सरदारगढ़ का युद्ध व महाराणा द्वारा डोडिया राजपूतों को उनका हक़ दिलाना :- मेवाड़ में महाराणा लाखा के समय में गुजरात के डोडिया राजपूतों ने मेवाड़ में जागीर पाई। मेवाड़ के राजसमंद जिले में स्थित लावा दुर्ग (सरदारगढ़ दुर्ग) ठाकुर सरदारसिंह डोडिया द्वारा 1738 ई. से 1743 ई. के मध्य में बनवाया गया था।
महाराणा भीमसिंह के समय 1783 ई. में चुंडावतों व शक्तावतों के बीच लड़ाई के दौर में लालसिंह शक्तावत के पुत्र संग्रामसिंह ने सरदारगढ़ दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया था। महाराणा जवानसिंह के समय में डोडिया जोरावरसिंह अपने पूर्वजों का किला फिर से लेने की कोशिश करने लगे, परन्तु सफलता नहीं मिली।
महाराणा स्वरूपसिंह ने जोरावरसिंह डोडिया के पूर्वजों के बलिदानों का स्मरण कर वह दुर्ग उन्हें फिर से दिलवाना चाहा। सरदारगढ़ पर इस समय संग्रामसिंह शक्तावत के वंशज चतरसिंह शक्तावत राज कर रहे थे।
शक्तावतों की 3-4 पीढियां वहां राज कर चुकी थीं, जिससे सरदारगढ़ पर शक्तावतों का राज साबित हो गया। इस कारण महाराणा को हमले की किसी वाजिब वजह की तलाश थी और संयोग से उन्हें वजह मिल गई।
(रियासती दौर में एक नियम था कि कोई भी राजा किसी दूसरे राजा या जागीरदार पर तब तक हमला नहीं करता, जब तक हमले की कोई वाजिब वजह न हो। यदि बिना वजह के वह हमला करता, तो उसकी छवि धूमिल होने का खतरा रहता था।)
इन्हीं दिनों चतरसिंह के काका सालिमसिंह शक्तावत ने उदावतों के खेड़े के स्वामी मानसिंह राठौड़ की हत्या कर दी, तो महाराणा स्वरूपसिंह ने सालिमसिंह से कुंडई गांव ज़ब्त कर लिया और सरदारगढ़ पर भी ख़ालिसा भेज दिया अर्थात कागज़ी तौर पर सरदारगढ़ को अपने अधीन कर लिया।
फिर चतरसिंह शक्तावत ने एक अर्ज़ी महाराणा के सामने पेश की, जिसके बाद महाराणा ने सरदारगढ़ से ख़ालिसा उठा लिया। महाराणा स्वरूपसिंह ने चतरसिंह को आदेश दिया कि “सालिमसिंह तुम्हारे ठिकाने में आता-जाता है, उसे गिरफ्तार नहीं करोगे, तो सख़्त सज़ा पाओगे।”
सितंबर-अक्टूबर, 1847 ई. – सरदारगढ़ पर पहली चढ़ाई :- मेवाड़ के महाराणा प्रथम श्रेणी के सामंतों को विदा करने के वक्त अपने हाथ से पान का बीड़ा देते थे और कभी-कभी द्वितीय श्रेणी के सामंतों को भी यह सम्मान मिलता था। एक दिन महाराणा स्वरूपसिंह ने चतरसिंह को विदा करते वक़्त पान का बीड़ा नहीं दिया।
इस बात से नाराज़ होकर चतरसिंह ने उदयपुर के राजमहलों में स्थित रसोड़े में डेरा डाल दिया और कहने लगे कि मैं हवेली नहीं जाऊंगा। फिर महाराणा ने क्रोधित होकर सरदारगढ़ के ठिकाने को ज़ब्त करने के लिए 50-100 सैनिकों की एक टुकड़ी रवाना कर दी।
जब चतरसिंह को लगा कि अब मुझसे किला छीन लिया जाएगा, तो वे फ़ौरन सरदारगढ़ की तरफ रवाना हुए। फिर महाराणा ने पुरोहित शम्भूनाथ को सैनिक टुकड़ी समेत सरदारगढ़ की तरफ रवाना किया। शम्भूनाथ ने सरदारगढ़ किले के आसपास पहरे बिठा दिए।
चतरसिंह के काका हमीरसिंह ने कुछ अन्न और गोला बारूद इकट्ठा करके किले के दरवाजे बंद कर लिए। महाराणा ने महता शेरसिंह के पुत्र जालिमसिंह की अध्यक्षता में एकलिंगजी पलटन को तोपखाने समेत सरदारगढ़ की तरफ रवाना कर दिया।
अक्टूबर माह की शुरुआत में लड़ाई शुरू हुई, तोपों के गोलों से किले की पूर्वी दीवार ऊपर से 2-3 हाथ तक गिरा दी गई, पर उसके नीचे की तरफ एक मज़बूत दीवार थी, जिससे सफलता न मिली।
पुरोहित शम्भूनाथ ने सैनिकों से कहा कि सीढियां लगाकर ऊपर चढ़ो और हमला करो, लेकिन सैनिकों ने हिम्मत नहीं की। फिर शम्भूनाथ ने एक अर्ज़ी महाराणा को लिख भेजी कि सैनिक हमला नहीं कर रहे हैं।
15 अक्टूबर को महता जालिमसिंह ने सब सैनिकों, अफसरों और सरदारों को इकट्ठा किया और उनसे पूछा कि हमला करना है या नहीं ? इस पर सभी ने एकमत से जवाब दिया कि किले की भीतरी दीवार काफ़ी मज़बूत और ऊंची है, जिस पर चढ़कर हमला करने का अर्थ है मुफ़्त में अपने सिपाहियों की बलि देना।
शम्भूनाथ ने कहा कि “ये सब इन अफ़सरों की बहानेबाज़ी है, ये लोग महाराणा का ख़्याल नहीं कर रहे हैं। जिस काम के लिए इनको महाराणा तनख्वाह देते हैं, वो काम न करके ये लोग आराम और बचाव ढूंढते हैं।”
इसी वक़्त एक आदमी महाराणा का ख़त लेकर वहां पहुंचा, जिसमें लिखा था कि किले पर फ़ौरन हमला करो। जालिमसिंह ने वह ख़त पढ़कर सभी को सुनाया। 17 अक्टूबर, 1847 ई. को पुरोहित शम्भूनाथ और जालिमसिंह ने किले पर सीढियां लगवाकर सैनिकों को चढ़वाया।
सिपाहियों का शोरोगुुल सुनकर किले वालों ने भी बंदूकें वगैरह चलाई और पहले से जमा किए गए भारी-भारी पत्थर गिराकर 2 सीढियां तोड़ डालीं, जिससे महाराणा की तरफ के कुुुछ सैनिक काम आए।
इस दीवार पर चढ़ने के बाद भी सिपाहियों को कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि दीवार के भीतर एक दोहरी दीवार भी थी, जिसे देखकर सिपाही पीछे की तरफ़ कूद पड़े।
महता जालिमसिंह ने एक ख़त महाराणा को लिखा, जिसमें लिखा था कि “आपका आदेश पाकर हमने किले पर हमला किया। एकलिंगजी पलटन के 20-25 सिपाही सीढ़ियों से दीवार पर चढ़ने लगे, जिनमें से सिर्फ 5 ही ऊपर तक चढ़ सके। इनमें से एक हवलदार मिर्ज़ा गवरबेग ने किले के भीतर छलांग लगा दी और किलेवालों से लड़ते हुए काम आया और बाकी 3-4 सिपाही वापिस बाहर की तरफ कूद गए।”
महाराणा की फ़ौज में शामिल अजीटन चाँद शैख़ ने उदयपुर में मौजूद मेजर लाल मुहम्मद के पास एक ख़त भेजा, जिसमें लिखा था कि “महाराणा के 12-13 सैनिक तो हमला करने के वक्त ही मारे गए और बाकी बहुत से घायल सिपाही डेरों में लाए गए, जिनमें से कुछ मर गए। महाराणा की तरफ से कुल 50-60 सैनिक मारे गए और 50-60 सैनिक घायल हुए।”
इस तरह सरदारगढ़ पर पहली चढ़ाई पूरी तरह असफ़ल रही। लड़ाई में हुए नुकसान के समाचार पाकर महाराणा स्वरूपसिंह बड़े क्रोधित हुए।
नवंबर, 1847 ई. – सरदारगढ़ पर दूसरी चढ़ाई :- महाराणा स्वरूपसिंह ने जालिमसिंह की असफलता के बाद कई सरदारों को उनकी फ़ौजी टुकड़ियों के साथ सरदारगढ़ की तरफ जाने का आदेश दिया। मांडलगढ़ किले से शम्भूबाण नामक तोप भी सरदारगढ़ ले जाई गई।
साथ ही महता गोकुलचंद की कमान में खैराड़ के राजपूतों की फ़ौजी टुकड़ी भी सरदारगढ़ पहुंच गई। फिर महाराणा ने जालिमसिंह केे पिता व योग्य प्रधान महता शेरसिंह को फौज समेत सरदारगढ़ की तरफ रवाना करते हुए कहा कि “सरदारगढ़ किले को जितना हो सके उतना कम नुकसान पहुंचाकर किला फतह किया जावे।”
महता शेरसिंह ने बड़ी अक्लमंदी के साथ मोर्चे लगाकर किले वालों को इस क़दर तंग किया कि बिना दुर्ग को नुकसान पहुंचाए ही चतरसिंह के हौंसले पस्त हो गए। 1 दिसंबर, 1847 ई. को चतरसिंह ने आत्मसमर्पण करते हुए किला खाली कर दिया।
महता शेरसिंह चतरसिंह व उनके काका हमीरसिंह को साथ लेकर उदयपुर पहुंचे, जहां महाराणा ने महता शेरसिंह को खिलअत, ताजीम व पान का बीड़ा देने की बात कही, तो शेरसिंह ने कहा कि
“मेवाड़ में अब तक 2 ही प्रधान को ताजीम की इज़्ज़त मिली है, एक तो बिहारीदास कायस्थ और दूसरा महता रामसिंह। इन दोनों ही प्रधान का ख़ात्मा जल्दी हो गया, इसलिए मुझको ताजीम के अधिकार से वंचित रखा जावे।”
महाराणा ने शेरसिंह की बात कुबूल की। फिर महाराणा ने लड़ाई में काम आने वाले सैनिकों की विधवा औरतों व बच्चों की परवरिश हेतु आदेश दिए और घायलों को इनाम वगैरह दिए गए।
चतरसिंह शक्तावत ने अपने अपराधों की क्षमा मांगी, तो महाराणा ने चतरसिंह को सज़ा से वंचित रखा, परन्तु चतरसिंह से लड़ाई के सामान सहित कुछ अन्य सामान ज़ब्त कर लिया और उनको कोलारी वगैरह पहाड़ी गांव जागीर में दिए, जिनकी आमदनी इतनी ही थी कि गुज़ारा किया जा सके।
महाराणा ने ठाकुर जोरावरसिंह डोडिया को उनके पुरखों की धरोहर सरदारगढ़ का किला सौंप दिया, लेकिन मेवाड़ की फौज खर्च के लिए सरदारगढ़ के अधिकांश हिस्से पर महाराणा का अधिकार रहा व कुछ हिस्सा जोरावरसिंह को सौंपा गया।
महाराणा ने ये तय किया कि फौज खर्च वसूले जाने के बाद किला पूरी तरह से तुम्हें सौंप दिया जाएगा। इस घटना के 8 वर्ष बाद 1855 ई. में ये किला महाराणा ने पूर्णरूप से जोरावरसिंह को सौंप दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)