1818 ई. – कर्नल जेम्स टॉड द्वारा मेवाड़ के हित में की गई में कार्यवाहियां :- 1818 ई. में हुई मेवाड़-अंग्रेज सन्धि के बाद जेम्स टॉड एजेंट बनकर मेवाड़ आया। मेवाड़ के जो किसान मराठों व पिंडारियों की लूटमार से तंग आकर मेवाड़ छोड़कर चले गए थे, जेम्स टॉड ने एक घोषणा पत्र द्वारा उनको सांत्वना दिलवाकर फिर से मेवाड़ में बुलाया।
इस तरह कुछ महीनों में ही मेवाड़ के 300 कस्बे और गांव फिर से आबाद हो गए। मालवा और हाड़ौती में बसे मेवाड़ी लोग फिर अपनी मातृभूमि में आ गए। खेती और व्यापार फिर से पहले की तरह होने लगे। जेम्स टॉड ने महसूल में कमी कर दी, जिससे मेवाड़ की आय में वृद्धि हुई।
खालिसे की भूमि पर हाकिम मुकर्रर किए गए। साइर का प्रबंध भी किया गया। मराठों के हमले से उजड़ हो चुका भीलवाड़ा फिर से बसाया गया और 1200 घर आबाद हो गए, जिनमें विदेशी व्यापारी भी आकर बसने लगे। एक वर्ष तक भीलवाड़ा के व्यापारियों को कर मुक्त रखा गया।
भीलवाड़ा की प्रजा ने जेम्स टॉड से आग्रह किया कि इस कस्बे का नाम “टॉडगढ़” रखा जाए, परंतु जेम्स टॉड ने कहा कि “मैं पुराने जिलों और कस्बों के नाम बदलना गलत मानता हूं, क्योंकि जिन महापुरुषों के नाम पर इन शहरों के नाम पड़े, उनका स्थान कोई नहीं ले सकता। इस खातिर इसका नाम भीलवाड़ा ही रहने दिया जाए”
1818 ई. में एक तरफ तो मेवाड़ में शांति स्थापित हुई, लेकिन दूसरी तरफ महाराणा भीमसिंह को बड़ा आघात पहुंचा, क्योंकि मेवाड़ के उत्तराधिकारी कुँवर अमरसिंह का 22 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। वे बड़े बहादुर और दिखने में खूबसूरत थे।
रामप्यारी की बाड़ी नामक स्थान पर कर्नल जेम्स टॉड के रहने की व्यवस्था की गई। यह स्थान उदयपुर शहर के भीतर है। इन्हीं दिनों मेवाड़ के मंत्री किशनदास पंचोली को किसी विश्वासघाती ने जहर दे दिया, जिससे उनका देहांत हुआ।
कर्नल जेम्स टॉड किशनदास के बारे में लिखता है कि “महाराणा के दरबार में केवल वही ईमानदार और कार्यकुशल व्यक्ति था। बहुत दिनों तक वह राजदूत रहा था और उसके कार्यों से राजा और प्रजा दोनों को लाभ पहुंचा।”
5 सितंबर, 1818 ई. को महता देवीचंद को प्रधान पद का खिलअत दिया गया। देवीचंद ने प्रधान बनने से इनकार किया, लेकिन महाराणा ने कहा कि तुम्हारी मौजूदगी में किसी और को प्रधान बनाना हरगिज़ मुनासिब नहीं।
महाराणा का लिहाज करके देवीचंद ने प्रधान पद स्वीकार किया, लेकिन समस्त कामकाज देवीचंद के भतीजे शेरसिंह ने किया। प्रधान देवीचंद ने 2 शादियां की थीं, जिनमें से पहली शादी महता रामसिंह की बहन से की थी।
इसलिए देवीचंद अपने साले रामसिंह पर ज्यादा भरोसा करते थे। रामसिंह भी योग्य व होशियार थे। इस वक्त साह शिवलाल गलूंंड्या अपना अलग ही रौब दिखाने लगे, तो महता देवीचंद ने प्रधान पद का खिलअत अपने साले रामसिंह को दिलवा दिया।
महाराणा भीमसिंह की पुत्रियों व पौत्री का विवाह :- इन्हीं दिनों महाराणा भीमसिंह ने अपनी 2 पुत्रियों व एक पौत्री का विवाह करवाना चाहा। महाराणा ने अपनी पुत्री अजब कंवर बाई का विवाह बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह राठौड़ के बड़े कुंवर रतनसिंह के साथ करवाया।
महाराणा ने अपनी पुत्री रूप कंवर बाई का विवाह जैसलमेर के रावल गजसिंह भाटी के साथ करवा दिया। फिर महाराणा ने अपनी पौत्री (कुँवर अमरसिंह की पुत्री) कीकाबाई का विवाह करवाना चाहा।
महारानी गुलाब कँवर ने अपनी पौत्री कीकाबाई का संबंध किशनगढ़ के महाराजा कल्याणसिंह के पुत्र कुँवर मुहकमसिंह राठौड़ के साथ करने की सलाह दी। फिर महाराणा भीमसिंह ने चारण बारहट रामदान को एक खास रुक्के समेत किशनगढ़ भेजा।
(रामदान को किशनगढ़ की तरफ से जागीर मिली हुई थी और मेवाड़ की तरफ से भी 2 गांव मिले थे) बारहट रामदान 3 दिन बाद किशनगढ़ से लौट आए और यह ख़बर सुनाई कि किशनगढ़ वाले इस विवाह हेतु राज़ी हैं।
लेकिन इस दौरान कुछ मतलबी लोगों ने महाराणा के कान भरे कि आपको किशनगढ़ वालों से विवाह सम्बन्ध नहीं रखने चाहिए। इस ख़ातिर महाराणा ने विवाह से इनकार कर दिया। अब यहां बारहट रामदान की बात बिगड़ गई, क्योंकि मध्यस्थता उन्होंने ही की थी।
महाराणा भीमसिंह ने रामदान को तसल्ली देते हुए कहा कि जो जागीर तुम्हें किशनगढ़ में मिली थी, उसके बदले में हम तुम्हें पांच हजार की आमदनी वाली जागीर मेवाड़ में दे देंगे।
लेकिन बात मान सम्मान की थी, इसलिए बारहट रामदान अपनी कटार निकालकर जनानी ड्योढ़ी पर चले गए और महारानी सा से कहलाया कि अगर ये विवाह सम्बन्ध नहीं हुआ, तो मैं यहीं इस कटारी से आत्महत्या कर लूंगा।
महारानी भी विवाह संबंध टूटने से महाराणा से नाराज़ थीं, इसलिए महाराणा से कहलाया कि अगर ये विवाह न हुआ तो मैं अपनी पौत्री के साथ दरबार में अपने प्राण त्याग दूंगी। महाराणा ने क्लेश बढ़ता देखकर किशनगढ़ में विवाह हेतु आज्ञा दे दी।
2 जगह से तो बारातें आ गईं, लेकिन जैसलमेर के रावल गजसिंह भाटी किसी कारणवश समय पर न आ सके। वे अगले दिन अपने साथी, बारातियों व सेना के लवाजमे को रास्ते में ही छोड़कर अकेले उदयपुर आए। 3 जुलाई, 1820 ई. को तीनों विवाह बड़े धूमधाम से हुए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)