मेवाड़ महाराणा भीमसिंह (भाग – 7)

1791 ई. – माधवराव सिंधिया व महाराणा भीमसिंह की मुलाकात :- सितंबर, 1791 ई. में नाहर मगरा में महाराणा भीमसिंह कुछ दिनों तक ठहरे। यहीं माधवराव सिंधिया और महाराणा ने मिलकर तय किया कि सलूम्बर के बागी सामंत रावत भीमसिंह चुंडावत व अन्य सरदार जो चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़ा जमाए हुए हैं, उनको वहां से निकाल दिया जावे।

पठानों का उपद्रव :- पठान सैनिक जो कि मेवाड़ की सेवा में थे, काफी समय से तनख्वाह न मिलने से उपद्रव पर उतर आए। अचानक पठान सैनिक तलवारें निकालकर महाराणा की ड्योढ़ी की तरफ़ चल पड़े। महाराणा भीमसिंह ने ये देखकर स्वयं तलवार निकाली और पठानों पर टूट पड़े।

महाराणा को लड़ते देखकर मेवाड़ी सैनिकों ने भी हमला किया, जिससे कुछ पठान कत्ल हुए व कुछ भाग निकले। इस लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से पीथावास के जागीरदार तख्तसिंह काम आए। धायभाई उदयराम के हाथ में तलवार का ज़ख्म लगा।

इस घटना के बाद माधवराव सिंधिया व झाला जालिमसिंह ने ये तय किया कि पठानों को नियत समय पर प्रतिमास वेतन मिल जाएगा। झाला जालिमसिंह काफी बुद्धिमान थे, उन्होंने तनख्वाह देने से सम्बंधित एक चौकी तैयार करवा दी, ताकि ऐसा फ़साद दोबारा न हो।

महाराणा भीमसिंह

चित्तौड़ दुर्ग पर महाराणा भीमसिंह का अधिकार :- महाराणा भीमसिंह ने नाहरमगरे से निकलकर चित्तौड़ के समीप सैंती गांव में पड़ाव डाला। यहां से सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत के नाम एक फ़रमान भेजा गया कि फौरन महाराणा के सामने हाजिर हो जावें।

लेकिन रावत भीमसिंह को दगा की आशंका थी, इसलिए उन्होंने किले में रहकर लड़ाई का सामान दुरुस्त किया। 23 अक्टूबर, 1791 ई. को चित्तौड़गढ़ के किले पर गोलन्दाजी शुरू की गई। ढाई महीने तक किले की घेराबंदी व लड़ाई जारी रही।

इन दिनों कोटा के झाला जालिमसिंह अपना रुतबा और अधिक बढ़ाने की फिराक में थे। जयपुर जैसी बड़ी रियासत की फ़ौज को उन्होंने शिकस्त दी थी। अब झाला जालिमसिंह का इरादा था कि यदि चुंडावतों को बिल्कुल खत्म कर दिया जावे, तो झाला जालिमसिंह को मेवाड़ का मुख्य मुसाहिब बनने में ज्यादा दिक्कत न आवे।

आंबाजी इंगलिया झाला जालिमसिंह की मंशा जान गया और रावत भीमसिंह से मिलने की कोशिश करने लगा। रावत भीमसिंह ने भी गनीमत जानकर आंबाजी इंगलिया के ज़रिए महाराणा से कहलवाया कि

“हम सदा से आपके चरणों के सेवक हैं, परंतु कोटा का झाला जालिमसिंह हमारा शत्रु है, उसे आप वापिस कोटा भेज दीजिये, हम चित्तौड़ का दुर्ग आपके सुपुर्द कर देंगे और माधवराव सिंधिया को 20 लाख रुपए दे देंगे।”

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

इन दिनों माधवराव सिंधिया को भी पूना की तरफ जाने की जल्दी थी, इसलिए उसे ये प्रस्ताव उचित लगा। झाला जालिमसिंह भी ये कहकर कोटा की तरफ चले गए कि जिस बात में महाराणा का फायदा हो, मुझे भी वह मंज़ूर है।

सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत व आमेट के प्रतापसिंह चुंडावत महाराणा के समक्ष हाजिर हुए व चित्तौड़ का किला महाराणा के सुपुर्द किया। महाराणा ने चित्तौड़ दुर्ग का किलेदार जयचंद गाँधी को बनाया व स्वयं रावत भीमसिंह चुंडावत को साथ लेकर उदयपुर आ गए।

माधवराव सिंधिया द्वारा आंबाजी इंगलिया को मेवाड़ में नियुक्त करना :- माधवराव सिंधिया ने पूना जाने से पहले आंबाजी इंगलिया को एक बड़ी फौज देकर कहा कि मेवाड़ की व्यवस्था ठीक करने के लिए तुम्हें 4 काम करने होंगे :-

1) महाराणा की हुकूमत को बहाल करना। राजद्रोही सरदारों व सिंधी सिपाहियों द्वारा दबाई गई भूमि महाराणा को वापिस दिलाना। 2) मेवाड़ राज्य के झूठे दावेदार रतनसिंह को कुम्भलगढ़ दुर्ग से खदेड़ना। 3) मारवाड़ के राजा से गोडवाड़ का परगना मेवाड़ को दिलाना। 4) महाराणा अरीसिंह की हत्या के मामले में जो झगड़ा बूंदी वालों से चल रहा है, उसे तय करना।

6 दिसंबर, 1792 ई. – कुम्भलगढ़ पर महाराणा भीमसिंह का अधिकार :- महाराणा ने मेवाड़ राज्य के नकली दावेदार रतनसिंह को कुम्भलगढ़ से खदेड़ने के लिए आंबाजी इंगलिया की अध्यक्षता में शिवदास गांधी, महता अगरचंद, साह किशोरदास देपुरा, कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत आदि सरदारों को फौज समेत भेजा।

कुम्भलगढ़ दुर्ग

ये फौज खमनोर गांव में पहुंची, फिर वहां से घाणेराव के ठाकुर दुर्जनसिंह राठौड़ को संदेश भेजकर कहलवाया कि हम केलवाड़ा की तरफ से कुम्भलगढ़ पर हमला कर रहे हैं, आप भी कुम्भलगढ़ पर हमले हेतु चढ़ाई करें।

ये फौज उदयपुर से रवाना होकर समीचा गांव में पहुंची जहां रतनसिंह के सहयोगी जोगियों से लड़ाई हुई, जिसमें जोगी हारकर केलवाड़ा की तरफ भाग गए। विजयी फौज ने केलवाड़ा में जाकर वहां से भी जोगियों को खदेड़कर भगा दिया।

कुम्भलगढ़ दुर्ग के द्वार आरेठ पोल की तरफ से मेवाड़ के सरदार व दूसरी तरफ से घाणेराव के ठाकुर दुर्जनसिंह राठौड़ किले की दीवारों पर चढ़ गए, जिससे रतनसिंह घबराकर भाग निकला।

6 दिसम्बर, 1792 ई. को गुरुवार के दिन महाराणा की फ़ौज ने कुम्भलगढ़ पर विजय प्राप्त कर ली। दुर्ग की किलेदारी सूरजगढ़ के जसवंत सिंह को सौंप दी गई और परगनों की हाकिमी महता हटीसिंह को सौंप दी गई।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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