की स्वीकृति प्राप्त करने की लिए दोनों पक्षों ने उनके पास अर्ज़ियाँ भिजवाई। बात बढ़ती देखकर महाराणा ने एक राजनैतिक चाल चली, जो अनैतिक साबित हुई। महाराणा स्वरूपसिंह काफी समझदार थे, लेकिन फिर भी इस जगह उनसे चूक हुई।

महाराणा स्वरूपसिंह

उन्होंने जीलोला के सरदार को आमेट पर अधिकार कर लेने की गुप्त रीति से सलाह दी और दूसरी तरफ अमरसिंह के प्रतिनिधि ओंकार व्यास से तलवार बन्दी के 44 हजार रुपए और प्रधान की दस्तूरी के 4000 रुपए का रुक्का लिखवा लिया।

महाराणा की सलाह से चतरसिंह ने 2000 राजपूतों की फौज समेत आमेट पर चढ़ाई की और गढ़ घेरकर प्रवेश किया।

गढ़ में बेमाली के सरदार रावत जालिमसिंह और लसाणी के जागीरदार ठाकुर सुल्तानसिंह से लड़ाई हुई, जिसमें जालिमसिंह के ज्येष्ठ पुत्र पद्मसिंह काम आए व ठाकुर सुल्तानसिंह ने ज़ख्मी होकर कुछ दिन बाद प्राण त्याग दिए।

महाराणा की इन गुप्त कार्रवाइयों का पता चलने पर अमरसिंह के सहयोगियों ने अंग्रेज सरकार से शिकायत कर दी।

अंग्रेज सरकार के दखल के कारण महाराणा ने चतरसिंह की तलवार बंदी रुकवाकर उदयपुर बुला लिया और सही समय देखकर 3 वर्ष बाद उनको आमेट की गद्दी पर बिठा दिया।

यदि महाराणा स्वरूपसिंह चाहते तो ये बखेड़ा रुकवा सकते थे। क्योंकि जो वैध हक़दार था, उसको मालिक बनाया जा सकता था और अन्य को कोई छोटी-बड़ी जागीर देकर सन्तुष्ट किया जा सकता था।

अगले भाग में 1857 ई. की क्रांति का मेवाड़ से जो सम्बन्ध था, उसका विस्तार से वर्णन किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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