मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह (भाग – 6)

शार्दूलसिंह का देहांत :- 30 दिसम्बर, 1847 ई. को बागोर के महाराज शेरसिंह के पुत्र शार्दूलसिंह का देहांत हो गया, जो इस वक्त महाराणा स्वरूपसिंह को विष देने के आरोप में उदयपुर राजमहल के रसोड़े में क़ैद थे। शार्दूलसिंह के पुत्र शम्भू सिंह (मेवाड़ के अगले महाराणा) हुए।

महाराणा स्वरूपसिंह द्वारा मंदिरों की प्रतिष्ठा :- 14 मई, 1848 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने 2 मंदिरों की प्रतिष्ठा की :- 1) जगतशिरोमणि मंदिर :- यह मंदिर राजमहल के बड़ी पोल दरवाज़े के बाहर पश्चिम की तरफ स्थित है।

2) जवानसूरजविहारी मंदिर :- यह मन्दिर जगदीश मंदिर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इस मंदिर को ‘बांकड़े विहारी’ के नाम से भी जाना जाता है।

इन मंदिरों की प्रतिष्ठा में महाराणा ने बहुत दान वगैरह किया व चारणों को हाथी-घोड़े आदि दिए। इस अवसर पर मेवाड़ के प्रसिद्ध ग्रंथ वीरविनोद के लेखक कविराजा श्यामलदास के पिता को ‘श्रवनगज‘ नामक हाथी दिया गया।

महाराणा स्वरूपसिंह की राजसमन्द यात्रा :- 11 सितम्बर, 1848 ई. के दिन से महाराणा स्वरूपसिंह के घुटनों में दर्द शुरू हुआ, जो ताउम्र बढ़ता ही रहा। 1 दिसम्बर, 1848 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह एकलिंगेश्वर, नाथद्वारा, कांकरोली, चारभुजा, आमेट होते हुए 7 दिसम्बर को सरदारगढ़ पहुंचे।

महाराणा स्वरूपसिंह

महाराणा ने सरदारगढ़ के किले को देखकर बड़ी खुशी जाहिर की और डोडिया जोरावरसिंह को ताजीम इनायत करके दूसरे दर्जे का उमराव बनाया। महाराणा स्वरूपसिंह सरदारगढ़ से रवाना हुए और कोठारिया, नाहरमगरा होते हुए 15 दिसम्बर को उदयपुर के राजमहलों में दाखिल हुए।

5 फरवरी, 1849 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह चम्पाबाग में जाकर सलूम्बर के रावत पद्मसिंह चुंडावत से मिले, जो उस वक्त सख़्त बीमार थे। 7 फरवरी को रावत पद्मसिंह का देहांत हो गया।

अगस्त, 1849 ई. – महाराणा द्वारा सिक्कों की टकसाल बनवाना व स्वरूपशाही सिक्के ढलवाना :- जाली या कम चांदी के बहुत से चित्तोड़ी और उदेपुरी रुपए के सिक्के बाहर से बनकर मेवाड़ में आने लगे और व्यापारियों का बड़ा नुकसान होने लगा, जिससे उन्होंने सिक्कों की व्यवस्था ठीक करने के लिए महाराणा स्वरूपसिंह से निवेदन किया।

महाराणा ने टकसाल के दारोगा को हिदायत दी कि ऐसे जाली सिक्के बनाने वालों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए। दारोगा ने कहा कि मेवाड़ में जो जाली सिक्के बनाते हैं, उन्हें सज़ा दी जा सकती है पर बाहर से बनाने वालों को कैसे सज़ा दी जाए।

स्वरूपशाही सिक्का

महाराणा ने इन जाली रुपयों के चलन को रोकना चाहा और चितोड़ी व उदेपुरी सिक्कों पर मुगल बादशाहों के नाम और फ़ारसी लेख होने के कारण उन्हें दान-पुण्य में देना धर्म विरुद्ध समझा। बजरंगगढ़ व नेपाल के सिक्कों को देखकर महाराणा ने भी अपने यहां नागरी अक्षरों वाला अच्छी चांदी का सिक्का चलाना तय किया।

7 अगस्त, 1849 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने महता शेरसिंह, जो इस वक्त नीमच में थे, को एक संदेश भेजकर आदेश दिया कि तुम हमारी रियासत के नए सिक्के बनवाने के सम्बन्ध में कर्नल रॉबिन्सन से बातचीत करो।

महता शेरसिंह ने रॉबिन्सन से बातचीत की, तो रॉबिन्सन ने एक ख़त महाराणा के नाम लिखा। इस ख़त में लिखा था कि “महाराणा को अपने मुल्क के बन्दोबस्त और बेहतरी की पूरी फ़िक्र है। जो विचार उन्होंने रखा है, वह बहुत ही दुरुस्त और मुनासिब है।

ऐसे रुपए जारी होने से रियासत का फ़ायदा, प्रजा की बेहतरी और दरबार (महाराणा) की नामवारी होगी। इसलिए अपने विचार के मुताबिक महाराणा को चाहिए कि वे अपने नाम वाले नागरी अक्षरों के अच्छी चांदी के रुपए अपनी टकसाल से जारी करें।

हमारी सरकार को जब मेवाड़ रियासत से अच्छे रुपयों के चलन की ख़बर मिलेगी, तो उन्हें बड़ी ख़ुशी होगी। जब रुपए तैयार हो जाएं, तो एक-दो रुपए हमारे देखने के लिए भी भिजवाएं।”

महाराणा ने सिक्के पर अपना नाम रखना उचित न समझा। महाराणा ने कहा कि मेवाड़ की खराब आर्थिक स्थिति में अंग्रेज सरकार ने काफी मदद की, इसके अलावा मराठों की लूटखसोट भी अंग्रेज सरकार के कारण ही बंद हो सकी। इस वजह से सिक्के पर भी उन्हें श्रेय देना चाहिए।

इस तरह महाराणा स्वरूपसिंह ने सिक्के के एक तरफ “चित्रकूट उदयपुर” व दूसरी तरफ “दोस्ती लंधन” शब्द रखवाए। चित्रकूट उदयपुर शब्द के नीचे जो चिह्न बने हैं, वे चित्तौड़गढ़ दुर्ग के सूचक हैं और दोस्ती लंधन शब्द के चारों ओर जो लकीरें हैं, वे इंग्लैंड के चारों तरफ़ फ़ैले समुद्र की सूचक हैं।

स्वरूपशाही सिक्का

ये सिक्के “सरूपशाही” नाम से प्रसिद्ध हुए। महाराणा ने 2 सिक्के कर्नल रॉबिन्सन के पास भिजवाए, जिन्हें देखकर रॉबिन्सन को बड़ी ख़ुशी हुई।

महाराणा के घुटनों का दर्द :- 1 अक्टूबर, 1849 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह के दाएं घुटने में वादी का दर्द शुरू हुआ, जो बढ़ते हुए पैर के तलवे तक जा पहुंचा। घुटनों का दर्द बढ़ने से उपचार शुरू किया गया।

देशी विदेशी डॉक्टर राजमहल में आए पर महाराणा को विदेशी डॉक्टरों पर भरोसा नहीं था, जिससे वैद्य का उपचार ही जारी रहा। देशी इलाज से 4 दिसम्बर तक महाराणा का दर्द ख़त्म हो गया, लेकिन 8 महीने बाद 10 अगस्त, 1850 ई. से फिर वही दर्द शुरू हुआ और घुटने से नीचे पूरे पैर में फ़ैल गया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. कालूराम पारीक
    December 16, 2021 / 2:13 pm

    उदयपुर का ईतिहास गोरीशंकर हीराचंदओझा के विस्तृत विवरण के साथ लिखित दो स्कंद में मेने पढ़ा है। आप द्वारा लिखे इतिहास से और अच्छी जानकारी मिली है। आप ने सभी महाराणाओं के कार्यकाल को उनके सामायिक द्रष्टि पटल से मिला कर बताना भी अच्छा है। आपका यह प्रयास वर्तमान पीढ़ी के लिए बहुत सारी गर्भित होगा।

    • December 16, 2021 / 2:17 pm

      उत्साहवर्धन हेतु हृदय से धन्यवाद आपका

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