मीणा विद्रोह व दमन (1851 ई.-1854 ई.) – पहले मेवाड़ में जहाजपुर के परगने में प्रधान के भाई या बेटे को हाकिम नियुक्त किया जाता था, जिससे इस परगने से जितनी आय होती थी, वह महाराणा तक नहीं पहुंचती थी, बल्कि महाराणा की तरफ से और ख़र्च भेजा जाता था।
इसलिए महाराणा स्वरूपसिंह ने जहाजपुर पर महता रघुनाथसिंह को मुकर्रर किया, जिन्होंने बड़ी काबिलियत से इस परगने को संभाला, जिससे आय में बढ़ोतरी हुई। लेकिन इन्हीं दिनों आदिवासी मीणा जाति के लोगों ने जहाजपुर-अजमेर तक के इलाकों में भारी लूटमार की।
महाराणा स्वरूपसिंह ने जहाजपुर से महता रघुनाथसिंह को बुला लिया और उनकी जगह महता अजीतसिंह को फौज समेत विदा किया। महता रघुनाथसिंह को रासमी, गलूण्ड, सहाड़ा, रेलमगरा इलाके सौंप दिए गए।
अजीतसिंह ने जालन्धरी के जागीरदार अमरसिंह शक्तावत को उनके बुज़ुर्गी अनुभव के कारण साथ में ले लिया। अजीतसिंह को अमरसिंह पर उनकी काबिलियत से ज्यादा भरोसा था।
इस फौज के अलावा शाहपुरा, बनेड़ा, बिजोलिया, भैंसरोड, जहांजपुर, मांडलगढ़ ठिकानों के जागीरदारों की फ़ौजें भी बुलाई गईं। भीम पलटन, एकलिंग पलटन समेत फ़ौजें मिलाकर 2 तोपें और शुतुरनालों के ऊंट लेकर महता अजीतसिंह जहांजपुर के लिए रवाना हुए।
मेवाड़ी फौज ने मीणों के छोटी लुहारी व बड़ी लुहारी नामक गांवों पर फतह हासिल की। इन लड़ाइयों में कई मीणा मारे गए और जो बच गए, वो मनोहरगढ़ और देव का खेड़ा की पहाड़ियों में जाकर जमा हो गए। महता अजीतसिंह ने मीणों के मादों (छप्परों) को जला दिया।
उस वक्त गर्मी के कारण लू बहुत तेज पड़ रही थी, पर महता अजीतसिंह ने इसकी परवाह न कर हमले का आदेश दिया।
इसी इलाके में रहने वाले धांधोला के जागीरदार रतनसिंह राणावत, जो कि बुज़ुर्ग और अनुभवी थे, उन्होंने सलाह दी कि इस वक़्त मेवाड़ी फौज पानी के लिए भी तरस रही है, इसके अलावा बूंदी, टोंक और जयपुर के मीणा कभी भी पहुंच सकते हैं।
पर अमरसिंह शक्तावत ने बीच में टोककर कहा कि यही मौका है मीणों की इन छोटी फौजी टुकड़ियों को टेकरी में जाकर मारने का। अजीतसिंह ने अमरसिंह की बात मानकर हमले का हुक्म दे दिया, जिसके बाद मीणों ने भी डुडकारी मारी और मुकाबले के लिए तैयार हुए।
(डुडकारी मारने से आशय :- खैराड़ के मीणा हमले के वक़्त ‘डूडूडूडू’ की आवाज से किलकारियां मारते थे)। तोपों व बंदूकों का जवाब मीणों ने तीरों और बंदूकों से दिया। इसी बीच वही हुआ जो राणावत रतनसिंह ने अर्ज़ किया था।
जयपुर, टोंक और बूंदी के 5 हजार मीणा अपनी कौम वालों की मदद ख़ातिर आ पहुंचे और फौज को चारों तरफ से घेरकर सघन पहाड़ियों में छिपकर गोलियां और तीर चलाने लगे।
तब रतनसिंह राणावत ने मीणों को ललकार कहा कि “बाग़ियों, तुमको मेवाड़ में रहना है या नहीं, श्री दरबार के सिपाही जो तुमने मारे हैं, उनका बदला लिया जाएगा”
ये सुनकर मीणा पीछे हट गए और मेवाड़ वाले अपने सैनिकों के शवों को लेकर लुहारी गांव में पहुंचे। बिजोलिया के गोवर्धनसिंह पंवार व छोटी कनेछण (शाहपुरा) के जागीरदार के भाई गंभीर सिंह राणावत ने इस लड़ाई में वीरगति प्राप्त की।
आरण्या के रूपसिंह चौहान, राजगढ़ के रेवत सिंह कान्हावत, जहाजपुर के सिलहदार भूरसिंह हाड़ा सख़्त घायल हुए। इस तरह कुल 27 वीर काम आए और 25-30 ज़ख्मी हुए। अजीतसिंह फौज समेत जहांजपुर लौट गए।
इस लड़ाई के कुछ दिन बाद वीरविनोद ग्रंथ के लेखक कविराजा श्यामलदास ने लुहारी के गोकुल और गाडौली के भुवाना, जो कि मीणों के मुखिया थे, उनको पूछा कि तुम लोगों ने राजपूतों को कैसे मारा। तो इन मुखियों ने अपने इष्ट महादेव की सौगंध खाकर जवाब दिया कि हम लीलियों को मारना चाहते थे पर भ्रम में राजपूतों को मार दिया। (मीणा लोग अंग्रेजों को लीलिये कहते थे)
महाराणा स्वरूपसिंह ने लड़ाई का हाल सुनकर महता शेरसिंह के नेतृत्व में एक सेना जहाजपुर के लिए रवाना कर दी। महता गोपालदास व चौधरी हमीरसिंह को भी साथ में भेजा गया।
राजपूताना के ए.जी.जी. ने जयपुर, बूंदी व टोंक के राजाओं पर दबाव डालते हुए कहा कि “आपकी ढीलाई के कारण आपके इलाकों के मीणों ने मेवाड़ रियासत का नुकसान किया है, इस ख़ातिर जल्द से जल्द अपने इलाकों में मीणों पर काबू करो।”
ए.जी.जी. की बात सुनकर उक्त तीनों रियासतों के राजाओं ने मीणों के विरुद्ध फ़ौजें रवाना कर दीं। दिसम्बर, 1854 ई. में मेवाड़, हाड़ौती और कोटा के अंग्रेज अफसर भी जहांजपुर पहुंचे।
इस बार मीणों ने बिना लड़े ही सुलह कर ली और मीणों ने स्वयं ही अपराध व लूटमार करने वालों को अंग्रेजी फ़ौज के हवाले कर दिया। अंग्रेज अफ़सर एक माह तक ईटोदा और जहाजपुर में ही रहे। मेवाड़ी फौज ने लुहारी और देवा का खेड़ा गांवों के बीच वाली मादों की झाड़ी कटवाकर मैदान साफ कर दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)