मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह (भाग – 3)

जवानस्वरूपेश्वर महादेव मंदिर की प्रतिष्ठा :- 21 अप्रैल, 1843 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने महाराणा जवानसिंह के बनवाये हुए जवानस्वरूपेश्वर महादेव मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। यह मंदिर उदयपुर राजमहल के बड़ी पोल के बाहर पूर्व की तरफ स्थित है।

रीवां के महाराजा की तरफ से दस्तूर का सामान नज़र होना :- 18 मई, 1843 ई. को रीवां के महाराजा विश्वनाथ सिंह की तरफ से महाराणा स्वरूपसिंह के राजतिलक के दस्तूर का सामान आया और नज़र हुआ।

जोधपुर के महाराजा का देहांत :- 26 सितम्बर, 1843 ई. को जोधपुर के महाराजा मानसिंह राठौड़ के देहांत की खबर आने पर इस दिन उदयपुर में मातमी दरबार हुआ।

मातृकुंडिया में महाराणा स्वरूपसिंह द्वारा मंदिर व घाट बनवाना :- 24 दिसम्बर, 1843 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह तीर्थयात्रा के लिए मातृकुण्ड पधारे। मातृकुण्ड चित्तौड़ जिले में बनास नदी किनारे स्थित है। इसे ‘मेवाड़ का हरिद्वार’ भी कहते हैं।

मान्यता है कि इस जगह परशुराम जी ने अपनी माता का श्राद्ध किया था। यहां कई मंदिर बने हुए हैं। महाराणा स्वरूपसिंह ने यहां महादेव मंदिर व एक घाट का निर्माण करवाया।

जवानस्वरूपेश्वर महादेव मंदिर

जैसलमेर के महारावल की तरफ से दस्तूर का सामान नज़र होना :- 16 जनवरी, 1844 ई. को जैसलमेर के महारावल गजसिंह भाटी की तरफ से महाराणा स्वरूपसिंह के राजतिलक का दस्तूरी सामान आया और नज़र हुआ।

महाराणा का चौथा विवाह :- 25 जून, 1844 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह नाथद्वारा पधारे और अपना चौथा विवाह घाणेराव के ठाकुर अजीतसिंह मेड़तिया राठौड़ की पुत्री अभय कंवर बाई से किया।

महता रामसिंह को पद से ख़ारिज कर क़ैद करना व महता शेरसिंह को प्रधान नियुक्त करना :- महता रामसिंह ने सलूम्बर के कुंवर केसरीसिंह व आसींद के रावत दूलहसिंह में फूट डलवाकर उन्हें महाराणा से दूर कर दिया और खुद मेवाड़ के तमाम रियासती कामों का जिम्मा संभालने लगा।

महता रामसिंह के कार्यों से खुश होकर 6 मार्च, 1844 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह उनकी हवेली पर मेहमान बन कर गए व “काकाजी” का खिताब दिया।

एक दिन महाराणा ने महता रामसिंह से रियासती जमा खर्च का हिसाब मांगा, तो रामसिंह ने बहाना बनाकर कहा कि रियासती कामों का जिम्मा आप हम नौकरों पर छोड़ दीजिए, काबिल नौकर वही है, जो इन छोटी बातों को लेकर मालिक के आराम में खलल न पड़ने दे।

महाराणा स्वरूपसिंह

इस बात से महाराणा को उस पर शक हुआ और महाराणा ने महता शेरसिंह को बुलाया। शेरसिंह इन दिनों मेवाड़ के बाहर अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। महता शेरसिंह के आने से महता रामसिंह को बड़ी ईर्ष्या हुई।

शेरसिंह ने महाराणा से कहा कि मेरे दादा अगरचन्द जी ने अपनी सन्तान को यही नसीहत दी थी कि अपने मालिक की मर्ज़ी और खैरख्वाही के ख़िलाफ़ हरगिज़ नहीं चलना। वही नसीहत ध्यान में रखते हुए आज तक मेरे खानदान ने राज्य की सेवा की है, जिसे हुज़ूर (महाराणा) अच्छी तरह जानते हैं।

महाराणा स्वरूपसिंह शेरसिंह की बात से खुश हुए। महाराणा ने शेरसिंह से कहा कि रियासत का कुल जमा खर्च दिखलाओ। महता शेरसिंह पहले भी प्रधान पद पर कार्य कर चुके थे, इसलिए अनुभवी थे। उन्होंने बेहद जल्द मेवाड़ का वास्तविक हिसाब-किताब महाराणा के सामने पेश कर दिया।

महाराणा ने शेरसिंह को हर तीसरे महीने आय-व्यय का हिसाब देने का हुक्म दिया और कोठारी छगनलाल को खजाने का प्रबंध सौंपा। महाराणा ने शेरसिंह को आमदनी के तौर पर 20 हजार उदयपुरी रुपए वार्षिक व दफ़्तर खर्च के लिए 8 हजार रुपए देना तय किया।

11 जुलाई, 1844 ई. को रियासती कामों में धोखाधड़ी का आरोप साबित होने पर महाराणा स्वरूपसिंह ने महता रामसिंह को उसके बाल-बच्चों समेत क़ैद कर लिया। इसी दिन महाराणा ने महता शेरसिंह को मेवाड़ का प्रधान घोषित किया और महता स्वरूपचंद को मोतियों की माला व खिलअत प्रदान की।

20 अक्टूबर, 1844 ई. को दशहरे के दिन महाराणा स्वरूपसिंह ने महता शेरसिंह को विशेष खिलअत प्रदान की, जो केवल प्रधान को ही मिलती थी। महाराणा ने अपने काका दलसिंह और कायस्थ प्राणनाथ को महता शेरसिंह को उनके मकान तक पहुंचाने के लिए भेजा।

तुलसी माता का विवाह :- 31 अक्टूबर, 1844 ई. को महारानी गुलाब कंवर बाई ने तुलसी माता का विवाह बड़े उत्साह के साथ किया। इस अवसर पर सरदारों व पासवानों को खिलअत, चारणों को हाथी-घोड़े व सिरोपाव दिए गए।

उदयपुर राजमहल

महता रामसिंह को क़ैद से रिहा करना :- महता रामसिंह के बेटे बख्तावर सिंह पर महाराणा की कृपा थी, इसलिए 19 दिसम्बर, 1844 ई. को महाराणा ने बख्तावर को अपने पास बुला लिया।

महाराणा को सलाह दी गई कि यदि वे रामसिंह के बेटे पर ज्यादा मिहरबानी दिखाएंगे, तो रामसिंह फिर से अपने पैर जमा लेगा। महाराणा ने विचार करके 6 मार्च, 1845 ई. को कैदखाने से रामसिंह को अपने पास बुलवाया और रामसिंह से 10 लाख रुपए ज़ुर्माने का एक रुक्का लिखवाया और क़ैद से रिहा कर दिया।

जयपुर के महाराजा की तरफ से दस्तूर का सामान नज़र होना :-  28 अप्रैल, 1845 ई. को जयपुर के महाराजा रामसिंह कछवाहा की तरफ से महाराणा स्वरूपसिंह के राजतिलक का दस्तूरी सामान आया व नज़र हुआ।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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