मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह (भाग – 11)

अप्रैल, 1851 ई. – रीवां राजघराने से वैवाहिक संबंध :- महाराणा स्वरूपसिंह की बहन फूलकंवर का विवाह कोटा महाराव रामसिंह से होने के एक माह बाद महाराणा ने अपनी छोटी बहन सौभाग्य कंवर बाई का विवाह रीवां के महाराजकुमार रघुराज सिंह के साथ तय कर दिया।

इनके साथ भी महाराणा ने वही 4 शर्तें रखी जो कोटा महाराव के समक्ष रखी थीं। जब कुंवर रघुराज सिंह उदयपुर आए, तो महाराज शेरसिंह व महाराज दलसिंह उन्हें पेशवाई करके डेरों में ले आए। रात के वक़्त विवाह की रस्में अदा की गईं।

इन दोनों शादियों में कविराजा श्यामलदास भी मौजूद थे। मेवाड़ में हर एक रस्म पर रीवां वाले ताज्जुब कर रहे थे। मेवाड़ के राजपूत रीवां वालों का पहनावा और उनकी चाल-ढाल देखकर हंस रहे थे।

(ये हास परिहास वैसा ही था जैसा सगे सम्बन्धियों में होता है अर्थात किसी का अपमान करने जैसी मंशा नहीं थी, अधिक दूरी के कारण दोनों रियासतों के रीति रिवाज काफी अलग थे)

महाराणा स्वरूपसिंह ने कोटा वालों की बारात से भी ज्यादा आतिथ्य सत्कार रीवां वालों का किया। कुंवर रघुराज सिंह एकलिंगनाथजी, श्रीनाथजी, कांकरोली के दर्शन करके 13 मई को वापिस उदयपुर आए, तब स्वयं महाराणा स्वरूपसिंह पेशवाई हेतु गए।

इस विवाह के अवसर पर रीवां के महाराजकुमार ने अपनी बहन का विवाह महाराणा से करवाने का प्रस्ताव रखा, जिसे महाराणा ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उन्होंने इतनी दूर विवाह करने के लिए जाना ठीक न समझा।

महाराजकुमार रघुराज सिंह

कुंवर रघुराज सिंह ने 1 जून को राजकुमारी सहित रीवां के लिए प्रस्थान किया। जाते-जाते कुंवर ने अपनी बहिन की शादी की बात महाराणा से दोबारा करने के लिए अपने कुछ अनुभवी आदमियों को वहीं छोड़ दिया।

लेकिन महाराणा फिर भी न माने। तब कुंवर ने अपनी बहन का विवाह जयपुर के महाराजा रामसिंह के साथ तय कर दिया।

प्रबन्ध व्यवस्था :- जुलाई, 1851 ई. में केसरीसिंह कोठारी को साइर के काम पर मुकर्रर किया गया, जो कि पहले सेठ जोरावरमल के यहां ठेके पर काम करते थे। केसरीसिंह ने साइर का काम बड़ी ही खैरख्वाही के साथ किया।

महता शेरसिंह द्वारा दावत देना :- 12 अप्रैल, 1852 ई. को मेवाड़ के प्रधान महता शेरसिंह ने महाराणा स्वरूपसिंह व सभी रियासती लोगों को एक बड़ी दावत दी। इस अवसर पर शेरसिंह ने महाराणा को 10 हज़ार रुपए नज़र किए। महाराणा ने शेरसिंह व उनके पुत्रों को खिलअत आदि दी और 10 हज़ार रुपए वापिस लौटा दिए।

रावत खुमाणसिंह की तलवार बंधाई :- 27 जून, 1852 ई. को आसींद के रावत दूलहसिंह चुंडावत का देहांत हुआ। महाराणा स्वरूपसिंह ने रावत दूलहसिंह के पुत्र रावत खुमाणसिंह को बुलाकर तलवार बंधाई की रस्म अदा की और जो गांव महाराणा ने जब्त किए थे, वो गांव रावत दूलहसिंह की स्वामिभक्ति देखकर उनके पुत्र खुमाणसिंह को लौटा दिए।

महाराणा स्वरूपसिंह

दान पुण्य के कार्य :- 31 अक्टूबर, 1853 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने 400 अशर्फियाँ ब्राह्मणों को दान कीं। 4 नवम्बर, 1853 ई. को महाराणा ने ब्राम्हणों की 800 कन्याओं के विवाह हेतु 80 हजार रुपया दान किया अर्थात 100 रुपए प्रति कन्या के विवाह पर।

14 नवंबर, 1853 ई. को महाराणा ने स्वर्ण का तुलादान किया। 29 नवम्बर, 1853 ई. को महाराणा ने लक्ष दुर्गा माँ का पाठ करवाया, जिसके बाद ब्राम्हणों को ज़ेवर, खिलअत, नक़द वगैरह हज़ारों रुपया दान किया।

7 फरवरी, 1854 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह मानजी धायभाई के कुंड पर पधारे, जहां उन्होंने एक गौशाला बनवाई, जो बाद में गोवर्द्धन विलास नाम से प्रसिद्ध हुई।

श्यामलदास जी को भेंट :- राजपूताना के एजेंट गवर्नर जनरल ने श्यामलदास जी को तेजी से किताब पढ़ते हुए देखा तो खुशी से 2 किताबें उनको दीं, जिनमें से एक गंगा नहर से संबंधित थी व दूसरी शीतला के टीके से संबंधित थी।

देवली में छावनी तैनात करना :- फरवरी, 1855 ई. को राजपूताना के गवर्नर जनरल व पोलिटिकल एजेंट शाहपुरा, बनेड़ा, राजनगर, नाथद्वारा का दौरा करते हुए 14 फरवरी को उदयपुर आए और 15 दिन तक यहीं ठहरे।

खैराड़ के मीणों ने उत्पात मचाया, जिस वजह से मेवाड़, जयपुर, अजमेर व बूंदी की सरहदों के संगम पर देवली में एक छावनी तैनात की गई व निगरानी के लिए थाने मुकर्रर किए गए।

एकलिंगेश्वर के गोस्वामी का देहांत :- 20 अगस्त, 1855 ई. को एकलिंगेश्वर के गोस्वामी सवाई शिवानंद का देहांत हो गया, जिनकी जगह उदयपुर के भटमेवाड़ा ब्राह्मण देवराम को ब्रह्मचर्य दिलाया गया और संन्यास धारण करवाकर सवाई प्रकाशानंद के नाम से गद्दी पर बिठाया गया।

एकलिंग जी मंदिर

इस अवसर पर उन्हें महाराणा स्वरूपसिंह की तरफ से 8 हजार रुपए वाली जागीर, हाथी-घोड़े, ज़ेवर वगैरह भेंट किये गए। एकलिंग जी के यथाविधि पूजा व प्रबन्ध हेतु एक अलग से ख़ज़ाना मुकर्रर किया गया, जिसमें इस वक्त तक लाखों रुपए का सामान मौजूद था।

भीलों के उपद्रव का दमन :- 1 नवम्बर, 1855 ई. को उदयपुर के पश्चिमी इलाके कालीवास के भील बागी हो गए, जिनको सज़ा देने के लिए महाराणा स्वरूपसिंह ने महता शेरसिंह के पुत्र सवाईसिंह को फौज समेत भेजा। ये उपद्रव सवाईसिंह द्वारा बुरी तरह कुचल दिया गया। कई भील मारे गए व बहुत से कैद हुए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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