महाराणा जवानसिंह का परिचय :- महाराणा जवानसिंह का जन्म 19 नवम्बर, 1800 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा भीमसिंह थे। महाराणा जवानसिंह बड़े ही पितृभक्त थे। इनको अपने पिता महाराणा भीमसिंह के देहांत का बड़ा ही रंज हुआ।
महाराणा जवानसिंह का व्यक्तित्व :- महाराणा जवानसिंह का कद मंझला, रंग गेंहुआ, शरीर पुष्ट, गहरी और बड़ी दाढ़ी, आंखें बड़ी, सीना चौड़ा और चौड़ी पेशानी थी। ये महाराणा हंसमुख, स्वरुपवान, मृदुभाषी, पितृभक्त, कवि व शिकार के शौकीन थे।
महाराणा जवानसिंह बड़े ही खूबसूरत थे। किसी नौकर के मरने पर अगर उसका वारिस बच्चा रह जाता, तो ये महाराणा कहते कि तुम्हारे पिता हम हैं। महाराणा जवानसिंह नौकरों द्वारा गलती करने पर भी क्रोध किए बगैर उनको नसीहतें देते।
कविराजा श्यामलदास ने तो यहां तक लिखा है कि मालिक और नौकर के बीच जैसे संबंध महाराणा जवानसिंह के समय में थे, वैसे शायद ही पहले कभी हुए हों। महाराणा जवानसिंह शिकार के शौकीन थे। रियासती प्रबंध पर भी ज्यादा ध्यान देते थे।
ये महाराणा बड़े बड़े अंग्रेज अफ़सरों की दी हुई सलाह भी मानने से इनकार कर देते थे, यदि वह सलाह इन्हें ज़रा भी अनुचित लगती, भले ही वह गवर्नर जनरल ही क्यों न हो। गुणों के साथ इनमें कुछ अवगुण भी थे, जैसे ये मद्य के शौकीन, विलासी व अपव्ययी थे।
राज्याभिषेक :- 31 मार्च, 1828 ई. को महाराणा जवानसिंह का राज्याभिषेक हुआ। महाराणा ने देखा कि जनता महाराणा भीमसिंह के देहांत के शोक में डूबी हुई थी। फिर महाराणा जवानसिंह ने प्रजा से कहा कि “मैं खुद अपने पिता के शोक में निमग्न हूँ, लेकिन वे तुम्हारा पालन करने के लिए मुझे छोड़ गए हैं, इसलिए सब लोग निश्चिंत रहो।”
अहलकारों की मनमानी :- महाराणा जवानसिंह ने मेवाड़ को सुदृढ़ बनाने के लिए बहुत से प्रयास किए, परन्तु अहलकार लोग महाराणा की तरह नेक नियति से काम नहीं करते थे।
महाराणा की यह इच्छा थी कि रियासत के सभी जमा खर्च वग़ैरह काम उनके सामने हुआ करे, लेकिन जब भी जमा खर्च हेतु अहलकारों से सवाल किया जाता, तो जवाब मिलता कि जमा खर्च के मामले में हुज़ूर (महाराणा) निश्चिंत रहें, ये काम हम नौकरों पर छोड़ दिया जावे।
जिस वक्त महाराणा भीमसिंह का देहांत हुआ, तब अहलकारों ने जवानसिंह जी से कहा कि महाराणा के दाह संस्कार हेतु दस हज़ार रुपयों की जरूरत है, पर साहूकार लोग कर्ज़ नहीं देते। इस बात को सुनकर जवानसिंह जी ने गुस्से में कहा कि “इस वक्त कर्ज़ की जमानत के लिए बेड़ियां मौजूद हैं।” ये जवाब सुनकर वे लोग डर गए और यह काम बगैर रुकावट के पूरा किया।
भोमट के इलाके से अंग्रेजी फ़ौज का हटना :- 1828 ई. में कर्नल स्पीयर्स की कार्यवाहियों से खुश होकर अंग्रेज सरकार ने भोमट के इलाके का समस्त कार्यभार उसे सौंप दिया। महाराणा जवानसिंह ने इस कार्यवाही का विरोध करते हुए अंग्रेज सरकार को लिख भेजा कि ये इलाका हमारे हाथ में रहने दिया जावे।
नतीजतन, खेरवाड़ा और पिंडवाड़ा से अंग्रेजी फौजें हटा ली गईं। अंग्रेजी फ़ौजें हटने के कुछ दिन बाद ही पिंडवाड़ा से 10 मील दूर स्थित जूड़ा ठिकाने के क्यार नामक गाँव में ग्रासियों ने 21 पठान सौदागरों को मारकर उनका सामान लूट लिया।
अंग्रेज सरकार की तरफ से टीके का दस्तूर :- 15 मार्च, 1829 ई. को अंग्रेज सरकार की तरफ से कप्तान कॉफ़ टीके का दस्तूर लेकर आया, जिसमें एक हाथी, दो घोड़े एक ढाल, एक मोतियों की माला, एक सिरोपाव आदि शामिल थे।
महाराणा जवानसिंह ने कप्तान कॉफ़ को फतहदौलत नाम का एक हाथी, तुरंगराज नाम का एक घोड़ा, कंठी, सरपेच व सिरोपाव और कप्तान के लड़के को हाथों की सोने की पहुँचियां व सिरोपाव और असिस्टेंट को सरपेच व मोतियों की माला भेंट की।
27 मार्च, 1829 ई. को कप्तान कॉफ़ ने महाराणा जवानसिंह को दावत दी और एक हाथी, एक घोड़ा, एक सरपेच, एक मोतियों की माला, दो सिरोपाव आदि महाराणा को भेंट किए।
लॉर्ड विलियम बेंटिक द्वारा महाराणा जवानसिंह को लिखा गया पत्र कुछ इस तरह है :- “महाराणा साहिब बड़े दर्जे के मिहरबान दोस्त सलामत रहें। ऐ आलीशान दोस्त, बहुत सा रंज और अफसोस महाराणा भीमसिंह के देहांत के बाद उनकी नेकियां और खूबियां याद करने से हुआ, लेकिन अब इस बात की खुशी है कि आप (महाराणा जवानसिंह) उदयपुर की राजगद्दी पर बिराजे हैं।”
बेगूं के रावत द्वारा होल्कर के क्षेत्रों पर चढ़ाई :- 1829 ई. में बेगूं के रावत किशोर सिंह चुंडावत ने होल्कर के नदवई व सींगोली नामक इलाकों पर चढ़ाई कर बहुत नुकसान पहुंचाया। इस पर अंग्रेज सरकार ने नाराज़ होकर महाराणा जवानसिंह से इसका हर्जाना वसूल करके होल्कर को दे दिया। आगे का वर्णन अगले भाग में किया जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)