1800 ई. – मेवाड़ में सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत, कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत और भींडर के रावत मुहकम सिंह शक्तावत का देहांत हो गया। इसी वर्ष मराठा सरदार लकवा ने जहाजपुर का किला शाहपुरा वालों से छीनकर महाराणा को दिलवाया।
महाराणा भीमसिंह ने ये किला महता अगरचन्द के पुत्र देवीचंद को सौंप दिया। महाराणा भीमसिंह ने देवीचंद से कहा कि जिस तरह तुम्हारे पिता ने मांडलगढ़ के किले की हिफाज़त की, उसी तरह तुम भी जहाजपुर की हिफाज़त करना।
लकवा का मेवाड़ से प्रस्थान :- लकवा ने मेवाड़ की प्रजा से धन वसूल किया और फिर जसवंत राव भाऊ को अधिकार सौंप कर जयपुर चला गया।
1802 ई. – महाराणा द्वारा गोस्वामियों व मूर्तियों की रक्षा :- सिंधिया से पराजित होने के बाद जसवंत राव होल्कर मेवाड़ चला आया। सिंधिया की फौज भी उसका पीछा करते हुए मेवाड़ आ गई, तो होल्कर नाथद्वारा जा पहुंचा। होल्कर का इरादा नाथद्वारा के प्रसिद्ध श्रीनाथ मंदिर को लूटने का था।
जसवंत राव होल्कर ने नाथद्वारा के गोस्वामियों से 3 लाख रुपए की मांग करते हुए कहा कि “अगर तुम लोगों ने ऐसा न किया तो ये धन जबरन वसूल किया जावेगा और मंदिरों की संपत्ति भी लूटी जाएगी”
गोस्वामियों ने महाराणा भीमसिंह को इस बात की सूचना दी, तो महाराणा ने इन विपरीत परिस्थितियों में भी बिना एक क्षण की देर किए तुरंत नीचे लिखे सरदारों समेत फौज रवाना कर दी :-
देलवाड़ा के राज कल्याणसिंह झाला, कूंठवा के ठाकुर विजयसिंह सांगावत चुंडावत, आगर्या के ठाकुर जगतसिंह राठौड़ जैतमालोत, मोही के जागीरदार अजीतसिंह भाटी, साह एकलिंगदास बौल्या, कोठारिया के रावत विजयसिंह चौहान, जमादार नाथू सिंधी।
मेवाड़ी फौज नाथद्वारा पहुंची व वहां से गोस्वामियों व तीनों मूर्तियों को लेकर निकल पड़ी। मेवाड़ी फौज ने उनवास गांव में पड़ाव डाला, जहां से आगे कोई खतरा न जानकर कोठारिया के रावत विजयसिंह चौहान ने विदा ली और वे अपने ठिकाने की तरफ निकल पड़े।
तब मार्ग में जसवंत राव होल्कर ने कोठारिया रावत को घेर लिया और कहा कि “अपने शस्त्र और घोड़े दे जाओ”। शस्त्र और घोड़े देने में अपना अपमान समझकर रावत विजयसिंह ने अपने घोड़े को मार डाला।
रावत साहब अपनी फौजी टुकड़ी समेत हज़ारों शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। रावत विजयसिंह ने इस लड़ाई में ऐसा ज़ोर दिखाया कि मराठे भी तारीफ़ किए बग़ैर न रह सके। उधर मेवाड़ी फौज ने उनवास गांव से तीनों मूर्तियां घसियार पहुंचा दीं।
29 जनवरी, 1802 ई. को महाराणा भीमसिंह घसियार तक पेशवाई के लिए गए और श्री गोवर्द्धननाथ की मूर्ति को लेकर उदयपुर पधारे। गोसाई जी उदयपुर में 10 महीनों तक ठहरे। इन 10 महीनों में महाराणा ने घसियार में एक भव्य मंदिर व किला बनवाया।
गोसाई जी ने घसियार के इस मंदिर में श्री गोवर्द्धन नाथ की मूर्ति स्थापित की। (बाद में 1807 ई. में इस मूर्ति की स्थापना पुनः नाथद्वारा में स्थित पुराने मंदिर में कर दी गई)
जसवंत राव होल्कर श्रीनाथ जी मंदिर को नहीं लूट पाने के कारण क्रोधित हुआ और उसने इसका बदला नाथद्वारा के लोगों को लूटकर लिया। फिर होल्कर ने भींडर वालों पर भी दबाव डाला।
सिंधिया ने भले ही होल्कर को शिकस्त दी, लेकिन लूटेरों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है, सिंधिया के अफसरों ने भी मेवाड़ से 3 लाख रुपए लूटे। प्रधान महता मौजीराम ने महाराणा भीमसिंह को सलाह दी कि यूरोपियन ढंग से शिक्षित सैनिक मेवाड़ी फ़ौज में भर्ती किए जाएं व उनका खर्च मेवाड़ के सरदारों से वसूला जाए।
ये बात सुनकर सरदारों ने एकमत होकर महता मौजीराम को प्रधान पद से ख़ारिज करवा दिया। साह सतीदास को वज़ीर बनाया गया और उसके भाई शिवदास को कोटा से बुलाया, जो कि चुंडावतों के ख़ौफ़ से कोटा के झाला जालिमसिंह के यहां भाग गया था।
इन्हीं दिनों सलूम्बर के एक मठ में सिंधिया के अफसर लकवा की मृत्यु हो गई। आंबाजी इंगलिया का भाई बालेराव शक्तावतों व सतीदास प्रधान से मिल गया। फिर उसने महाराणा के भूतपूर्व मंत्री देवीचंद को चुंडावतों का तरफदार समझकर क़ैद कर लिया और चुंडावतों की कुछ जागीरें छीन लीं। कोटा के जालिमसिंह झाला भी अपनी फौज समेत शक्तावतों से मिल गए।
मार्च, 1802 ई. में बालेराव ने महाराणा के पास पहुंचकर कहा कि मौजीराम को हमें सौंप दो, पर महाराणा ने मना कर दिया। महाराणा द्वारा मना करने पर मराठों की फौज उदयपुर के महलों की तरफ बढ़ी। मार्च, 1802 ई. में साहसी मौजीराम ने बालेराव (आंबाजी इंगलिया के भाई), जालिमगिर गुसाईं और ऊदा कँवर को क़ैद कर लिया। (मराठों में ‘गुलाम’ को ‘कँवर’ कहा जाता था)
इन मराठा सरदारों को चुंडावतों ने कैद करवाया था और इसमें महाराणा की इजाजत नहीं ली गई थी, क्योंकि इन दिनों चुंडावत राजपूतों का प्रभाव बहुत बढ़ गया था। कोटा के झाला जालिमसिंह, जो कि मराठों के मित्र थे, मेवाड़ की तरफ फ़ौज लेकर बढ़े, ताकि मराठा मित्रों को छुड़वा सकें।
मेवाड़ की तरफ से भी चुंडावतों की फ़ौज उदयपुर से रवाना हुई। चुंडावतों ने मराठा फौज पर हमला किया, जिससे मराठा फौज शिकस्त खाकर गाडरमाला की तरफ चली गई।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)