फरवरी, 1840 ई. – महाराणा सरदारसिंह की गया यात्रा :- महाराणा जवानसिंह का श्राद्ध करने के लिए महाराणा सरदारसिंह ने 1 फरवरी को गया की तरफ प्रस्थान किया।
इन महाराणा से सामंत अक्सर नाराज़ रहा करते थे, जिस वजह से अधिकतर सामंतों ने कोई न कोई बहाना बनाकर साथ आने से मना कर दिया। सिर्फ बेदला के राव बख्तसिंह चौहान और कोठारिया के रावत जोधसिंह चौहान ने साथ निभाया।
सबसे पहला मुकाम चम्पा बाग में हुआ। 10 फरवरी, 1840 ई. को महाराणा सरदारसिंह चम्पा बाग से रवाना हुए। श्री एकलिंगेश्वर की पुरी, नाथद्वारा व कांकरोली होते हुए 17 फरवरी, 1840 ई. को महाराणा गढ़बोर पहुंचे, जहां गोगुन्दा के कुंवर लालसिंह झाला ने हाजिर होकर महाराणा की नाराजगी दूर की।
लालसिंह झाला यूँ ही गढ़बोर नहीं आए थे। उनको वहां महता रामसिंह ने भेजा था। दरअसल महता रामसिंह और आसींद के रावत दूलहसिंह के बीच नाइत्तफाकी चल रही थी। महाराणा वैसे भी रावत दूलहसिंह से नाराज़ थे, क्योंकि रावत दूलहसिंह ने तीर्थयात्रा में महाराणा के साथ आने से मना कर दिया था।
महता रामसिंह ने जान बूझकर लालसिंह झाला को महाराणा के पास भेजा, क्योंकि रावत दूलहसिंह और लालसिंह झाला की आपस में शत्रुता थी। इस घटना के बाद से ही महाराणा की नज़रों में महता रामसिंह का कद बढ़ गया और रावत दूलहसिंह पर नाराज़गी बनी रही।
2 मार्च, 1840 ई. को महाराणा पुष्कर पहुंचे, जहां तीर्थ गुरु व ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर विधिपूर्वक स्नान किया। 6 मार्च, 1840 ई. को गांव चावड्ये में मुकाम हुआ, जहां अगले दिन अंग्रेज अफ़सर सदरलैंड ने आकर महाराणा से मुलाकात की।
13 मार्च, 1840 ई. को गांव चावड्ये में कीकाबाई जी (महाराणा भीमसिंह के पुत्र अमरसिंह की पुत्री, जो कि किशनगढ़ के महाराजा मुहकम सिंह राठौड़ को ब्याही गई थीं) महाराणा से मिलने के लिए पधारीं। 15 मार्च को हरमाड़ा गांव में मुकाम हुआ, जहां किशनगढ़ के महाराजा मुहकम सिंह राठौड़ महाराणा से मिलने आए।
22 मार्च, 1840 ई. को महाराणा सरदारसिंह ने चौमू में पड़ाव डाला, जहां ठाकुर लक्ष्मणसिंह नाथावत ने महाराणा को फौज समेत दावत दी व महाराणा को ज़ेवर, घोड़ा आदि नज़र किया। 23 मार्च, 1840 ई. को महाराणा सामोद पहुंचे, जहां रावल शिवसिंह ने महाराणा की बड़ी ख़ातिरदारी की।
ये दोनों ही जयपुर रियासत के सरदार थे व बागोर वालों के रिश्तेदार थे। जयपुर महाराजा रामसिंह कछवाहा की आयु कम होने के कारण महाराणा ने जयपुर गढ़ में प्रवेश नहीं किया, परंतु जयपुर रियासत में जहां-जहां से भी महाराणा गुज़रे, उनकी बड़ी ख़ातिरदारी की गई।
27 मार्च, 1840 ई. को सैंथल के मुकाम पर जयपुर महाराजा रामसिंह की तरफ से लवाण के राजा हरिदेवराम ने महाराणा सरदारसिंह को गद्दीनशीनी के टीके का सामान नज़र किया।
30 मार्च, 1840 ई. को राजगढ़ में महाराणा का मुकाम हुआ, जहां अलवर के राव राजा विनयसिंह नरुका ने महाराणा सरदारसिंह को फौज समेत दावत दी। 2 अप्रैल, 1840 ई. को भरतपुर में महाराणा सरदारसिंह का मुकाम हुआ, जहां के महाराजा बलवन्तसिंह जाट ने महाराणा की बढ़िया ख़ातिरदारी की।
अलवर व भरतपुर, दोनों ही रियासतों की तरफ से महाराणा की बढ़िया खातिरदारी की गई, परन्तु रियासती दस्तूरों के मामलों में यहां कुछ ऐतराज़ पेश हुआ अर्थात मेवाड़ वालों को कुछ दस्तूर रास नहीं आए।
4 अप्रैल, 1840 ई. को गिरिराज में मुकाम हुआ। 6 अप्रैल, 1840 ई. को महाराणा वृंदावन पहुंचे। 8 अप्रैल, 1840 ई. को महाराणा सरदारसिंह मथुरा पहुंचे, जहां जैसलमेर के महारावल गजसिंह भाटी व रूपकंवर बाई जी, जो की तीर्थ यात्रा पर पधारे हुए थे, महाराणा से भेंट की। महाराणा ने इनको फौज समेत दावत दी।
11 अप्रैल, 1840 ई. को महाराणा का बलदेव में मुकाम हुआ व वहां से चलकर आगे कई जगह पड़ाव हुए। 7 मई, 1840 ई. को महाराणा सरदारसिंह प्रयाग पहुंचे, जहां उन्होंने दान पुण्य आदि धर्म के काम किए। महाराणा ने तीर्थ गुरु आसाराम को हाथी, घोड़ा, वस्त्र, शस्त्र, ज़ेवर आदि दक्षिणा में दिए।
16 मई, 1840 ई. को महाराणा काशी पहुंचे, जहां के अंग्रेज कमिश्नर ने महाराणा की ख़ातिरदारी की। 19 मई को महाराणा ने काशी से प्रस्थान किया और 31 मई को गया पहुंचे, जहां के कमिश्नर ने महाराणा से मुलाकात की।
महाराणा सरदारसिंह ने गया में अपने हाथों से महाराणा जवानसिंह का विधिपूर्वक श्राद्ध किया। महाराणा ने फिर से तीर्थ गुरु आसाराम को हाथी, घोड़ा, नकद, ज़ेवर आदि दक्षिणा में दिए।
19 जून, 1840 ई. को महाराणा ने गया से प्रस्थान किया। 15 जुलाई को महाराणा ने फिर से काशी में पड़ाव डाला। 17 जुलाई को काशी से प्रस्थान करके 21 जुलाई को प्रयाग पहुंचे। 25 अगस्त को महाराणा सरदारसिंह ने बलदेव में पड़ाव डाला। फिर मथुरा, वृन्दावन होते हुए 4 अक्टूबर, 1840 ई. को बीकानेर पहुंचे।
5 अक्टूबर को महाराणा सरदारसिंह का विवाह बीकानेर के महाराजा रतनसिंह राठौड़ की पुत्री से हुआ। (पाठकों के मन में एक प्रश्न आ सकता है कि महाराणा ने अपनी पुत्री बीकानेर महाराजा के पुत्र को ब्याही, तो बीकानेर महाराजा की पुत्री से उन्होंने स्वयं विवाह कैसे किया।
इसका जवाब है कि उस समय एक राजा की कई रानियां हुआ करती थीं, जिनसे कई संतानें होती थीं, जिसके चलते इस प्रकार विवाह आदि हुआ करते थे। जैसे बीकानेर के कुंवर सरदारसिंह व राजकुमारी अलग-अलग माता की संतानें थीं।)
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Bikaneri Rajkumari ka nam tha Shri Gulab Kanwarji Rathore