1798 ई. – मेवाड़ी फौज द्वारा गणेश पंत को पीछे ढकेलना :- मेवाड़ की फ़ौज हमीरगढ़ की पहली लड़ाई में मराठा सरदार गणेश पंत से पराजित होकर पीछे हट गई। फिर मेवाड़ी फ़ौज ने दोबारा हमीरगढ़ पर धावा बोला। मेवाड़ी बहादुरों ने हमीरगढ़ को घेर लिया, जहां गणेश पंत अपने सैनिकों समेत ठहरा हुआ था।
मराठा सरदार लकवा की फ़ौज इस समय मेवाड़ की तरफ थी। लकवा की फ़ौज व मेवाड़ी फौज द्वारा की गई गोलंदाजी से किले की दीवार टूट गई। फिर दोनों तरफ से लड़ाई हुई, जिसमें मेवाड़ की तरफ से मंडप्या के बाबा उदयसिंह पुरावत, बाबा अनोपसिंह, चमरदार कायस्थ गोवर्द्धनदास आदि योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।
गणेश पंत भागने की तैयारी कर रहा था कि तभी उसकी मदद खातिर आंबाजी इंगलिया के पुत्र की अध्यक्षता में आंबाजी का भाई बालेराव, बापू सिंधिया, जसवंतराय सिंधिया, कप्तान बटरफील्ड अपनी फ़ौजों समेत बेड़च नदी के किनारे स्थित घोसुण्डा गांव में आ पहुंचे।
कोटा के झाला जालिमसिंह ने भी गणेश पंत की मदद ख़ातिर एक फ़ौज भेजी। गणेश पंत परास्त होकर हमीरगढ़ से भागकर घोसुण्डा पहुंचा। लकवा की फौज व मेवाड़ की सम्मिलित फौज ने हमीरगढ़ से घेरा उठा लिया और चित्तौड़ के निकट बेड़च नदी के दूसरी तरफ पड़ाव डाला।
गणेश पंत व बालेराव में सेना के व्यय के संबंध में किसी बात पर झगड़ा हो गया, जिसके बाद गणेश पंत सांगानेर चला गया। बालेराव व लकवा ने आपस में दोस्ती का बर्ताव किया व महाराणा भीमसिंह जी ने आंबाजी इंगलिया का पक्ष बिल्कुल छोड़ दिया।
चुंडावतों का वर्चस्व :- चुंडावत राजपूतों ने शक्तावतों से जागीरें छीनकर अपने तरफ़दारों को दिलवाईं। बिजोलिया का ठिकाना राव सवाई केशवदास पंवार को, हमीरगढ़ का ठिकाना रावत धीरतसिंह राणावत को, गाडरमाला का ठिकाना बाबा गोपालसिंह पुरावत को व गुरलां का ठिकाना बाबा देवीसिंह पुरावत को दिया गया।
1799 ई. – दौलतराव सिंधिया के अफसरों की आपसी लड़ाइयां :- आंबाजी इंगलिया ने गणेश पंत की मदद हेतु अपने 2 अफसरों (सदरलैंड व जॉर्ज टॉमस) को फौज समेत मेवाड़ भेजा, ताकि ये लकवा को मेवाड़ से खदेड़ सकें।
इन दोनों ने मेवाड़ पहुंचकर देवगढ़, आमेट, कोशीथल आदि गांव लूट लिए और चुंडावतों से लाखों का धन वसूल किया। टॉमस ने ढोकलिया गांव से 50 हज़ार रुपए लूट लिए। इस गांव के एक मंदिर में स्त्रियां ठहरी हुई थीं।
पुरोहित ने टॉमस से कहा कि अगर आपके सिपाही इस मंदिर की तरफ गए, तो हम अपनी स्त्रियों को मारकर खुद भी आप लोगों से लड़कर मारे जावेंगे। टॉमस ने यह बात सुनी तो उसने अपने सिपाहियों को सख़्त हिदायत दी कि कोई भी मंदिर के पास न जावे।
सदरलैंड वापिस लौट गया। फिर लकवा और जॉर्ज टॉमस के बीच मेवाड़ में छोटी-बड़ी कुछ लड़ाइयां हुईं, जिनमें लकवा पराजित हुआ और भागकर अजमेर चला गया। जॉर्ज टॉमस का प्रभाव बढ़ जाने पर दौलतराव सिंधिया ने जॉर्ज टॉमस को मेवाड़ से बाहर जाने के लिए खत लिखा व लकवा को मेवाड़ की सूबेदारी सौंप दी।
1799 ई. – महता अगरचंद का देहांत :- मेवाड़ के स्वामिभक्त मंत्री व सेनानायक महता अगरचंद का मांडलगढ़ दुर्ग में देहांत हो गया। महाराणा भीमसिंह ने अगरचंद के ज्येष्ठ पुत्र देवीचंद को मंत्री बनाया व जहांजपुर का किला उनको सौंपा।
महता अगरचन्द ने कई तकलीफें उठाकर मांडलगढ़ के किले की रक्षा की थी। महता अगरचन्द ने अपने चारों बेटों को नसीहतें दीं कि चाहे जो हो जाए, अपने मालिक महाराणा के आदेश को सर्वोपरि समझना और कभी भी अपने मालिक के बर्ख़िलाफ़ मत जाना।
महता अगरचन्द ने 38 वर्षों तक मेवाड़ की सेवा की थी। इस समयकाल में ऐसा समय भी आया जब इन्हें पद से बर्खास्त किया गया, लेकिन फिर भी इनकी स्वामिभक्ति में कोई कमी न आई। इनके द्वारा बनवाए गए जलाशय मांडलगढ़ दुर्ग में अब तक मौजूद हैं।
चारण की खिन्नता व महाराणा की उदारता :- एक बार कुछ चारण महाराणा भीमसिंह की प्रशंसा में कुछ पद्य बनाकर लाए और पारितोषिक प्राप्त कर चले गए, केवल एक चारण इससे वंचित रह गया।
दूसरे चारण उसको चिढ़ाने लगे तो उसने कहा कि “तुम सबने महाराणा की प्रशंसा करके पारितोषिक प्राप्त किया है, मैं निंदा करके प्राप्त करूँगा”। एक दिन महाराणा की सवारी निकली तो वह चारण रास्ते में खड़ा होकर जोर से बोला। “भीमा थूं भाटोह, मोटा मगरा मायलो”। अर्थात हे भीमसिंह ! तू किसी बड़े पर्वत का पत्थर है।
महाराणा के चौबदार व छड़ीदार उसको दंड देने के लिए आगे बढ़े पर महाराणा ने उनको रोका, उस चारण को पास बुलाया और सारी बात मालूम करके उसको सबसे अधिक पारितोषिक दिया।
तब उस चारण ने अपना सोरठा कुछ इस तरह पूरा किया। “भीमा थूं भाटोह मोटा मगरा मायलो, कर राखूं काठोह शंकर ज्यूं सेवा करूं”। अर्थात हे भीमसिंह ! तू किसी बड़े पर्वत का ऐसा पत्थर है, जिसे यत्न से रखकर मैं महादेव की भांति सेवा करूँ। ये सुनकर महाराणा बहुत प्रसन्न हुए और उसे दुगुना पारितोषक देकर विदा किया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)