महाराणा भीमसिंह की उदारता :- एक बार एक सेवक महाराणा भीमसिंह के पैर दबा रहा था। सेवक ने महाराणा के पैर के अंगूठे से सोने का छल्ला निकालना चाहा, पर मध्य में अटक जाने से वह निकल न सका, तो उसने थूंक लगाकर निकालने की कोशिश की, जिससे महाराणा जाग गए।
महाराणा ने कहा कि “तुझे छल्ला निकालना था तो वैसे ही निकाल लेता, थूंक लगाकर मेरा पैर अपवित्र क्यों किया”। फिर महाराणा ने उठकर स्नान किया, परंतु सेवक की अत्यंत निर्धन अवस्था देखकर उसे कुछ भी दंड न दिया।
महाराणा भीमसिंह के उदार व्यक्तित्व के बारे में एक किस्सा है कि एक बार जब राज्य की आर्थिक स्थिति खराब थी, तब एक व्यक्ति अपनी कन्या के विवाह हेतु महाराणा से कुछ रुपए ले गया। फिर 2 दिन बाद दोबारा आया और महाराणा से रुपए मांगकर ले गया।
महाराणा उसकी शक्ल जानते थे और यह भी जानते थे कि वह व्यक्ति झूठ बोल रहा था। अगले दिन वह व्यक्ति फिर आया और महाराणा से रुपए ले गया। इसके बाद वह व्यक्ति बड़ा लज्जित हुआ।
उस व्यक्ति ने अगले दिन समस्त रुपया महाराणा के चरणों में रख दिया और कहा कि “मैं तो अन्नदाता को जांच रहा था, परन्तु राज्य की शोचनीय स्थिति में भी मैंने आपको अत्यंत उदार पाया।” महाराणा ने उसकी बात सुनकर वह रुपया फिर से उस व्यक्ति को दे दिया।
मेरों का दमन :- मार्च, 1819 ई. में अंग्रेजी सेना मेरवाड़ा पहुंची। मेवाड़ व अंग्रेजों की सम्मिलित सेना ने बोरवा, झाक और लुलुवा पर अधिकार कर लिया। मेरों को पराजित होकर भागना पड़ा व उनका पहाड़ों से निकलना बंद हो गया, पर मारवाड़ की तरफ से उनके हमले जारी रहे।
नवंबर, 1819 ई. में जेम्स टॉड खुद जोधपुर गया और सब थानों का प्रबंध करके मेरवाड़ा को चारों ओर से घेर लिया। मेरवाड़ा में थानों का प्रबंध करके रूपाहेली के ठाकुर सालिमसिंह सरदारों सहित लौट गए, जिसके बाद मेरों ने फिर से उपद्रव करना शुरू कर दिया।
मेरों ने झाक नामक इलाके में स्थित थाने पर हमला किया और वहां के अंग्रेज थानेदार को मार दिया। और भी कुछ थानों पर उनका कब्ज़ा हो गया। ठाकुर सालिमसिंह फौज समेत दोबारा रवाना हुए और मेरवाड़ा पहुंचे। नसीराबाद से अंग्रेजी फौज भी आ पहुंची।
इस सम्मिलित सेना ने मेरों को पराजित करते हुए बोरवा, रामपुरा, सापोला, हथूण, बरार, बली, कूकड़ा, चांग, सारोठ, जवाजा आदि इलाकों पर अधिकार करके थाने बिठा दिए। किसी भी थाने पर 100 से कम सैनिक नहीं रखे गए।
रामगढ़ की लड़ाई में हथूण के खां समेत 200 मेर मारे गए। मेवाड़ की तरफ़ से भगवानपुरा के रावत काम आए। इन्हीं दिनों मेरवाड़ा में महाराणा भीमसिंह के नाम पर “भीमगढ़” व जेम्स टॉड के नाम पर “टॉडगढ़” दुर्ग बनवाए गए।
इस प्रकार मेरवाड़ा में शांति स्थापित हो गई, मेरों को समझाकर उन्हें ज़मीनें दी गईं ताकि उन्हें भविष्य में किसान बनाया जा सके। टॉड ने ठाकुर सालिमसिंह को एक प्रशंसा पत्र लिख भेजा।
महाराणा भीमसिंह ने ठाकुर सालिमसिंह को ‘अमर बलेणा’ घोड़ा, बाड़ी व सीख का सिरोपाव सदा के लिए देकर सम्मानित किया। (अमर बलेणा उस घोड़े को कहते हैं, जो महाराणा द्वारा सम्मान स्वरूप दिया जाता व इस घोड़े के बूढ़ा होने पर या मरने के बाद दूसरा घोड़ा दिया जाता)
1820 ई. – मेरवाड़ा पर अग्रेजों का कब्ज़ा :- अंग्रेज अफ़सर ऑक्टरलोनी ने मेरवाड़ा में हुए उपद्रव के बाद महाराणा भीमसिंह को खत लिखा कि “मेवाड़ व मारवाड़ दोनों का मेरवाड़ा के जिन-जिन इलाकों पर अधिकार है, उस हिस्से पर अधिकार छोड़कर पूरा मेरवाड़ा अंग्रेज सरकार के सुपुर्द कर दिया जावे”
महाराणा भीमसिंह ने इस बात से इनकार किया, तो ऑक्टरलोनी ने कर्नल जेम्स टॉड को पत्र लिखकर उस पर दबाव बनाया और मेरवाड़ा पर अवैध रूप से कब्ज़ा कर लिया। इस बात से गवर्नर जनरल सख़्त नाराज हुआ और उसने ऑक्टरलोनी को हिदायत देते हुए लिखा कि “भविष्य में ऐसा कोई काम न किया जावे जो महाराणा के हितों के विरुद्ध हो”
चार्ल्स मेटकाफ ने भी ऑक्टरलोनी की कार्यवाही का विरोध किया, परंतु मेरवाड़ा के इलाके महाराणा के सुपुर्द नहीं किए गए और यह क्षेत्र सदा के लिए मेवाड़ से अलग हो गया।
1821 ई. – भीलों के उपद्रव :- कर्नल जेम्स टॉड ने मेवाड़ के हित में कई प्रकार के कर (Tax) समाप्त कर दिए थे। इन करों में से मार्गों की रक्षा का ‘वोलाई कर’ और चौकीदारी का ‘रखवाली’ नामक कर भीलों को मिलता था, पर ये कर उन्हें मिलने बंद हो गए।
नतीजतन भीलों और कुछ राजपूत ठाकुरों ने उपद्रव करना व आसपास के गांवों को लूटना शुरू कर दिया। नीमच के आसपास के ठाकुर वहां के लुटेरे भीलों को अपने यहां शरण देते थे। शाटोले का रावत इनका मुखिया था और जवास का सरदार भी बागी हो गया और महाराणा के आदेशों के विरुद्ध आचरण करना शुरू कर दिया।
नीमच की तरफ की पालों के मुखिया गांगा को जेम्स टॉड ने मना लिया पर कुछ खास सफलता न मिली। 4 अप्रैल, 1821 ई. को साह शिवलाल गंडूल्या को मेवाड़ का प्रधान घोषित किया गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)