महाराणा स्वरूपसिंह का जन्म परिचय :- इन महाराणा का जन्म 8 जनवरी, 1815 ई. को हुआ। इनके पिता बागोर के महाराज शिवदान सिंह जी थे। महाराणा सरदारसिंह जी की जीवित दशा में स्वरूपसिंह जी को बागोर से गोद लेकर उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया था।
महाराणा स्वरूपसिंह का व्यक्तित्व :- महाराणा स्वरूपसिंह का कद मंझले से कुछ ऊंचा, रंग गेहुंवा, लंबी व चौड़ी पेशानी, नुकीली व पतली नाक, पतले होंठ व बड़ी आँखें थीं। शरीर से न मोटे और न पतले थे। चेहरा ऐसा रौबदार की किसी भी व्यक्ति की इनसे बेधड़क बात करने की हिम्मत न होती।
महाराणा स्वरूपसिंह अक्लमंद, चतुर, दिलेर, इंसाफ़ पसंद व कठोर हृदय के थे। इनमें किसी भी व्यक्ति की बुराई-अच्छाई सबकी पहचान करने की अच्छी समझ थी। ये महाराणा अपने पुरखों पर अभिमान रखने वाले, धर्म पर दृढ़, दान वगैरह कामों में उदार थे।
महाराणा स्वरूपसिंह शराब से घृणा करते थे और इस व्यसन को मेवाड़ की पिछली 4-5 पीढ़ियों की असफलता का कारण मानते थे। इन महाराणा को रियासती प्रबंध का अच्छा ज्ञान था।
ये महाराणा अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन शिष्टता बहुत थी। लोगों से मिलने-जुलने का तरीका व बातचीत करने का ढंग बहुत अच्छा था। ये महाराणा काफी हठी थे, अपनी बात पर दृढ़ रहने की आदत थी।
जिस किसी सामंत से एक बार नाराज हो जाते, तो फिर कभी उस पर कृपा नहीं करते। हालांकि महाराणा ने दान पुण्य के कार्य बढ़ चढ़कर किए, फिर भी कुछ इतिहासकारों ने इनका स्वभाव लोभी व ईर्ष्यालु प्रकृति का बताया है।
परन्तु मेरे ख्याल से उनका ईर्ष्यालु स्वभाव राज्य के ख़ज़ाने को भरने के लिए था। इस स्वभाव के कारण हो सकता है महाराणा द्वारा किसी पर ज्यादती हुई हो, परन्तु राज्य की आर्थिक दशा ज्यादा अच्छी नहीं थी, इसलिए महाराणा द्वारा ख़ज़ाना भरना ज्यादा बढ़िया कार्य रहा।
इतिहासकारों ने उनके इस स्वभाव को अवगुण कहा है, लेकिन इसी अवगुण के कारण इन महाराणा ने शासन प्रबंध अच्छे से संभाला, जो कि पिछले 4-5 महाराणा ठीक से नहीं संभाल पाए थे। महाराणा स्वरूपसिंह के कारण ही भावी महाराणाओं के लिए बड़ी सुविधा रही।
राज्याभिषेक :- सांयकाल-15 जुलाई, 1842 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह साढ़े 28 वर्ष की उम्र में मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठे। 18 अगस्त, 1842 ई. को राज्याभिषेक उत्सव मनाया गया।
हिंदुस्तान के गवर्नर जनरल लॉर्ड एलेन्वरा ने एक ख़त मातमपुर्सी और गद्दीनशीनी के मौके पर महाराणा स्वरूपसिंह के पास भेजा। इस ख़त में महाराणा सरदारसिंह के देहांत के शोक से उठकर राजकाज के नए कार्यों की तरफ मन लगाकर काम करने की शुभकामनाएं दी गई हैं।
मतलबी सामंतों को काबू में करने का प्रयास :- महाराणा भीमसिंह के शासनकाल में मेवाड़ की कमजोर अवस्था थी, तब से ही सामंत निरंकुश हो गए थे और अपनी मनमानी करने लगे थे। महाराणा सरदारसिंह ने एक कौलनामा तैयार करवाया था, जिस पर कुछ सामंतों ने हस्ताक्षर किए थे, परन्तु ये कौलनामा भी सामंतों पर अंकुश नहीं लगा सका।
महाराणा स्वरूपसिंह गद्दी पर बैठने से पहले ही सरदारों की स्थिति से भलीभाँति परिचित थे। कुछ मतलबी सामंत अपना काम निकलवाने के लिए महाराणा की सेवा में रहने लगे, पर महाराणा को व्यक्ति की अच्छी परख होने से उन सबके प्रयास असफल रहे।
उस समय सरदारों में सबसे शक्तिशाली थे आसींद के रावत दूलहसिंह चुंडावत और मंत्रियों में सबसे शक्तिशाली थे महता रामसिंह। महाराणा स्वरूपसिंह ने रावत दूलहसिंह व महता रामसिंह की शक्ति क्षीण करने के लिए सलूम्बर के कुंवर केसरीसिंह चुंडावत को अपना खास सलाहकार नियुक्त किया।
कुंवर केसरीसिंह ने गोगुन्दा के कुंवर लालसिंह झाला के साथ मिलकर रावत दूलहसिंह व रामसिंह को अलग करने के प्रयास किए पर सफल न हुए। फिर रावत दूलहसिंह ने एक चाल चली। उन्होंने सलूम्बर के रावत पद्मसिंह को उकसाया। दरअसल कुंवर केसरीसिंह ने अपने पिता पद्मसिंह के सारे अधिकार ले लिए थे।
दूलहसिंह ने पद्मसिंह से कहा कि आप महाराणा के पास एक अर्जी भेजें कि आपको आपके अधिकार वापिस मिलें। महाराणा ने यह मसला पोलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया, क्योंकि महाराणा ख़ुद इस मसले में नहीं पड़ना चाहते थे।
आसींद के रावत दूलहसिंह चुंडावत ने महाराणा स्वरूपसिंह से अर्ज़ किया कि “अगर आप सलूम्बर के रावत पद्मसिंह को उनका हक़ दिला देवें, तो मैं और पद्मसिंह दोनों मिलकर मेवाड़ के सभी सरदारों से छटूंद चाकरी के मसले में जो विवाद चला आ रहा है, उसे सुलझा देंगे। क्योंकि जो बात हम दोनों सामंत स्वीकार कर लेंगे, वह बात अन्य सामंत भी सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।” महाराणा स्वरूपसिंह तो यही चाहते थे।
महाराणा के इशारे से पोलिटिकल एजेंट ने कहा कि सलूम्बर की गद्दी पर रावत पद्मसिंह बैठें और वहां की जागीर का काम कुंवर केसरीसिंह संभाले। इस बात से केसरीसिंह महाराणा से नाराज़ होकर सलूम्बर चले गए।
कोटा के महाराव रामसिंह हाड़ा का मेवाड़ आगमन :- 31 अक्टूबर, 1842 ई. को कोटा के महाराव रामसिंह हाड़ा की तरफ से राजतिलक के दस्तूर में महाराणा स्वरूपसिंह को हाथी व घोड़ा नज़र किया गया।
6 नवंबर, 1842 ई. को मातमपुर्सी हेतु महाराव रामसिंह हाड़ा स्वयं उदयपुर आए। महाराणा ने उनकी ख़ातिरदारी की व कुछ दिन ठहरकर महाराव लौट गए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)