मेवाड़ महाराणा सरदारसिंह (भाग – 1)

महाराणा सरदारसिंह का परिचय :- इनका जन्म 29 अगस्त, 1798 ई. को हुआ। इनके पिता बागोर के महाराज शिवदान सिंह थे।

महाराणा सरदारसिंह का व्यक्तित्व :- महाराणा सरदारसिंह का कद मंझला, रंग गोरा व चेहरे पर चेचक के दाग थे। ये महाराणा शुद्ध हृदय वाले, धर्मशील व ज़बान के पक्के थे। ये कुछ उग्र, शराब के शौकीन, अदूरदर्शी व विरोधी सामंतों से वैरभाव रखने वाले थे।

सितंबर, 1838 ई. – राज्याभिषेक :- महाराणा जवानसिंह के कोई पुत्र नहीं था, जिस वजह से मेवाड़ के सरदारों ने सभी कारखानों की चाबियां महाराणा जवानसिंह के बड़े भाई अमरसिंह की विधवा रानी चांपावत के पास भिजवा दी।

दरअसल मेवाड़ में यह रिवाज़ था कि जब मेवाड़ के शासक का देहांत हो जाता है, तो शहर के दरवाज़े बन्द करके सभी कारखानों पर ताले लगा दिए जाते हैं और फिर चाबियां उत्तराधिकारी को सौंप दी जाती हैं, फिर उत्तराधिकारी तय करता है कि किस कारखाने की चाबी अर्थात अधिकार किसे सौंपा जाए।

महाराणा सरदारसिंह शिकार करते हुए

कारखानों से तात्पर्य रियासती कामकाज वाले कारखानों से है, न कि आम लोगों के रोजगार से। रानी चांपावत ने 4 कारखानों को छोड़कर शेष सभी कारखानों की चाबियां उन लोगों के पास भिजवा दीं, जो पहले से उक्त कारखाने चलाते आ रहे थे।

जिन 4 कारखानों की चाबियां रानी ने अपने पास रखीं, उन कारखानों के नाम हैं :- 1) पांडे की ओवरी, जहां ज़ेवर आदि रखे जाते थे। 2) सिलहखाना 3) सेज की ओवरी 4) कपड़े का भंडार।

महाराणा जवानसिंह के देहांत के बाद यह बहस होती रही कि अगला शासक किसे बनाया जावे। बागोर वाले महाराणा के नज़दीकी परिवार वाले थे। ये महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के पुत्र महाराज नाथसिंह के वंशज थे। इस वक्त बागोर के महाराज शिवदानसिंह के 3 पुत्र मेवाड़ की राजगद्दी के योग्य थे :- 1) सरदारसिंह 2) शेरसिंह 3) स्वरूपसिंह।

मेवाड़ के सरदारों में से कइयों ने तो शेरसिंह के पुत्र शार्दूलसिंह को मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाने की बात कही और कइयों ने कहा कि ज्येष्ठ पुत्र सरदारसिंह को गद्दी पर बिठाया जावे। 5 दिन तक इस मुद्दे पर बहस होती रही।

फिर अगले दिन 4 सितंबर को रावत पद्मसिंह चुंडावत आदि की सलाह पर सरदारसिंह को गद्दी पर बिठाना तय किया गया। सरदारसिंह महाराणा जवानसिंह की दग्धक्रिया करके सेठ जोरावरमल की बाड़ी में ठहरे।

महाराणा जवानसिंह की उत्तर क्रिया सरदारसिंह के हाथ से होने लगी। सभी सरदार जोरावरमल की बाड़ी में गए और सरदारसिंह को राजमहलों में ले आए। सरदारसिंह जनाना महलों में गए और फिर वहां से बाहर आए, तो चारणों ने उन्हें महाराणा जवानसिंह के क्रमानुयायी होने की आशीष दी।

महाराणा सरदारसिंह

7 सितंबर, 1838 ई. को मातमी दरबार हुआ, जिसमें बेदला के राव बख्तसिंह ने दस्तूर के अनुसार महाराणा सरदारसिंह के सिर से मातमी पछेवड़ी उतारकर जेवर नज़र किया। 11 सितम्बर, 1838 ई. को कर्नल स्पीयर्स ने उदयपुर आकर मातमपुर्सी का दस्तूर अदा किया।

महाराणा जवानसिंह के अंतिम समय में नेपाल के राजा राजेन्द्र विक्रमशाह ने मेवाड़ के रीति रिवाज समझने हेतु कुछ स्त्री पुरुषों को भेजा था। उक्त महाराणा के देहांत के बाद कुछ दिन ठहरकर ये लोग 25 सितम्बर, 1838 ई. को नेपाल के लिए रवाना हो गए।

अक्टूबर, 1838 ई. – विरोधी सामंतों पर अविश्वास :- महाराणा सरदारसिंह ने उन सामंतों पर क्रोध जताया, जिन्होंने गद्दीनशीनी के वक़्त शार्दूलसिंह का पक्ष लिया था। रावत दूलहसिंह पर महाराणा का क्रोध फूटा, जिन्होंने उत्तराधिकारी के चयन के वक्त सरदारसिंह की बुरी आदतें भरे दरबार में बतलाकर उनका अपमान किया था।

इसी तरह महाराणा ने गोगुन्दा के राजराणा शत्रुसाल झाला के बेटे लालसिंह को बुलाकर धमकाया। लालसिंह झाला ने महाराणा को माफीनामा देकर भविष्य में वफादारी करने का वचन दिया।

महाराणा द्वारा लालसिंह झाला के विरुद्ध कार्रवाई :- 16 अक्टूबर, 1838 ई. को लालसिंह झाला का एक आदमी माणकचंद और एक ब्राम्हण कुछ मंत्र विधान करते हुए भीमपद्मेश्वर महादेव मंदिर के पास वाले तालाब किनारे पकड़े गए। सख़्ती से पूछने पर मालूम पड़ा कि लालसिंह झाला के कहने पर उन्होंने ऐसा किया।

महाराणा सरदारसिंह

टोने-टोटके द्वारा महाराणा पर लालसिंह का जादू कराने की बात सुनकर महाराणा बड़े क्रोधित हुए। महाराणा सरदारसिंह ने शाहपुरा के राजाधिराज माधवसिंह को फौज व तोपखाने समेत गोगुन्दा पर हमला करने के लिए विदा किया और कहा कि लालसिंह झाला का कत्ल कर दिया जावे।

बेगूं के रावत किशोरसिंह चुंडावत, सलूम्बर के रावत पद्मसिंह चुंडावत, कोठारिया के रावत जोधसिंह चौहान, आमेट के रावत सालिमसिंह ने शाहपुरा के माधवसिंह को रोक दिया व महाराणा को कहलवाया कि बिना पूरी जांच के गोगुन्दा पर ऐसी कार्यवाही न करें और यदि करें तो हम सबको गोगुन्दा वालों का तरफ़दार समझिएगा।

महाराणा ने मामला बिगड़ता हुआ देखकर गोगुन्दा पर हमला ना करवाकर वहां खालिसा भिजवा दिया। ख़ालिसा भेजने का अर्थ है कि महाराणा ने गोगुन्दा की जागीर को अपने अधीन कर लिया। आगे का इतिहास अगले भाग में पोस्ट किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (ठि. लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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