मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह जी (भाग – 12)

महाराणा स्वरूपसिंह व उनके सामंतों के बीच इकरारनामा :- 1855 ई. को पोलिटिकल एजेंट जॉर्ज लॉरेंस ने मध्यस्थता करते हुए महाराणा स्वरूपसिंह व उनके सामंतों के बीच विवादों का निपटारा करने के लिए एक इकरारनामा लिखवाया।

इस इकरारनामे में कुछ शर्तें ऐसी थीं, जो महाराणा स्वरूपसिंह को नागवार गुज़रीं, जैसे सरदारों को गोद लेने जैसा विशेष अधिकार मिलना, मात्र 3 माह तक महाराणा की सेवा में रहना आदि।

इनमें भी जो शर्त महाराणा को सबसे ज्यादा नापसन्द हुई, वह ये थी कि महाराणा और सरदारों के बीच विवादों का समाधान अंग्रेज सरकार द्वारा नियुक्त पोलिटिकल एजेंट किया करे। सरदारों को भी ये इकरारनामा ज्यादा पसंद नहीं आया, क्योंकि कुछ शर्तें उन्हें भी रास नहीं आईं।

हालांकि महाराणा इस इकरारनामे के ज्यादा विरोधी थे, फिर भी उन्होंने इस पर हस्ताक्षर कर दिए, क्योंकि इस इकरारनामे में यह भी लिखा था कि इसकी शर्तें मंज़ूर न की जाने पर सरदार ही दोषी समझे जाएंगे।

सादड़ी, बेदला, बेगूं, देलवाड़ा, आसींद आदि ठिकानों के सरदारों ने हस्ताक्षर कर दिए, लेकिन सलूम्बर, कानोड़, गोगुन्दा, देवगढ़, भैंसरोड, बदनोर आदि ठिकानों के सरदारों ने हस्ताक्षर नहीं किए। जुलाई, 1855 ई. को अंग्रेज सरकार ने एक फ़रमान जारी किया, जिसमें लिखा था कि

महाराणा स्वरूपसिंह

“इस इकरारनामे पर हस्ताक्षर करने के लिए जो 3 माह की अवधि दी गई थी, वह अब पूरी हो चुकी है। अब तक जिन सरदारों ने महाराणा और अंग्रेज सरकार की आज्ञा का पालन नहीं किया है और छटूंद (जागीरदारों की आय का छठा हिस्सा) महाराणा को नहीं देने वाले व महाराणा की चाकरी न करने वाले सरदारों के गांव ज़ब्त किए जाएंगे।”

सलूम्बर का सावा, देवगढ़ का मोकरुंदा, भींडर का भादौड़ा व गोगुन्दा का रावला गांव ज़ब्त किया गया। दिसम्बर, 1855 ई. में कर्नल जॉर्ज लॉरेंस ने खेरोदा में उन सरदारों को बुलाया, जिन्होंने हस्ताक्षर नहीं किए थे।

सरदारों ने अपनी-अपनी समस्याएं सामने रखीं। सरदारों से कहा गया कि आप लोगों के जो भी उज़्र (मना करने के कारण) हैं, उनका समाधान इस इकरारनामे पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद कर देंगे।

ये सुनकर भैंसरोड, कानोड़, देवगढ़ व बदनोर ठिकानों के सरदारों ने हस्ताक्षर कर दिए, लेकिन अभी भी सलूम्बर, भींडर व गोगुन्दा ठिकानों के सरदारों ने हस्ताक्षर नहीं किए।

फिर राजपूताने के ए.जी.जी कर्नल हेनरी लॉरेंस और पोलिटिकल एजेंट जॉर्ज लॉरेंस ने उदयपुर जाकर महाराणा से कहा कि “अगर आप इस इकरारनामे से कुछ शर्तें हटा दें, तो बाकी के सरदार भी इस पर हस्ताक्षर कर देंगे।”

उदयपुर सिटी पैलेस

महाराणा ने ऐसा करने से साफ़ इनकार कर दिया, तो उक्त दोनों अफ़सर वहां से नाराज़ होकर चले गए और उन्होंने अंग्रेज सरकार को लिखा कि “इकरारनामे को लेकर न तो महाराणा राज़ी हैं और ना उनके सरदार”

फिर अंग्रेज सरकार ने उक्त अफसरों को आदेश देकर लिखा कि “यह इकरारनामा रद्द समझा जाए और जो कुछ पहले हो रहा था, वह होने दिया जाए”। इकरारनामा रद्द होने के बाद जिन सरदारों के गांव ज़ब्त किए गए थे, उन सरदारों ने अपने गांवों से ज़ब्ती उठा दी।

डूंगरपुर के शासक का उदयपुर आगमन :- 14 दिसंबर, 1855 ई. को डूंगरपुर के रावल उदयसिंह उदयपुर आए, तो महाराणा स्वरूपसिंह उनकी पेशवाई हेतु नागों के अखाड़े तक गए। रावल उदयसिंह जब तक उदयपुर में ठहरे, उनकी अच्छी ख़ातिरदारी की गई।

महाराणा द्वारा स्वर्ण का तुलादान :- 6 फरवरी, 1856 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने दूसरी बार स्वर्ण का तुलादान किया। इस तुला में उदयपुर के तोल का एक मन बारह सेर नौ छटांक स्वर्ण दान किया गया।

महाराणा का न्याय :- एक दिन एक रेबारी एक ढोली की स्त्री को भगाकर उदयपुर ले गया और कुछ दिन बाद वह रेबारी उदयपुर के शुतुरखाने का ज़मादार बन गया। ढोली फ़रियाद लेकर महाराणा स्वरूपसिंह के पास आया।

महाराणा के आदेश से सैनिकों ने उसे धक्के देकर निकाल दिया और कहलवाया कि तेरे पास कोई साक्ष्य नहीं है, तू झूठा है। तब से वह रोज महलों के बाहर आकर महाराणा से फ़रियाद करता, तब महाराणा को लगा कि सम्भव है ये सच कह रहा हो, पर महाराणा को अब भी संशय था।

उदयपुर सिटी पैलेस

महाराणा ने रेबारी के पद में वृद्धि करके उससे कहा कि तू अपनी पत्नी को महारानी सा के पास भेज देना। रेबारी खुश हुआ और उसने उस ढोलीन को महारानी सा के पास भेज दिया।

महाराणा ने कुछ दिन बाद अंतःपुर की दासियों से कहा कि जो आज सबसे अच्छी ढोल बजायेगी, उसे बड़ा इनाम मिलेगा। इस पर वह ढोलीन भी लालच में आ गई और उसने सबसे बढ़िया ढोल बजाकर दिखाया।

महाराणा को अब यकीन हो गया और उन्होंने उस ढोलीन को उसके पति के सुपुर्द कर दिया और रेबारी को पद से हटाकर दंड दिया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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