1834 ई. – रीवां में विवाह :- तीर्थयात्रा के दौरान महाराणा जवानसिंह की मुलाकात रीवां के महाराजकुमार से हुई। महाराजकुमार ने महाराणा से रीवां आने का आग्रह किया, तो महाराणा ने वहां आने से मना कर दिया।
दरअसल, बात ये थी कि महाराणा जवानसिंह ने पहला विवाह रीवां की राजकुमारी सुभद्र कुमारी से ही किया था, जिनका देहांत हो गया। महाराणा को उनके देहांत से बड़ा रंज हुआ था, जो कि रीवां जाने पर और बढ़ जाता।
इसके अलावा महाराणा जानते थे कि वे रीवां गए, तो रीवां वाले फिर से किसी कन्या का विवाह महाराणा से करवा देंगे। महाराणा ने महाराजकुमार विश्वनाथ सिंह से पहले ही यह करार किया कि रीवां जाने पर वहां मेरा विवाह न करवाया जावे।
महाराणा ने अगला पड़ाव चित्रकूट में डाला और 3 अप्रैल को रीवां पहुंचे। रीवां के महाराजा जयसिंह देव अपने पुत्र व पौत्रों सहित पेशवाई हेतु आगे आए। महाराजा जयसिंह देव ने महाराणा जवानसिंह को एक हथिनी, 2 घोड़े, 6 सरोपाव, बहुत से गहने व 21 हज़ार रुपए नकद भेंट किए।
महाराजकुमार विश्वनाथ सिंह ने महाराणा को 2 हाथी, 4 घोड़े, सरोपाव, गहने व 20 हज़ार रुपए नकद भेंट किए। दूसरे राजकुमार लक्ष्मणसिंह ने महाराणा को एक हथिनी, 2 घोड़े, सरोपाव, गहने व 4 हज़ार रुपए नकद भेंट किए। तीसरे राजकुमार बलभद्र सिंह ने महाराणा को एक हाथी, 2 घोड़े, सरोपाव व गहने भेंट किए।
11 अप्रैल, 1834 ई. को महाराणा जवानसिंह ने रीवां से प्रस्थान करने की तैयारियाँ कर लीं, तब रीवां के महाराजा जयसिंह देव महाराणा की ड्योढ़ी पर आ बैठे और महाराणा से निवेदन किया कि आपने जो करार किया है उसके बर्ख़िलाफ हम आपसे विनती करते हैं कि आप हमारी पौत्री से विवाह करें।
महाराजा की विनती देखकर महाराणा ना नहीं कर पाए और 12 अप्रैल को रीवां की तरफ से नारियल, हाथी, घोड़ा आदि टीके का सामान महाराणा को भेंट किया गया। 14 अप्रैल को महाराज जयसिंहदेव ने अपने छोटे कुंवर लक्ष्मणसिंह की पुत्री का विवाह महाराणा जवानसिंह के साथ करवा दिया।
21 अप्रैल को महाराणा ने रीवां से प्रस्थान किया। एक महीना व 8 दिन का सफ़र तय करके महाराणा 28 मई को कोटा पहुंचे। कोटा के महाराव रामसिंह हाड़ा ने महाराणा की बढ़िया खातिरदारी की।
इन्हीं दिनों कोटा के दीवान माधवसिंह का देहांत हो गया, तो माधवसिंह के बेटे मदनसिंह की तलवार बंधाई की रस्म महाराणा ने अदा की। 1 जून को महाराणा कोटा से रवाना हुए और 3 जून को भैंसरोड पहुंचे, जहां के रावत अमरसिंह ने महाराणा की बढ़िया खातिरदारी की।
6 जून को महाराणा भैंसरोड से रवाना हुए और 7 जून को बेगूं पधारे। बेगूं के रावत किशोरसिंह ने महाराणा की खातिरदारी की। बेगूं में महाराणा ने 2 शेरों का शिकार किया। 10 जून को महाराणा बेगूं से रवाना हुए और 12 जून को चित्तौड़गढ़ पधारे।
फिर चित्तौड़गढ़ से रवाना होकर 18 जून, 1834 ई. को उदयपुर के राजमहलों में पधारे। फिर वहां से प्रस्थान करके भैंसरोड, बेगूं आदि स्थानों पर ठहरते हुए 18 जून 1834 ई. को उदयपुर पहुंचे। इस पूरे सफ़र में 10 माह का समय लगा।
25 जुलाई, 1834 ई. को सलूम्बर के रावत पद्मसिंह चुंडावत ने महाराणा जवानसिंह को अपनी हवेली में आमंत्रित किया। रावत पद्मसिंह ने एक हाथी, एक घोड़ा, एक सिरसोभा, मोतियों की एक माला, 7 सरोपाव व 10 हज़ार रुपए नकद महाराणा को भेंट किए।
इसी वर्ष महाराणा जवानसिंह ने पिछोला झील के निकट जलनिवास नाम से महल बनवाया। 13 अप्रैल, 1835 ई. को शिवरती के महाराज सूरजमल का देहांत हो गया। इनके देहांत से महाराणा जवानसिंह को बड़ा रंज हुआ।
5 मई, 1835 ई. को महाराणा भीमसिंह की छतरी की प्रतिष्ठा हुई, जिसमें महाराणा जवानसिंह ने बहुत से दान-पुण्य के कार्य किए। 1836 ई. में मेवाड़ एजेंसी नीमच में स्थापित की गई और कर्नल स्पीयर्स वहां का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त हुआ।
एजेंट गवर्नर जनरल ने स्पीयर्स को हिदायत दी कि महाराणा के चढ़े हुए खिराज में से एक लाख रुपए प्रतिवर्ष अंग्रेज सरकार को चुकाए जाएं और मेवाड़ के ठगों की गिरफ्तारी की जाए। 10 फरवरी, 1837 ई. को महाराणा जवानसिंह ने बांकी के मगरे में महाकालिका मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई।
14 फरवरी, 1837 ई. को सलूम्बर के रावत पद्मसिंह की पुत्री अनोप कँवर का विवाह कोटा के महाराव रामसिंह हाड़ा के साथ हुआ। इस विवाह का समस्त ख़र्च महाराणा जवानसिंह ने उठाया।
23 फरवरी, 1837 ई. को महाराणा जवानसिंह ने आबू की यात्रा के लिए उदयपुर से प्रस्थान किया और 18 मार्च को गोगुन्दा होते हुए उदयपुर लौट आए।
ख़िराज के संबंध में कुछ लोगों ने महता शेरसिंह की शिकायतें महाराणा जवानसिंह से की, लेकिन महाराणा को शेरसिंह पर पूरा विश्वास था। महाराणा अपनी जगह सही थे, क्योंकि कुछ ईर्ष्यालु लोग हमेशा ही काबिल शख्सियत की ख़िलाफ़त करते हैं।
इन्हीं दिनों नेपाल के महाराजा राजेन्द्र विक्रमशाह ने मेवाड़ के रीति-रिवाज आदि के ज्ञान हेतु अपने यहां से कुछ प्रतिष्ठित पुरुषों व स्त्रियों को भेजा। नेपाल वालों ने गजनायक नाम का एक हाथी महाराणा जवानसिंह को भेंट किया।
महाराणा जवानसिंह का देहांत :- 24 अगस्त, 1838 ई. को जब महाराणा जवानसिंह अपने महलों में सोए हुए थे, तब उनके सिर में ऐसा दर्द उठा जैसे किसी ने सिर में कील ठोक दी हो। इस दर्द का बहुत इलाज किया गया, लेकिन कोई फायदा न हुआ। दर्द हर दिन बढ़ता ही रहा।
सिर की असहनीय पीड़ा से 37 वर्ष की आयु में महाराणा जवानसिंह का देहांत हो गया। महाराणा के देहांत से समस्त लोगों को बड़ा दुःख हुआ, क्योंकि महाराणा जवानसिंह बड़े ही प्रजापालक थे। इन महाराणा का शासनकाल 10 वर्ष रहा।
इन महाराणा की कुल 7 रानियां थीं, जिनमें से 2 रानियां सती हुईं। 7 में से 6 रानियों के बारे में जानकारी मिल पाई है :- (1) रानी सुभद्रा कुमारी (रीवा के महाराजा विश्वनाथ सिंह की पुत्री) (2) रानी सहोदर कंवर
(3) रीवा में माधवगढ़ के ठाकुर बाबू लक्ष्मणसिंह की पहली पुत्री (4) बाबू लक्ष्मणसिंह की दूसरी पुत्री (5) रानी उम्मेद कंवर (सिरोही में मंदार के ठाकुर रतनसिंह की पुत्री) (6) इंद्रगढ़ के जागीरदार की पुत्री।
दोनों रानियों के अतिरिक्त 6 पासवान भी सती हुईं। महाराणा जवानसिंह की किसी भी रानी से कोई पुत्र न हुआ। (मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है कि “बागोर के सरदारसिंह ने महाराणा को विष देकर उनकी हत्या कर दी”, परंतु यह कथन सत्य नहीं है)
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (ठि. लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)