महता रामसिंह को क़ैद करना :- इन दिनों मेवाड़ का प्रधान महता रामसिंह था, जिसकी गलत नीतियों के कारण अंग्रेज सरकार का ख़िराज 7 लाख रुपए हो गया। जब महता रामसिंह से इस विषय में पूछा गया, तो उसने जवाब दिया कि रियासत की आमदनी 11 लाख रुपए है और खर्च 12 लाख रुपए है।
महाराणा जवानसिंह ने महासानी बख्ता, कायस्थ बिशननाथ और पुरोहित रामनाथ को खर्च घटाने पर मुकर्रर किया और साथ ही महता रामसिंह की कार्रवाइयों की जांच भी करवाई गई। जांच में मालूम हुआ कि महता रामसिंह दोषी है, लेकिन रामसिंह पर कप्तान कॉफ़ की मेहरबानी थी।
महाराणा जवानसिंह चाहते थे कि रामसिंह को बर्खास्त करके शेरसिंह को प्रधान बनाया जावे। 14 जनवरी, 1830 ई. को शेरसिंह को उदयपुर बुलाया गया। महता रामसिंह ने अपना वजूद कायम रखने के लिए लोगों से जबरन धन वसूला।
इस तरह रामसिंह ने अंग्रेज सरकार से 2 लाख रुपए माफ करवाकर शेष 5 लाख रुपए ख़िराज के अदा कर दिए। 6 जनवरी, 1831 ई. को कप्तान कॉफ़ अपने वतन चला गया। जिसके बाद रामसिंह की ताकत कमजोर पड़ गई।
12 मई, 1831 ई. को महाराणा जवानसिंह ने प्रधान रामसिंह की अनुचित कार्रवाइयों के लिए उसको बंदी बना लिया व शेरसिंह को प्रधान बनाकर एक सिरोपाव दिया गया।
प्रधान रामसिंह के क़ैद होने व शेरसिंह के प्रधान बनने की ख़बर कलकत्ता में बैठे हुए कप्तान कॉफ़ को मिली, तो उसने 24 जून, 1831 ई. को रामसिंह की सिफ़ारिश में एक ख़त महाराणा जवानसिंह को लिखा।
उस ख़त में उसने लिखा कि रामसिंह के बहुत से दुश्मन हो गए हैं, उसे केवल आप (महाराणा) ही बचा सकते हैं, अगर आपने उसको नहीं बचाया, तो वह किसी और के हाथ से मारा जाएगा।
नाथद्वारा के गोस्वामी द्वारा नाथद्वारा मंदिर को मेवाड़ से जुदा करने का प्रयास करना :- 1831 ई. में नाथद्वारा के गोस्वामी ने मेवाड़ राज्य से अलग होकर स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने का विचार किया। गोस्वामी यह भूल गए कि अनेक संकट मोल लेकर महाराणा राजसिंह ने इस मंदिर की स्थापना की थी।
गोस्वामी ने अपने वकील राधिकादास को राजपूताने के एजेंट के पास भेजा, पर रिचर्ड कैविन्डिश ने ये कहकर उसे लौटा दिया कि “नाथद्वारा उदयपुर राज्य के अंतर्गत आता है और महाराणा की सिफारिश के बिना ऐसा संभव नहीं”
रिचर्ड कैविन्डिश ने महाराणा जवानसिंह को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने लिखा कि “एक ख़त समेत नाथद्वारा मंदिर के पुजारी ने अपने वकील राधिकदास को मेरे पास भेजा। मैंने उनको कह दिया है कि नाथद्वारा मेवाड़ से अलग नहीं है, इसलिए तुम्हारा अलग दर्जा कायम करने की गरज से यहां आना मुनासिब नहीं है। बिना महाराणा साहिब की सहमति के नाथद्वारा वालों की सुनवाई यहां नहीं हो सकती है।”
गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक से भेंट की चर्चा :- गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने पोलिटिकल एजेंट के द्वारा महाराणा जवानसिंह को कहलवाया कि “मैं अजमेर आता हूँ, आप वहां मुझसे मुलाकात करें”।
एक मेजर ने ये सूचना महाराणा जवानसिंह को दी, तो महाराणा ने उससे कहा कि “मेरे पूर्वजों ने कभी मुगल दरबार में पांव न रखे, तो मेरा अजमेर जाकर गवर्नर जनरल से मिलना कैसे उचित हो सकता है ?” मेवाड़ के दरबार में सरदारों के बीच भी इस बात को लेकर विचार विमर्श हुआ।
इस पर कर्नल स्पीयर ने महाराणा जवानसिंह से कहा कि “मुगल हमेशा से मेवाड़ के दुश्मन रहे थे, पर हम आपके दोस्त हैं। मुगल बादशाहों के दरबार में राजाओं की हैसियत एक नौकर जैसी समझी जाती थी, सिर झुकाना आवश्यक समझा जाता था, इसलिए आपके पुरखों ने कभी मुगल दरबार में पैर नहीं रखा। पर गवर्नर जनरल ऐसा न करके आपको एक राजा की तरह सम्मान देंगे। मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि आपकी मुलाकात उनसे बतौर दोस्त की होगी”
कर्नल स्पीयर की यह बात महाराणा व अधिकतर सरदारों को उचित लगी, पर कुछ सरदारों ने इस पर ऐतराज जताया, तो महाराणा ने उनसे कहा कि “हमारा अजमेर जाना क्यों उचित है इसके 3 कारण हैं।
पहला ये कि बड़े हुज़ूर (महाराणा भीमसिंह) के साथ रहकर मैं ख़ुद मराठों की लूटपाट का सामना कर चुका हूं और ये मानता हूं कि अंग्रेज सरकार के कारण ही मराठों को मेवाड़ से खदेड़ा जा सका है। दूसरा कारण है कि शाहपुरा के फूलिया परगने में जो अंग्रेज फौज बैठी है, उसको हटवाना जरूरी है और ये काम विलियम बैंटिक से मिले बग़ैर सम्भव नहीं।
तीसरा कारण है कि मुझे अपने पूज्य पिता स्वर्गीय महाराणा भीमसिंह जी के श्राद्ध हेतु गया जाना है, जो कि कई महीनों तक का सफ़र करते हुए अंग्रेज सरकार के इलाकों से गुजर के जाना है। इस ख़ातिर मुझे अजमेर जाकर गवर्नर जनरल से बतौर दोस्त मुलाकात करनी होगी।”
महाराणा जवानसिंह की समझदारी भरी बात सुनकर किसी के मन में कोई संकोच शेष नहीं रह गया और सभी सरदारों ने सहमति जताई। आगे का वर्णन अगले भाग में लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)