मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह (भाग – 8)

महाराणा स्वरूपसिंह द्वारा प्रबन्ध व्यवस्था करना :- 20 अगस्त, 1850 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने उदयपुर में साहूकारी लेनदेनों के लिए ‘रावली दुकान’ नाम से एक दुकान खोलकर छगनलाल कोठारी के भाई केसरीसिंह को सौंपी।

केसरीसिंह को टकसाल का काम भी सौंप दिया गया। महाराणा ने मालगुजारी बढ़ाने के लिए कुम्भलगढ़ व खेरवाड़ा कोठारी छगनलाल के सुपुर्द कर दिए। साइर का ठेका और मेवाड़ के कुछ परगने सेठ जोरावरमल के सुपुर्द रहे।

भील विद्रोह :- भीलों ने मेवाड़ के संस्थापक गुहिल जी के समय से लेकर 1700 ई. के करीब तक मेवाड़ का बहुत साथ दिया, जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। परन्तु 1700 ई. के बाद भील विद्रोह होने लगे।

1850-1851 ई. में बीलख वगैरह पालों के भील उपद्रव पर उतर आए। महाराणा स्वरूपसिंह ने महता शेरसिंह के बेटे सवाईसिंह को फौज समेत भेजा। सवाईसिंह ने भीलों के उपद्रव को इतनी बुरी तरह से कुचला कि काफ़ी समय तक इस इलाके के भीलों ने बग़ावत नहीं की।

महाराणा स्वरूपसिंह

महाराणा का मांडलगढ़ व चित्तौड़गढ़ भ्रमण :- 5 जनवरी, 1851 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह अपनी रानियों व फौज समेत 10 हजार का लश्कर लेकर एकलिंगेश्वर, नाहरमगरा, सनवाड़, मातृकुण्ड, रासमी, सेंतुरिया, गाडरमाला, मंगरोप, बरसल्यावास होते हुए 14 जनवरी को मांडलगढ़ पहुंचे।

मांडलगढ़ पहुंचने के बाद अगले दिन किला देखने के लिए महाराणा गढ़ पर पधारे। वहां के हाकिम व किलेदार स्वरूपचंद महता ने महाराणा की बड़ी ख़ातिरदारी की। स्वरूपचंद महता अगरचन्द महता के पौत्र व देवीचंद के पुत्र थे।

19 जनवरी को स्वरूपचंद ने महाराणा व उनकी 10 हज़ार की फ़ौज को दावत दी। स्वरूपचंद की खातिरदारी से महाराणा बड़े खुश हुए। महाराणा ने कहा कि “तुम्हारे खानदान ने अगरचन्द के वक़्त से मेवाड़ की बड़ी सेवा की है। मराठों के हमलों के दौर में भी तुम्हारे दादा ने मांडलगढ़ को हाथ से न जाने दिया।”

20 जनवरी को महाराणा ने स्वरूपचंद व उनके पुत्र गोकुलचंद को खिलअत वगैरह देकर मांडलगढ़ से प्रस्थान किया। महाराणा पारसोली व बसी होते हुए 22 जनवरी को चित्तौड़गढ़ की तलहटी तक पहुंचे। 2 दिन तक महाराणा ने तलहटी में ही पड़ाव डाला।

24 जनवरी को महाराणा स्वरूपसिंह किला देखने के लिए गढ़ में गए। इस वक़्त ये किला महता शेरसिंह की देखरेख में था, इसलिए शेरसिंह की तरफ से दावत हुई। महाराणा ने तसल्ली से पूरे दिन किला देखा।

महाराणा ने अपने पुरखों के इस भव्य दुर्ग का बारीकी से निरीक्षण किया। किला देखकर महाराणा का रोम-रोम गौरवमयी हो गया। शाम के वक़्त महाराणा ने वहां से कूच किया। हत्याणा, ताणा, करणपुर आदि गांवों में होते हुए 28 जनवरी को महाराणा ने उदयपुर में प्रवेश किया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

मार्च, 1851 ई. – कोटा राजघराने से वैवाहिक संबंध :- कोटा के महाराव रामसिंह हाड़ा नाथद्वारा में श्रीनाथजी के दर्शन करने के लिए आए। उनकी मंशा उदयपुर में विवाह करने की थी। उन्होंने महाराणा स्वरूपसिंह से इस विषय मेें आग्रह किया, जिसे महाराणा ने चार शर्तों पर कुबूल किया।

ये शर्तें कुछ इस तरह थीं :- (1) उदयपुर की राजकुमारी से जो पुत्र हो, उसे राज्य का उत्तराधिकारी समझा जाए, भले ही वह अन्य राजकुमारों से छोटा हो। (2) उदयपुर की राजकुमारी का दर्जा सब रानियों में बढ़कर रहे।

(3) उदयपुर की राजकुमारी को 50 हजार सालाना आमदनी वाली जागीर मिले। (4) उदयपुर की राजकुमारी की ड्योढ़ी या नौहरे में कोई मुजरिम पनाह ले, तो उसे सजा से बचाया जावे।

राजपूताना के ए.जी.जी. (एजेंट टू गवर्नर जनरल) ने महाराणा स्वरूपसिंह से कहा कि “आप इन 4 शर्तों में से पहली शर्त वापिस ले लीजिए, क्योंकि महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने यही शर्त जयपुर वालों के सामने रखी थी, जिसके परिणाम बड़े वीभत्स हुए थे।”

महाराव रामसिंह ने तो चारों शर्तें कुबूल कर लीं और ये बात लिखित में स्वीकार की, लेकिन महाराणा ने ए.जी.जी. की सलाह उचित समझकर पहली शर्त वापिस ले ली। इस विवाह सम्बन्ध में मध्यस्थता महता शेरसिंह व पुरोहित श्यामनाथ ने की थी।

महाराव रामसिंह ने ख़ुश होकर इन दोनों को 2 गांव जागीर में दिए। 9 मार्च को महाराव रामसिंह उदयपुर आए। महाराणा के काका बागोर के महाराज शेरसिंह व शिवरती के महाराज काका दलसिंह ने महाराव रामसिंह की पेशवाई की और डेरों में लेकर आए।

कोटा के महाराव रामसिंह हाड़ा द्वितीय

इसी दिन महाराव रामसिंह हाड़ा का विवाह महाराणा की बहन फूलकंवर बाई से बड़ी धूमधाम से हुआ। महाराव रामसिंह इस विवाह से व महाराणा की खातिरदारी से अति प्रसन्न हुए।

अपनी इच्छा पूरी होने के बाद महाराव रामसिंह हाड़ा ने बड़ी नेकनामी से कहा कि “हमारी रियासत की इज्ज़त बढ़ाने वाले अव्वल तो गोवर्धननाथ हैं और दूसरे मेवाड़ के महाराणा हैं।”

उपहारों का आदान-प्रदान होने के बाद 16 मार्च, 1851 ई. को महाराव रामसिंह हाड़ा उदयपुर से रवाना हुए और सहेलियों की बाड़ी में ठहरे, फिर वहां से रवाना होकर नाथद्वारा होते हुए कोटा पहुंच गए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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