1852 ई. – पुरावत राजपूतों के गढ़ आर्ज्या पर चढ़ाई :- आर्ज्या में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के पुत्र पुरणमल जी के वंशज बख्तसिंह ने किला बनवाया था। फिर महाराणा जवानसिंह ने पुरावतों के पुश्तैनी ठिकाने आर्ज्या को अपने मामा कुबरेसिंह चावड़ा व जालिमसिंह को सौंप दिया।
जालिमसिंह की एक पुत्री महाराणा स्वरूपसिंह को ब्याही गई थी, इसलिए जालिमसिंह पर महाराणा की विशेष कृपा थी। कुबरेसिंह चावड़ा व जालिमसिंह उदयपुर में रहते थे। उन्होंने आर्ज्या में बेचर नामक एक व्यक्ति को मुख़्तार बना रखा था।
इस वक्त आर्ज्या ठिकाने पर दावा करने वाले पुरावतों के वंशज चन्दनसिंह पुरावत थे। बेचर ने चन्दनसिंह को तंग करना शुरू किया।
कुछ लोगों ने चन्दनसिंह को सलाह दी कि सलूम्बर और देवगढ़ वालों ने भी अपने-अपने ठिकानों से महाराणा की ज़ब्ती उठा दी है, तुम भी आर्ज्या से चावड़ों को निकाल दो।
चंदनसिंह पुरावत ने उन लोगों की बातों में आकर महाराणा से बिना पूछे ही चावड़ा राजपूतों के किलेदार बेचर को क़ैद कर आर्ज्या पर पुनः अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
इसके बाद चन्दनसिंह, नवलसिंह (चन्दनसिंह के भाई), औनाड़सिंह आदि ने खुमाणसिंह शेखावत सहित 5-10 आदमी इकट्ठे किए और अन्न, तम्बाकू, तेल, घी, गुड़ वगैरह सामान इकट्ठा करके किले में जमा करके किले के द्वार बंद कर दिए।
17 अक्टूबर, 1852 ई. को जालिमसिंह ने सारा हाल महाराणा स्वरूपसिंह को कह सुनाया, जिससे महाराणा बहुत नाराज हुए, पर उन्होंने इस मसले को पोलिटिकल ढंग से निपटाना चाहा।
महाराणा ने महाराज चंदसिंह की तरफ से राधाकृष्ण को एक कागज देकर आर्ज्या भेजा और कहलवाया कि यह कागज़ चन्दनसिंह को दे देना। राधाकृष्ण 25 अक्टूबर को आर्ज्या पहुंचे। राधाकृष्ण के साथ चीमा, करावल आदि 2-3 आदमी और थे।
बड़ी मुश्किल से राधाकृष्ण आर्ज्या के किले के करीब पहुंच पाए। चीमा व करावल को तो गांव में आने ही नहीं दिया गया। चन्दनसिंह की तरफ से उनके भाई नवलसिंह किले से बाहर आए और राधाकृष्ण से मिले।
नवलसिंह ने राधाकृष्ण से कहा कि “हमें महाराज चंदसिंह पर भरोसा नहीं है, लेकिन महाराणा हमारे पिता समान हैं, यदि उनके नाम से चन्दनसिंह के लिए परवाना आएगा, तो हम उदयपुर आ जाएंगे।”
राधाकृष्ण ने भीलवाड़ा पहुंचकर यह बात एक ख़त में लिखकर महाराणा को भेज दी। फिर महाराणा ने सियाणा के पंवार देवीसिंह, पहूना के राणावत देवीसिंह, भूणावास के बाबा बाघसिंह और मंगरोप के बाबा गिरवरसिंह व भीलवाड़ा के हाकिम गोकुलचंद को फौज समेत भेजकर कहा कि आर्ज्या पर नाकेबंदी कर दो और चंदनसिंह को समझाओ। उससे कहो कि अगर वह उदयपुर आ जाएगा, तो उसकी इज़्ज़त में कोई फ़र्क़ नहीं आ जाएगा।
इन्हीं दिनों चंदनसिंह पुरावत ने गोगुन्दा के लालसिंह झाला और भींडर के महाराज हमीरसिंह शक्तावत से फौजी मदद मांगने के लिए संदेश वाहक रवाना किए, जो महाराणा के सैनिकों द्वारा पकड़े गए।
ख़त में लिखा था कि आप ही के कहने पर हमने बग़ावत का रास्ता इख्तियार किया था। (हालांकि आर्ज्या ठिकाने के इतिहास में लिखा है कि उनको बनेड़ा के राजा संग्रामसिंह ने बहकाया था)
महाराणा ने 2 तोपों समेत खैराड़ की फौजी टुकड़ी, भीम पलटन और एकलिंग पलटन की फौजी टुकड़ियों को गोकुलचंद के नेतृत्व में आर्ज्या पर हमला करने भेजा।
महाराणा की फौज में शामिल योद्धा :- मंगरोप के बाबा गिरवरसिंह, गुडलां के बाबा हमीरसिंह, गाडरमाला के बाबा धीरतसिंह, आठूण के बाबा देवीसिंह, सूरास के जागीरदार नवलसिंह, जवास्या के जागीरदार भवानीसिंह, आकोला के जागीरदार माधवसिंह,
हमीरगढ़ के रावत शार्दूलसिंह, खैराबाद के बाबा जोधसिंह, मण्डप्या के बाबा जालिमसिंह, बरसल्यावास के बाबा भवानीसिंह, बाँसडा के बाबा रणमलसिंह, भूणावास के बाबा बाघसिंह, पहूना के जागीरदार देवीसिंह, महुवा के जागीरदार के बेटे जवानसिंह,
रूद के जागीरदार वीरमदेव के भाई दूलहसिंह, बड़ी भादू के जागीरदार के भाई जोरावरसिंह, कैर्या के बाबा जोरावरसिंह के काका चत्रशाल, पानसल के जागीरदार हरनाथसिंह, नीबाहेड़ा के जागीरदार वीरमदेव, छोटी रूपाहेली के जागीरदार, महता गोकुलचंद, पुर-मांडल के सभी भोमिया।
ऊपर लिखित सभी जागीरदार आदि अपने-अपने ठिकानों की फ़ौज समेत आए थे। इन सबके अलावा पलटनों की फ़ौजी संख्या 2 हज़ार थी। 10 नवम्बर, 1852 ई. को महाराणा की फौज आर्ज्या पहुंची और किले वालों को हिदायत दी। उस वक्त किलेवालों ने नरमी से बात की, पर रात के वक़्त किले के मोर्चों से पत्थर फेंकना शुरू कर दिया।
महाराणा के अफसरों ने अगले दिन 11 नवम्बर को फिर से किले वालों को समझाने के प्रयास किए, पर उन्होंने समझने की बजाय गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे छोटी भादू ठिकाने के कर्णसिंह चुंडावत छाती में गोली लगने से वीरगति को प्राप्त हुए।
दोनों तरफ से लड़ाई शुरू हुई। महाराणा की फ़ौज ने किले के दरवाजों पर तोपों के गोले दागे। इसी दौरान चन्दनसिंह पुरावत को एक गोली लगी और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया। इस बारे में अलग-अलग बयान सुने जाते हैं।
कुछ का कहना कि किले के ही खुमाणसिंह शेखावत ने चन्दनसिंह को मार दिया, कुछ का कहना है कि महाराणा की फ़ौज के हमले से ही चंदनसिंह की मृत्यु हुई, सींगोली के बाबा मानसिंह का बयान है कि फ़ौज के मोर्चों में से ही चन्दनसिंह से अदावत रखने वाले लोगों ने एक आदमी को दरख़्त पर चढ़ाकर चन्दनसिंह को गोली मरवाई।
24 नवम्बर को चन्दनसिंह के भाई नवलसिंह किले से भाग निकले। नवलसिंह पर गोलियां चलाई गई, पर वे बचने में सफल रहे। औनाडसिंह, खुमाणसिंह शेखावत समेत 3-4 आदमी गिरफ्तार किए गए व 5-7 भाग निकले।
चन्दनसिंह पुरावत की एक बहन, जो किले में थी, उनको मंगरोप के बाबा गिरवरसिंह पुरावत के सुपुर्द किया गया। उदयपुर में लाए जाने के बाद औनाडसिंह को तो क़ैदखाने भेजा गया और खुमाणसिंह की दाढ़ी जलाकर मेवाड़ से बाहर निकाल दिया गया।
किला जीतकर कुछ समय बाद चावड़ा राजपूतों को सौंप दिया गया और महाराणा स्वरूपसिंह ने गोकुलचंद महता को मोतियों की माला व सिरोपाव भेंट किया।
लेखक का निजी मत :- इस पूरे प्रकरण में चन्दनसिंह पुरावत को चाहिए था कि स्वार्थी लोगों के बहकावे में आए बग़ैर नरमी से अपनी बात महाराणा के सामने रखते, क्योंकि चन्दनसिंह का आर्ज्या के किले पर दावा साबित था। अपने पुश्तैनी किले पर हक़ जताने की वैध मांग पर महाराणा को भी चन्दनसिंह की बात माननी ही पड़ती।
हालांकि इस मामले में शुरुआती गलती महाराणा जवानसिंह की थी, क्योंकि अपने काबिल सरदारों से उनकी पुश्तैनी ज़मीन बग़ैर किसी दोष के छीनकर अपने सम्बन्धियों को देना निश्चित ही भविष्य में झगड़े की नींव रखने के समान था।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)