1802 ई. – चेजा घाटी का युद्ध :- मराठा सरदार बालेराव को क़ैद से छुड़ाने के लिए कोटा के झाला जालिमसिंह, भींडर व लावा के शक्तावत सरदारों की सहायता लेकर चेजा घाटी की तरफ बढ़े। महाराणा भीमसिंह के सरदार भी इनका मुकाबला करने के लिए 6 हजार की फौज समेत आगे बढ़े।
चेजा घाटी के पास 5 दिन तक दोनों फौजों में लड़ाई होती रही। इस लड़ाई में महाराणा की तरफ से रावत अजीतसिंह सारंगदेवोत सख़्त ज़ख्मी हुए, जिनको महाराणा ने पालकी देकर उन्हें उनके ठिकाने तक पहुंचवा दिया।
जालिमसिंह ने महाराणा से अपने अपराधों की क्षमा मांगी, तो महाराणा ने बालेराव आदि तीनों क़ैदियों को मुक्त कर दिया और जालिमसिंह को जहांजपुर का परगना दे दिया। जालिमसिंह ने विष्णुसिंह शक्तावत को जहांजपुर का हाकिम बनाया।
फिर महाराणा ने जालिमसिंह की बात मानकर तीनों मराठा सरदारों को क़ैद से रिहा कर दिया। लेकिन इस घटना के बाद झाला जालिमसिंह ने मेवाड़ की खैरख्वाही छोड़ दी।
1803 ई. – मराठों द्वारा मेवाड़ में लूटखसोट :- इन दिनों अंग्रेज हिंदुस्तान पर गालिब हो रहे थे और मराठों का ज़ोर उनके आगे कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा था। अंग्रेज सरकार से घबराकर जसवंत राव होल्कर और दौलतराव सिंधिया, जो आपस में शत्रु थे, एक हो गए।
जसवंत राव होल्कर ने मेवाड़ में प्रवेश कर महाराणा से व भींडर, देवगढ़, बदनोर, लावा आदि ठिकानों से मिलाकर कुल 40 लाख रुपए वसूल किए। सिंधिया व होल्कर बदनोर के पास मिले व दोनों ने आपस में संधि करके तय किया कि मेवाड़ राज्य को ही आपस में बांट लिया जावे।
सिंधिया के लश्कर में महाराणा भीमसिंह के एलची रावत सरदारसिंह चुंडावत मौजूद थे। सिंधिया के लश्कर में मौजूद आंबाजी इंगलिया हमेशा सिंधिया को यही सलाह देता था कि मेवाड़ का राज मराठा सरदारों में बांट दिया जावे।
लेकिन दौलतराव सिंधिया की स्त्री रावत सरदारसिंह की मददगार थी, जिस कारण से आंबाजी की बात पर ध्यान नहीं दिया गया। जिस तरह रावत सरदारसिंह सिंधिया के यहां मौजूद थे, उसी तरह महाराणा के एलची रावत संग्रामसिंह शक्तावत और कायस्थ कृष्णदास होल्कर के दरबार में मौजूद थे।
वैसे तो इन दिनों शक्तावत और चुंडावत राजपूत एक दूसरे के अव्वल दर्जे के शत्रु बन बैठे थे, लेकिन जब आंबाजी ने मेवाड़ को मराठों में बांटने की सलाह दी, तो रावत सरदारसिंह चुंडावत सिंधिया के लश्कर से निकलकर होल्कर के लश्कर में शामिल रावत संग्रामसिंह शक्तावत से जा मिले।
दोनों सरदारों ने आपसी दुश्मनी को भुलाकर मेवाड़ को मराठों से बचाने की तरकीब सोची। दोनों सरदार जसवंत राव होल्कर के पास गए और होल्कर से कहा कि “मेवाड़ का तख़्त सदियों से हिंदुओं का गौरव रहा है। इस रियासत ने सदियों से आक्रांताओं का सामना किया और अब जबकि मेवाड़ आर्थिक संकट और फ़ौजी कमी से जूझ रहा है, तो ऐसे वक्त में सिंधिया का वह मराठा सरदार आंबा मेवाड़ को बांटने और रिआया पर जुल्म करने जैसी बातें करता है, ये कहाँ तक सही है ?”
रावत संग्रामसिंह शक्तावत ने होल्कर को मेवाड़ के गौरवशाली अतीत व महाराणा भीमसिंह जी की विकट स्थिति का ऐसा मर्मस्पर्शी चित्र खींचा कि उसका जी पिघल गया। होल्कर पर इन बातों का गहरा असर हुआ और उसने दोनों सरदारों को अफीम देकर कहा कि “आंबाजी की मंशा के मुवाफिक कुछ भी न होगा। आप दोनों सरदार एक हो जाइए।”
फिर होल्कर ने सिंधिया के पास जाकर कहा कि “मेवाड़ के खानदान का बड़प्पन बर्बाद करना ईमानदारी के ख़िलाफ़ है। महाराणा हमारे मालिकों के मालिक हैं। जितने भी इलाके महाराणा के हैं, वे सब छोड़कर महाराणा के साथ दोस्ती का बर्ताव करना चाहिए।”
(मालिकों के मालिक से आशय ये है कि होल्कर और सिंधिया के मालिक पेशवा थे और पेशवाओं के मालिक सतारा वाले थे, जो कि महाराणाओं के ही वंश की एक शाखा से निकले थे)
जसवंत राव होल्कर ने निम्बाहेड़ा का परगना महाराणा को लौटा दिया। फिर बरसात का मौसम आ गया, जिसके बाद होल्कर और सिंधिया की दोबारा मुलाकात नहीं हुई और मेवाड़ के सभी परगने महाराणा को लौटाने की बात पर ध्यान नहीं दिया गया।
होल्कर व सिंधिया की नाराजगी :- कुछ दिन बाद होल्कर के पास उसके एक नौकर ने संदेशा भेजा कि “महाराणा का भैरवबख्श नामक दूत लॉर्ड लेक के डेरे में आया और उससे कहा कि जो अंग्रेजी फ़ौज इस वक्त टोंक में है, वह मेवाड़ से मराठों को खदेड़ने में हमारी सहायता करे।”
ये ख़बर सुनकर होल्कर आग बबूला हो गया और उसने दोनों सरदारों (रावत संग्रामसिंह शक्तावत व रावत सरदारसिंह चुंडावत) को बुलाकर विश्वासघात का आरोप लगाया और अपने नौकर का खत उनको दिखाया।
मेवाड़ के वकील कायस्थ कृष्णदास ने मामला शांत करने का प्रयास किया, लेकिन तभी मराठा वज़ीर अलीकर तांतिया ने होल्कर से कहा कि “तुम इन राजपूतों पर भरोसा मत करो, ये तुममें और सिंधिया में दरार डालना चाहते हैं। सरजीराव को निकालकर आंबाजी को मेवाड़ का सूबेदार बनाओ, वरना मैं भी तुम्हारा साथ छोड़कर सिंधिया को मालवा ले जाऊंगा।”
होल्कर उत्तर की तरफ गया, जहां लॉर्ड लेक से लड़ाई हुई। इस लड़ाई में होल्कर बुरी तरह परास्त होकर भाग निकला। लॉर्ड लेक ने पंजाब तक उसका पीछा किया। मराठों के ख़िलाफ़ इस कार्यवाही से सिंधिया महाराणा भीमसिंह पर बहुत नाराज हुआ और मेवाड़ से 16 लाख रुपए वसूल करके चला गया।
यहां पाठकों को सम्भवतः ये बात समझने में आसानी रही होगी कि अंग्रेजों की मदद लिए बग़ैर मराठों को मेवाड़ से निकालना सम्भव नहीं था। मराठे यदि पहले ही इस बात का ध्यान रखते कि हिन्दू राज्यों को लूटने में सिर्फ बाहरी शक्तियों का फायदा है, तो अंग्रेजों के हस्तक्षेप की आवश्यकता ही न पड़ती।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)