29 अक्टूबर, 1838 ई. – जलनिवास महल में हुई सभा :- महाराणा सरदारसिंह ने मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठने के बाद विरोधी सामंतों के दमन का प्रयास किया था, महाराणा ने गोगुन्दा की जागीर को ख़ालिसा (अपने अधीन) कर लिया था, जिससे सामंत महाराणा से नाराज़ हो गए।
29 अक्टूबर को उदयपुर में पिछोला झील में स्थित जलनिवास महल में कर्नल स्पीयर्स, महाराणा सरदारसिंह व मेवाड़ के सामंतों की एक बैठक हुई। इस बैठक में सामंतों से कहा गया कि आप सबको महाराणा के प्रति वफादार रहते हुए उनके आदेशों का पालन करना होगा, अन्यथा सजा दी जाएगी। इस बैठक के बाद महाराणा और सामंतों के बीच रंज और बढ़ गया।
गोगुन्दा प्रकरण :- गोगुन्दा पर ख़ालिसा भेजे जाने के कारण कुंवर लालसिंह झाला के पिता राजराणा शत्रुसाल झाला उदयपुर आए और एक अर्जी लिखकर महाराणा के सामने पेश करवाई।
अर्जी में राजराणा ने कहलवाया कि “मेरे बेटे लालसिंह ने मुझको दस वर्ष पहले गोगुन्दा से बेदखल कर दिया था, इस ख़ातिर आपने उसको गोगुन्दा से बेदखल करके उचित कार्य ही किया है। यदि आपको मंज़ूर हो तो गोगुन्दा का उत्तराधिकारी मेरे पोते मानसिंह को बना दिया जावे।”
1838 ई. – महाराणा सरदारसिंह द्वारा महता शेरसिंह को पद से हटाना :- महाराणा जवानसिंह के देहांत के बाद जब अगले महाराणा के चयन पर सलाह की जा रही थी, तब महता शेरसिंह ने शार्दूलसिंह को राजगद्दी पर बिठाने का समर्थन किया था।
इस बात को ध्यान में रखते हुए महाराणा सरदारसिंह ने गद्दी पर बैठने के कुछ दिन बाद ही शेरसिंह को पद से हटाकर क़ैद कर लिया और महता रामसिंह को मेवाड़ का प्रधान घोषित किया।
शेरसिंह के संबंधियों ने पोलिटिकल एजेंट से उस पर सख़्ती होने की शिकायत की, जिससे एजेंट ने महाराणा से सिफारिश करके उसको माफ़ी दिलवानी चाही, पर महाराणा ने स्वीकार न किया। इसी तरह कर्नल स्पीयर्स ने भी महाराणा को खत लिखकर शेरसिंह को माफी दिलाने की बात कही।
फिर शेरसिंह के खिलाफ जो सामंत थे, उन्होंने महाराणा से कहा कि शेरसिंह आपको अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा भयभीत करने का प्रयास कर रहा है। आखिरकार शेरसिंह ने अपनी जान बचाने की ख़ातिर महाराणा से कहा कि मैं जुर्माने स्वरूप आपको जल्द ही दस लाख रुपए दे दूंगा।
महाराणा ने इस बात को स्वीकार करके उसे छोड़ दिया, तो वह अपने बेटों के साथ मारवाड़ की तरफ चला गया। शेरसिंह की ताकत घटाने के लिए उसके भाई मोतीराम को क़ैद किया गया व कुछ दिन बाद उदयपुर राजमहल के कर्णविलास महल के ऊंचे झरोखे से गिराकर उसकी हत्या कर दी गई।
इसके बाद महाराणा ने पुरोहित श्यामनाथ से 30 हजार, कायस्थ किशननाथ से 75 हजार व महता गणेशदास से 60 हजार रुपए जुर्माने के तौर पर वसूल किए।
महाराणा सरदारसिंह ने रियासती कामों का मुख़्तार महता रामसिंह व आसींद के रावत दूलहसिंह चुंडावत को बना दिया। कुछ समय बाद महता रामसिंह व रावत दूलहसिंह के बीच आपस में राजकाज के कार्यों को लेकर नाइत्तिफ़ाकी हुई।
जनवरी, 1839 ई. – अंग्रेज सरकार को खिराज न देना :- महाराणा सरदारसिंह ने अंग्रेज सरकार को खिराज नहीं चुकाया, जिस पर कई बार उन्हें सचेत किया गया। पॉलिटिकल एजेंट रॉबिन्सन ने महाराणा को ख़त लिखकर खिराज की मांग की।
महाराणा द्वारा गोडवाड़ को प्राप्त करने का असफल प्रयास :- महाराणा जवानसिंह जब काशी में गंगा किनारे गए थे, तब वहां उनके व सरदारसिंह के बीच एक करार हुआ कि हम दोनों में से जो भी पहले गुज़रे, उसका गया श्राद्ध बाद में रहने वाला अपने हाथ से करे।
इस ख़ातिर महाराणा सरदारसिंह को अपने वचन को पूरा करने के लिए गया हेतु प्रस्थान करना था, पर इसी दौरान जोधपुर के महाराजा मानसिंह राठौड़ पर अंग्रेजों की फ़ौजकशी हुई। बीकानेर व रीवां के राजाओं ने महाराणा को खत लिखकर कहा कि गोडवाड़ के परगने को मेवाड़ में शामिल करने का उचित अवसर यही है।
इस ख़ातिर महाराणा ने गोडवाड़ को हासिल करने के लिए कुछ कोशिशें कीं। बीकानेर के प्रधान हिंदुमल, जो कि इस समय नीमच की छावनी में तैनात थे, उनके ज़रिए इस मसले पर कोशिश की गई, परन्तु मेवाड़ के सामन्तों में आपस में नाइत्तिफ़ाकी होने के कारण सफलता नहीं मिली।
1839 ई. – मेवाड़ भील कोर की स्थापना की पहल :- भोमट के भीलों व ग्रासियों ने बगावत करते हुए महाराणा सरदारसिंह के थानों पर हमले करते हुए 150 सिपाही मार दिए।
ये उपद्रव महाराणा से काबू में न हुए, तो सदरलैंड, रॉबिंसन व महीकांठा के पोलिटिकल एजेंट कप्तान लैंग ने गवर्नर जनरल को खत लिखा, जिसके बाद अंग्रेज सरकार ने ‘भील कोर’ (भील सैनिकों की फौज) की स्थापना करने का निर्णय लिया।
भील कोर की स्थापना का उद्देश्य था पश्चिम में सिरोही से लेकर पूर्व में मालवा तक फैले भीलों के क्षेत्रों में शांति स्थापित करना। इस कार्य में प्रतिवर्ष 1 लाख 20 हजार रुपए खर्च होते थे, जिसमें से 15 हजार महाराणा द्वारा दिए जाते थे।
30 हजार रुपए भोमट परगने की आय द्वारा, 35 हजार मेरवाड़ा की आय द्वारा व 40 हजार अंग्रेज सरकार द्वारा दिए जाते थे। इसमें यह तय हुआ कि यदि मेरवाड़ा की आय 35 हजार रुपए से अधिक हो जाए, तो बचत महाराणा की समझी जावे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)