1850-1852 ई. – महाराणा स्वरूपसिंह के शासनकाल में उनकी सरदारों से नाइत्तफाकी :- मेवाड़ के सरदारों ने पोलिटिकल एजेंट को एक ख़त लिखकर महाराणा की शिकायत की। उसमें लिखा था कि
“जितने समय तक हुज़ूर (महाराणा के दरबार) में नौकरी के लिए कौलनामे में लिखा गया था, उससे ज्यादा समय की नौकरी हमसे करवाई जाती है। छोटी-छोटी बातों के लिए हमसे जुर्माना वसूला जाता है। हमारी जागीरों के भीतरी इंतज़ामों में भी दख़ल दिया जाता है, जो इससे पहले कभी किसी महाराणा के शासनकाल में नहीं हुआ।”
जांच के बाद अंग्रेज सरकार को मालूम हुआ कि महाराणा स्वरूपसिंह ने न केवल सरदारों के हिस्से की ज़मीन पर कब्जे किए, बल्कि सरदारों की ज़मीन पर गांव भी आबाद कर लिए हैं और सरदारगढ़ के मामले में तो बहुत ज्यादा सख़्ती की गई।
इसी तरह अंग्रेज सरकार ने दूसरा पक्ष भी देखा कि सरदार लोग महाराणा की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं। अंग्रेज सरकार और मेवाड़ के बीच जब सन्धि हुई थी, तब एक शर्त ये रखी गई थी कि अंग्रेज सरकार द्वारा मेवाड़ के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।
इसी शर्त का तर्क देते हुए कर्नल रॉबिन्सन ने महाराणा को सलाह दी कि आप इस मसले को आपस में मिल बैठकर ही सुलझाइए।
महाराणा स्वरूपसिंह का मांडलगढ़ की तरफ दौरा हुआ, तब देवगढ़ के रावत रणजीतसिंह चुंडावत महाराणा के सामने पालकी पर सवार होकर निकले।
(महाराणा की सवारी में या उनके सामने पालकी पर सवार होकर जाना बेअदबी समझी जाती थी। यदि कोई शख्स गलती से पालकी में सवार होकर महाराणा के सामने आ जाता, तो वह फौरन नीचे उतरकर पैदल चलने लगता था। यही रियासतकाल का एक नियम था।)
रावत रणजीतसिंह पालकी से नीचे नहीं उतरे, जिस वजह से महाराणा ने नाराज़ होकर उनको कह दिया कि “अपने ठिकाने की तरफ चले जाओ”
सलूम्बर रावत पद्मसिंह चुंडावत के देहांत पर उनके बेटे केसरीसिंह के पास महाराणा ने स्वयं न जाकर अपने काका दलसिंह को भेज दिया, जिससे सलूम्बर वाले नाराज़ हो गए।
कप्तान शावर्स ने केसरीसिंह को समझाने का प्रयास किया, परन्तु केसरीसिंह नहीं माने। सलूम्बर रावत केसरीसिंह की 3 शर्तें थीं :- 1) यदि की मुज़रिम सलूम्बर में शरण पावे, तो राज्य द्वारा उसे बन्दी न बनाया जावे। 2) मातमपुर्सी हेतु महाराणा सलूम्बर पधारें। 3) सलूम्बर के रावत मेवाड़ के मुसाहिब बनें।
ये शर्तें महाराणा को मंज़ूर नहीं थीं। महाराणा स्वरूपसिंह व उनके भाई शेरसिंह के बीच भी किसी बात को लेकर बिगाड़ हो गया। छटूंद न देने और नौकरी पर न आने के कारण महाराणा ने देवगढ़ रावत रणजीतसिंह व सलूम्बर के रावत केसरीसिंह के कुछ गांव ज़ब्त कर लिए।
आसींद के रावत दूलहसिंह के भी 3 गांव (आमेसर, वरसणी, बामणी) महाराणा ने ज़ब्त कर लिए। 18 अक्टूबर, 1851 ई. को देवगढ़ व सलूम्बर ठिकानों के सरदारों ने अपने ठिकानों में मौजूद महाराणा के सैनिकों को बाहर निकाल दिया और ज़ब्त किए गए गांव छुड़वा लिए।
4 नवम्बर, 1851 ई. को नीमच की छावनी से पोलिटिकल एजेंट जॉर्ज लॉरेंस का उदयपुर आना हुआ। महाराणा स्वरूपसिंह ने जॉर्ज लॉरेंस से सरदारों की बग़ावत का हाल बयां किया। जॉर्ज लॉरेंस ने कहा कि ये मामले आंतरिक हैं, आप स्वयं ही इनका फैसला करें।
11 फरवरी, 1852 ई. को राजपूताना के ए.जी.जी. कर्नल लो का उदयपुर आना हुआ। इस समय देवगढ़ और सलूम्बर के सामन्त भी दरबार में इस गरज से मौजूद थे कि ए.जी.जी. के सामने विवादों की सही तौर पर सुनवाई हो।
महाराणा ने कर्नल लो के सामने भी सरदारों की बग़ावत की बात की, तो दोबारा वही जवाब मिला कि अंग्रेज सरकार आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की इजाज़त नहीं देती। कर्नल लो ने महाराणा को गुप्त रूप से सलाह दी कि आप एक-दो ठिकानों को छोड़कर बाकी ठिकानों से सही व्यवहार बनाए रखें।
फिर कर्नल लो के जाने के बाद महाराणा ने भींडर, आमेट, बदनोर आदि ठिकानों के सरदारों को समझाने का प्रयास किया और कहा कि आप सब सलूम्बर और देवगढ़ के सरदारों के बहकावे में न आया करो।
महाराणा ने लसाणी के सरदार जसकरण चुंडावत के छोटे पुत्र समर्थ सिंह को इस आरोप में क़ैद किया कि वे सरदारों को बहकाने का काम कर रहे हैं। इस बात से वहां मौजूद सरदार क्रोधित हो गए और सबने मिलकर समर्थ सिंह को छुड़वाकर भींडर की हवेली में पहुंचा दिया।
सरदारों की यह कार्रवाई महाराणा को बहुत अनुचित लगी, परन्तु राज्य में विद्रोह की आशंका से उन्होंने इसे नजरअंदाज किया।
राजपूताना के ए.जी.जी. कर्नल लो ने पॉलिटिकल एजेंट कर्नल लॉरेंस को ख़त लिखकर कहा कि “महाराणा स्वरूपसिंह को समझा दो कि मेवाड़ के आंतरिक मामलों को सुलझाने के लिए अंग्रेज सरकार से मदद की कोई आशा न रखे।”
फिर मेवाड़ के सब सरदार कर्नल लॉरेंस से मिलने नीमच गए। महाराणा ने भी अपनी तरफ से महता शेरसिंह और बेदला के राव बख्तसिंह चौहान को नीमच भेजा। कर्नल लॉरेंस ने सभी सरदारों को समझा बुझाकर वापिस भेज दिया और इस मसले का कोई हल नहीं निकल सका।
देवगढ़ व सलूम्बर के सरदारों ने आसींद के रावत दूलहसिंह चुंडावत को महाराणा के बरख़िलाफ़ भड़काने की कोशिश की और कहा कि आप भी अपने गांव महाराणा के कब्ज़े से छुड़वा लीजिए, तो रावत दूलहसिंह ने मना कर दिया।
फिर सलूम्बर के पुरोहित मोड़ीलाल, जो धर्माधर्म पर ज्यादा विचार नहीं करता था, भांग के नशे में धुत होकर रावत दूलहसिंह के पास आया और रावत से कहा कि “कम उम्र लड़कों ने तो अपने ठिकानों से महाराणा की ज़ब्ती उठा ली और आप बूढ़े होने के बावजूद ये काम नहीं कर पा रहे।”
रावत दूलहसिंह चुंडावत ने उम्दा जवाब दिया कि “अब तक तो मैं उन कम उम्र लड़कों का कुसूर समझता था, पर अब लगता है कि तुम बदख्वाह सलाहकारों के कारण वो भटक गए हैं। सुनो, महाराणा मालिक हैं हमारे और हम चुंडावत हैं।
हम उन्हीं रावत चूंडा जी के वंशज हैं, जिन्होंने मेवाड़ से निकाले जाने के बावजूद भी मेवाड़ के प्रति जो अपनी स्वामिभक्ति दिखाई है, वह जगजाहिर है। बेगूं के रावत मेघसिंह चुंडावत को महाराणा अमरसिंह ने बेदखल कर दिया था, तो वे जहांगीर के पास गए, जहां उनको मालपुरा की जागीर मिली, पर जब महाराणा ने मेघसिंह को बुलाया, तो जागीर छोड़कर मेवाड़ लौट आए।
सलूम्बर के रावत रघुनाथसिंह को महाराणा राजसिंह ने बेदखल करके सलूम्बर की जागीर केसरीसिंह चौहान को दे दी थी, तब रघुनाथसिंह ने अपनी पूरी उम्र औरंगज़ेब के पास रहकर गुज़ारी, लेकिन उन्हीं रघुनाथसिंह के बेटे रतनसिंह चुंडावत ने महाराणा की खिदमत में रहकर औरंगज़ेब से कई लड़ाइयां लड़कर अपने खानदान का रुतबा बढ़ाया।
सलूम्बर के रावत जोधसिंह को महाराणा अरिसिंह ने अपने हाथ से ज़हर दिया था, जिसे वे बिना किसी बहाने के पी गए, उन्हीं जोधसिंह के बेटे पहाड़सिंह ने महाराणा के पास हाजिर होकर उनकी सेवा में रहते हुए उज्जैन में महाराणा के शत्रुओं से लड़ते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया।
अब जिन सामंतों ने बदख्वाही की, उनका हाल भी सुनो। सलूम्बर का रावत भीमसिंह, जो चित्तौड़ के किले का मुख्तार बनकर बैठ गया था, उसे महाराणा के पैरों में गिरकर माफ़ी मांगनी पड़ी।
देवगढ़ का रावत जसवन्तसिंह, जो 5 लाख रुपए की जागीर रखता था, महाराणा की नाराज़गी के कारण बर्बाद होकर जयपुर में मरा। महाराणा स्वरूपसिंह से तो तुम सब सज़ा पाने के हक़दार हो। मैं बुढ़ापे में बदख्वाही करके अपने ठिकाने और वंश का नाम मिट्टी में नहीं मिलाऊँगा। इसलिए बेहतर यही है कि तुम लोग यहां से चले जाओ।”
जब ये बात महाराणा स्वरूपसिंह को पता चली तो महाराणा रावत दूलहसिंह पर काफी खुश हुए। महाराणा ने आसींद के रावत दूलहसिंह को उदयपुर बुलाया, लेकिन ईश्वर को ये मंज़ूर न था और 27 जून, 1852 ई. को रावत दूलहसिंह चुंडावत का देहांत हो गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)